शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 05
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पाँचवाँ अध्याय
पार्वती के द्वारा प्रेषित रथ पर आरूढ़ हो कार्तिकेय का कैलासगमन, कैलास पर महान् उत्सव होना, कार्तिकेय का महाभिषेक तथा देवताओं द्वारा विविध अस्त्र-शस्त्र तथा रत्नाभूषण प्रदान करना, कार्तिकेय का ब्रह्माण्ड का अधिपतित्व प्राप्त करना

ब्रह्माजी बोले — उसी समय विश्वकर्मा द्वारा विरचित अत्यन्त अद्भुत तथा शाश्वत शोभा से समन्वित एक रथ दिखायी पड़ा । उस रथ में सौ पहिये थे, वह बड़ा विस्तीर्ण और सुन्दर था, उसकी गति मन के समान वेगवाली थी, वह श्रेष्ठ रथ शिवजी के पार्षदों से घिरा हुआ था । पार्वतीजी ने उसे भेजा था ॥ १-२ ॥

परम ज्ञानी, अनन्त तथा शिवजी के तेज से उत्पन्न कार्तिकेय दुखी मन से उस रथ पर सवार हो गये ॥ ३ ॥ उसी समय बिखरे केशोंवाली कृत्तिकाओं ने शोक से व्याकुल हो कार्तिकेय के पास जाकर शोकोन्माद से कहना प्रारम्भ किया — ॥ ४ ॥

शिवमहापुराण

कृत्तिकाएँ बोलीं — हे कृपासिन्धो ! आप हम सबको छोड़कर इस प्रकार निर्दयी होकर जा रहे हैं । पुत्र का धर्म यह नहीं है कि जिन माताओं ने पालन-पोषण किया, उनका परित्यागकर वह चला जाय ॥ ५ ॥ हमलोगों ने बड़े स्नेह से तुम्हें बड़ा बनाया, तुम हमारे धर्मपुत्र हो, अब तुम्हीं बताओ कि हम क्या करें, कैसे रहें और कहाँ जायँ ? इस प्रकार कहकर वे सभी कृत्तिकाएँ कार्तिकेय को अपने वक्ष से लगाकर पुत्र की वियोगजन्य व्यथा से मूर्च्छित हो गयीं । तब कुमार ने आध्यात्मिक वचनों से उन्हें समझाया । हे मुने ! फिर वे उनके तथा पार्षदों के साथ रथ पर आरूढ़ हो गये ॥ ६-८ ॥

अत्यधिक सुखदायी मंगलों को देख तथा सुनकर कुमार कार्तिकेय पार्षदों के साथ अपने पिता के घर गये ॥ ९ ॥ अपने दाहिनी ओर नन्दिकेश्वर से युक्त कुमार कार्तिकेय मन के समान वेगवाले रथ से कैलासपर्वत पर अक्षयवटवृक्ष के समीप पहुँचे । विविध लीलाविशारद शंकरपुत्र कुमार कार्तिकेय उन कृत्तिकाओं तथा पार्षदों के साथ प्रसन्नतापूर्वक वहीं रुके । उसके बाद सभी देवता, ऋषिगण, सिद्ध, चारणों ने ब्रह्मा तथा विष्णु के साथ [शिवजी से] कार्तिकेय के आने का समाचार कहा ॥ १०-१२ ॥

उस समय शिवजी गंगापुत्र (कार्तिकेय)-को आया हुआ देखकर विष्णु, ब्रह्मा, अन्य देवताओं तथा सुरर्षियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक उनके पास गये ॥ १३ ॥ उस समय शंख, भेरी आदि अनेक बाजे बजने लगे और आनन्दित हुए देवताओं के यहाँ महान् उत्सव होने लगा । उस समय वीरभद्र आदि सभी शिवगण अनेक तालपर गाना गाते तथा क्रीड़ा करते हुए शिवजी के पीछे-पीछे चले । स्तुतिपाठक स्तुतिपूर्वक गुणकीर्तन करने लगे और प्रसन्नमन होकर जय-जयकार तथा नमस्कार करने लगे और सरपतवन में उत्पन्न हुए उस शिवजी के पुत्र को देखने के लिये चले ॥ १४-१७ ॥

पार्वती ने राजमार्ग को अनेक मांगलिक द्रव्यों से अत्यन्त मनोहर बना दिया और पद्मराग आदि मणियों से पुर को चारों ओर से अलंकृत किया । वे पति-पुत्रवाली, सुहागिन स्त्रियों के साथ तथा लक्ष्मी आदि तीस देवियों को आगेकर कार्तिकेय को लेने चल पड़ीं ॥ १८-१९ ॥ शिवजी की आज्ञा से रम्भा आदि दिव्य अप्सराएँ सुन्दर वेश-भूषा से सुसज्जित होकर मन्द-मन्द हासपूर्वक नृत्य एवं गान करने लगीं । जिन लोगों ने भगवान् शंकर के साथ गंगापुत्र कार्तिकेय को देखा, उन लोगों को लगा कि सारे जगत् में एक बहुत बड़ा तेज व्याप्त हो रहा है ॥ २०-२१ ॥

