शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 03
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
तीसरा अध्याय
महर्षि विश्वामित्र द्वारा बालक स्कन्द का संस्कार सम्पन्न करना, बालक स्कन्द द्वारा क्रौंचपर्वत का भेदन, इन्द्र द्वारा बालक पर वज्र प्रहार, शाख-विशाख आदि का उत्पन्न होना, कार्तिकेय का षण्मुख होकर छः कृत्तिकाओं का दुग्धपान करना

नारदजी बोले — हे देवदेव ! हे प्रजानाथ ! हे ब्रह्मन् ! हे सृष्टिकर्ता प्रभो ! इसके बाद वहाँ क्या हुआ, इसे आप कृपाकर बताइये ॥ १ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे तात ! इसी समय विधाता के द्वारा प्रेरित होकर महाप्रतापी विश्वामित्र स्वेच्छा से घूमते-घूमते वहाँ जा पहुंचे । इस तेजस्वी बालक के अलौकिक तेज को देखकर वे कृतार्थ हो गये और उन्होंने प्रसन्न होकर उस बालक को नमस्कार किया ॥ २-३ ॥ उस बालक के प्रभाव को जाननेवाले महर्षि विश्वामित्र ने प्रसन्नचित्त हो विधि-प्रेरित वाणी से उस बालक की स्तुति की । महान् लीला करनेवाला वह बालक अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अद्भुत हास्य करता हुआ विश्वामित्र से बोला — ॥ ४-५ ॥

शिवमहापुराण

शिवपुत्र बोले — हे महाज्ञानिन् ! आप अचानक शिवेच्छा से यहाँ आ पहुँचे हैं । अतः हे तात ! वेदोक्त रीति से मेरा यथाविधि संस्कार सम्पन्न कीजिये । आज से आप प्रसन्नतापूर्वक मेरे पुरोहित हो जायँ, इससे आप सदा सबके पूज्य होंगे । इसमें संशय नहीं है ॥ ६-७ ॥

ब्रह्माजी बोले — बालक की यह बात सुनकर गाधिपुत्र विश्वामित्रजी अत्यन्त प्रसन्न हो गये और आश्चर्यचकित होकर मन्द स्वर से उस बालक से उन्होंने कहा — ॥ ८ ॥

विश्वामित्र बोले — हे तात ! सुनो, मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, किंतु गाधिसुत क्षत्रियकुमार हूँ । मेरा नाम विश्वामित्र है, मैं तो ब्राह्मणसेवक क्षत्रिय हूँ ॥ ९ ॥ हे श्रेष्ठ बालक ! मैंने तुमसे अपना सारा चरित निवेदन कर दिया, तुम कौन हो ? अपना सम्पूर्ण चरित्र मुझसे कहो । मैं आश्चर्यान्वित हो रहा हूँ ॥ १० ॥

ब्रह्माजी बोले — विश्वामित्रजी के इस वचन को सुनकर महान् लीला करनेवाले बालक ने प्रसन्न हो उन गाधिपुत्र विश्वामित्रजी से अपना सारा चरित्र कहा ॥ ११ ॥

शिवसुत बोले — हे विश्वामित्रजी ! आप मेरे वरदान से ब्रह्मर्षि हैं, इसमें संशय की बात नहीं है । वसिष्ठादि ऋषिगण भी आदरपूर्वक आपकी प्रशंसा करेंगे । इस कारण आप मेरी आज्ञा से मेरा संस्कार करें, यह सब रहस्य आपको गुप्त ही रखना चाहिये, कहीं नहीं कहना चाहिये ॥ १२-१३ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे देवर्षे ! तदनन्तर विश्वामित्रजी ने परम प्रेमपूर्वक वेदोक्तरीति से भगवान् शिव के उस बालक के सम्पूर्ण संस्कार सम्पन्न किये ॥ १४ ॥ महान् लीला करनेवाले प्रभु शिवपुत्र ने भी बड़े प्रेम से महर्षि विश्वामित्रजी को दिव्य ज्ञान प्रदान किया ॥ १५ ॥ नाना प्रकार की लीला में पारंगत अग्निपुत्र ने विश्वामित्रजी को अपना पुरोहित बना लिया । उसी समय से वे विश्वामित्र द्विजश्रेष्ठ के रूप में प्रतिष्ठित हो गये ॥ १६ ॥ हे मुने ! उस बालक ने इस प्रकार जो लीला की है, वह मैंने आपको बता दी । हे तात ! उस बालक की दूसरी लीला मैं बता रहा हूँ, प्रेमपूर्वक सुनो ॥ १७ ॥