उस तेज से आवृत, प्रतप्त सुवर्ण के समान देदीप्यमान तथा सूर्य के समान तेजस्वी उस बालक कार्तिकेय की सबने वन्दना की । उस बालक के सामने सभी लोग ‘नमः’ शब्द का उच्चारण करते हुए अपना सिर झुकाकर हर्षोल्लास से भर गये और बायीं तथा दाहिनी ओर उन्हें घेरकर स्थित हो गये ॥ २२-२३ ॥ [हे नारद !] मैंने, विष्णु एवं इन्द्रादि सभी देवताओं ने कुमार को चारों ओर से घेरकर दण्डवत् प्रणाम किया ॥ २४ ॥ हे मुने ! उसी समय भगवान् शंकर तथा आनन्द से परिपूर्ण देवी पार्वती ने प्रसन्नतापूर्वक उस महोत्सव में आकर अपने पुत्र को देखा ॥ २५ ॥

जगत् के एकमात्र रक्षक, सर्पराज का भूषण धारण किये हुए तथा अपने प्रमथगणों से युक्त हो साक्षात् सर्वेश्वर सदाशिव पराम्बा भवानी के साथ बड़े स्नेह से उस पुत्र को देखकर गद्गद हो प्रसन्नता को प्राप्त हुए ॥ २६ ॥ उस समय शक्ति को धारण किये हुए कुमार स्कन्द ने पार्वती एवं शिव को देखकर शीघ्रतापूर्वक रथ से उतरकर सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ॥ २७ ॥ परमेश्वर भगवान् शिव ने प्रसन्नतापूर्वक कुमार का आलिंगन करके प्रेमपूर्वक उनके सिर को सूंघा ॥ २८ ॥

पार्वतीजी ने भी आश्चर्य में पड़कर उस पुत्र को गले लगाया तथा स्नेहाधिक्य के कारण बहते हुए स्तन का दूध उसे पिलाने लगीं । प्रसन्न हो देवताओं ने अपनी स्त्रियों के साथ कुमार की आरती उतारी, उस समय जय-जयकार की महान् ध्वनि से सारा आकाशमण्डल गूंज उठा ॥ २९-३० ॥ अनेक ऋषियों ने वेदों के उद्घोष से, गायकों ने गीत से तथा वाद्ययन्त्रों के बजानेवालों ने वाद्यों से कुमार का स्वागत किया । कान्ति से देदीप्यमान अपने उस पुत्र को गोद में धारणकर पुत्रवानों में श्रेष्ठ भवानीपति शंकर साक्षात् शोभा से सम्पन्न हुए ॥ ३१-३२ ॥

इस प्रकार महान् उत्साहसम्पन्न देवताओं तथा अपने गणों के साथ परम आनन्दित कुमार कार्तिकेय भगवान् शिव की आज्ञा से शिवजी के भवन में पधारे ॥ ३३ ॥ उस समय श्रेष्ठ देवताओं एवं ऋषियों से वन्दित तथा उनसे घिरे हुए वे दोनों शिवा-शिव एक साथ में परम शोभित हुए ॥ ३४ ॥ इधर कुमार भी प्रेम से शिवजी की गोद में बैठकर खेलने लगे और उन्होंने उनके कण्ठ में लिपटे हुए वासुकि नाग को अपने दोनों हाथों से दबाकर पकड़ लिया ॥ ३५ ॥ लीला से युक्त कुमार कार्तिकेय को कृपादृष्टि से देखकर कृपालु भगवान् शंकर ने हँसते हुए पार्वती से उनकी प्रशंसा की । सर्वव्यापक, जगत् के एकमात्र पालनकर्ता तथा जगत् के एकमात्र स्वामी भगवान् महेश गिरिजा के सहित हर्षित होकर मन्द-मन्द हँसते हुए आनन्द से विभोर हो गये, प्रेमवश गला रुंध गया और वे कुछ भी कह न सके ॥ ३६-३७ ॥

उसके बाद लोकवृत्तान्त को जाननेवाले जगत्पति भगवान् शंकर ने प्रसन्न होकर रत्नों से जड़े हुए रमणीय सिंहासन पर कुमार कार्तिकेय को बैठाया ॥ ३८ ॥ फिर वेदमन्त्रों के द्वारा पवित्र किये गये समस्त तीर्थों के जल से पूर्ण रत्नजटित सौ कलशों से उनको प्रसन्नतापूर्वक स्नान कराया । भगवान् विष्णु ने उत्तम प्रकार के रत्नों से निर्मित किरीट, मुकुट, बाजूबन्द, अपनी वैजयन्ती माला एवं सुदर्शन चक्र उन्हें प्रदान किया । सदाशिव ने अपना त्रिशूल, पिनाक धनुष, परशु, शक्ति, पाशुपतास्त्र, बाण, संहारास्त्र एवं परम विद्या कुमार को प्रदान की ॥ ३९-४१ ॥