उसी समय श्वेत ने उस दिव्य तेजसम्पन्न परम पावन बालक को देखकर अपना पुत्र मान लिया । तदनन्तर अग्निदेव ने उस स्थान पर जाकर बालक को गले लगाकर उसका चुम्बन किया और उन्होंने उस बालक को ‘पुत्र’ शब्द से पुकारते हुए अपनी शक्ति तथा अस्त्र उसे प्रदान किया ॥ १८-१९ ॥ गुह कार्तिकेय उस शक्ति को लेकर क्रौंच पर्वत के शिखर पर चढ़ गये और उस शक्ति से शिखर पर ऐसा प्रहार किया कि वह शिखर पृथिवी पर गिर पड़ा ॥ २० ॥ उस बालक का वध करने के लिये सबसे पहले दस पद्म वीर राक्षस वहाँ आये, किंतु कुमार के प्रहार से वे सभी शीघ्र ही विनष्ट हो गये ॥ २१ ॥

उस समय सभी जगह महान् हाहाकार मच गया, पर्वतों के सहित सारी पृथ्वी और त्रैलोक्य काँपने लगा । उसी समय देवगणों के साथ देवराज इन्द्र वहाँ आ पहुँचे ॥ २२ ॥ इन्द्र ने अपने वज्र से कार्तिकेय के दक्षिण पार्श्व में प्रहार किया । वज्र के लगते ही उससे शाख नामक एक महान् बलवान् पुरुष प्रकट हो गया । पुनः इन्द्र ने उसके वाम पार्श्व में शीघ्र ही वज्र से प्रहार किया, उस वज्र के लगते ही उससे एक और विशाख नामक बलवान् पुरुष उत्पन्न हो गया । फिर इन्द्र ने वज्र से उसके हृदय में प्रहार किया, जिससे उसी के समान बलवान् नैगम नामक एक पुरुष प्रकट हो गया ॥ २३–२५ ॥ तब स्कन्द, शाख, विशाख तथा नैगम — ये चारों महाबलसम्पन्न महावीर इन्द्र को मारने के लिये बड़ी शीघ्रता से दौड़ पड़े । यह देखकर वे इन्द्र उनकी शरण में गये ॥ २६ ॥

हे मुने ! देवगणों के सहित इन्द्र उनसे भयभीत हो उठे और वे विस्मित हो उस स्थान से अपने लोक चले गये, किंतु उन्हें भी पराक्रम के रहस्य का ज्ञान नहीं हुआ ॥ २७ ॥ हे तात ! विविध प्रकार की लीलाओं को करनेवाला वह बालक आनन्दपूर्वक निर्भय हो वहीं पर स्थित हो गया । उसी समय कृत्तिका नामवाली छः स्त्रियाँ वहाँ स्नान के लिये आयीं और उन्होंने प्रभावशाली उस बालक को देखा । हे मुने ! उन सभी कृत्तिकाओं ने उस बालक को ग्रहण करना चाहा, उसी समय ग्रहण करने की इच्छा से उनमें परस्पर विवाद होने लगा ॥ २८-३० ॥

हे मुने ! उनके विवाद का शमन करने के लिये उस बालक ने छः मुख बना लिये और उन सबका स्तनपान किया, जिससे वे परम प्रसन्न हो उठीं । हे मुने ! फिर उस बालक के मन की गति जानकर वे सभी कृत्तिकाएँ प्रसन्नता से उसे लेकर अपने लोक चली गयीं ॥ ३१-३२ ॥ उन्होंने सूर्य से भी अधिक तेजस्वी तथा स्तनपान की इच्छा करनेवाले उस कुमार नामवाले बालक शिवपुत्र को अपना दूध पिलाकर बड़ा किया । वे प्राणों से भी अधिक प्रिय उस बालक को कभी आँखों की ओट न करतीं, जो पोषण करता है, उसीका वह पुत्र होता है ॥ ३३-३४ ॥

जो-जो वस्त्र एवं आभूषण इस त्रैलोक्य में दुर्लभ हैं, उन सभी वस्त्रों एवं श्रेष्ठ भूषणों को प्रेम से वे उस बालक को प्रदान करतीं । इसी प्रकार वे अत्यन्त प्रशंसा के योग्य, दुर्लभ एवं स्वादिष्ट अन्नों को प्रतिदिन खिलाखिलाकर उस बालक को पुष्ट करने लगीं ॥ ३५-३६ ॥ हे तात ! इसके बाद एक दिन कृत्तिकाओं के उस पुत्र ने दिव्य देवसभा में जाकर बड़ा सुन्दर चरित्र किया और महान् लीला करनेवाला वह बालक सम्पूर्ण देवताओंसहित विष्णु को अपना महान् अद्भुत ऐश्वर्य दिखाने लगा ॥ ३७-३८ ॥

उसकी इस महिमा को देखकर विष्णुसहित अन्य देवगण तथा ऋषि अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये और उस बालक से पूछने लगे कि हे बालक ! तुम कौन हो ? उनकी बात सुनकर उस बालक ने कुछ भी नहीं कहा और वह शीघ्र ही अपने घर चला गया और पूर्ववत् गुप्तरूप से रहने लगा ॥ ३९-४० ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में कार्तिकेय की लीला का वर्णन नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥

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