मुझ ब्रह्मा ने यज्ञोपवीत, वेद, वेदमाता गायत्री, कमण्डलु, ब्रह्मास्त्र तथा शत्रुनाशिनी विद्या उन्हें प्रदान की ॥ ४२ ॥ देवराज इन्द्र ने अपना ऐरावत नामक गजेन्द्र तथा वज्र प्रदान किया । जल के स्वामी वरुणदेव ने श्वेतच्छत्र, पाश तथा रत्नमाला उन्हें दी ॥ ४३ ॥ सूर्य ने मन की गति से चलनेवाला उत्तम रथ और महातेजस्वी कवच दिया । यमराज ने यमदण्ड तथा चन्द्रमा ने अमृतपूर्ण घट प्रदान किया । अग्नि ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को महाशक्ति प्रदान की । निर्ऋति ने अपना शस्त्र तथा वायु ने वायव्यास्त्र प्रदान किया ॥ ४४-४५ ॥

कुबेर ने गदा तथा ईश्वर ने प्रसन्नता से अपना त्रिशूल दिया । इसी प्रकार सभी देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक अनेक शस्त्र तथा अनेक प्रकार के उपहार अर्पित किये ॥ ४६ ॥ कामदेव ने प्रसन्न होकर अपना कामास्त्र, गदा तथा अपनी आकर्षण एवं वशीकरण विद्याएँ परम प्रसन्नता से उन्हें प्रदान की । क्षीरसागर ने अमूल्य रत्न तथा विशिष्ट प्रकार का रत्नजटित नूपुर और हिमालय ने दिव्य भूषण एवं वस्त्र प्रदान किये । गरुड़ ने चित्रबर्हण (मयूर) नाम का अपना पुत्र तथा ज्येष्ठ भ्राता अरुण ने चरणों से युद्ध करनेवाला महाबलवान् ताम्रचूड (मुर्गा) दिया ॥ ४७-४९ ॥

मन्द मुसकानवाली पार्वती ने अत्यन्त प्रसन्नता के साथ अपने पुत्र को परमैश्वर्य एवं चिरंजीवी होने का वर प्रदान किया । लक्ष्मी ने दिव्य सम्पत्ति तथा मनोहर श्रेष्ठ हार प्रदान किया और सावित्री ने बड़े प्रेम से समस्त सिद्धविद्याएँ प्रदान की । हे मुने ! इसी प्रकार अन्य जो भी देवियाँ वहाँ आयी थीं, उन्होंने अपनी-अपनी प्रिय वस्तुएँ तथा बच्चे का पालना प्रदान किया ॥ ५०–५२ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समय वहाँ बहुत बड़ा महोत्सव हुआ और सब प्रसन्न हो गये । विशेषकर शिव-पार्वती तो अत्यन्त प्रसन्न हुए । हे मुने ! उसी समय महाप्रतापी ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान् रुद्र ने हँसते हुए प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्मादि देवताओं से कहा — ॥ ५३-५४ ॥

शिवजी बोले — हे हरे ! हे ब्रह्मन् ! हे देवगणो ! आप सब मेरी बात सुनें । मैं आपलोगों पर अत्यधिक प्रसन्न हूँ । आपलोग अपने अभीष्ट वर मुझसे माँगिये ॥ ५५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! शिवजी के इस वचन को सुनकर विष्णु आदि सभी देवताओं ने प्रसन्नमुख होकर महादेव भगवान् पशुपति से कहा — ॥ ५६ ॥

हे प्रभो ! यह तारकासुर कुमार के द्वारा मारा जाय, इसके लिये ही यह सारा उत्तम चरित्र हुआ है ॥ ५७ ॥ इसलिये हमलोग उसे मारने के लिये आज ही प्रस्थान करेंगे । आप हमलोगों के सुख के लिये इन कुमार को तारकासुर के वध की आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ ५८ ॥

देवगणों के वचन को सुनकर सर्वव्यापी शंकरजी ने कृपा से अभिभूत होकर देवगणों के कल्याण के लिये ‘तथास्तु’ कहकर अपना पुत्र समर्पित कर दिया ॥ ५९ ॥ शिवजी की आज्ञा से ब्रह्मा, विष्णु जिनमें प्रमुख हैं, ऐसे देवगण मिलकर कार्तिकेय को आगेकर तारकासुर का वध करने के लिये उसी समय पर्वत से चल पड़े ॥ ६० ॥ कैलास से बाहर निकलकर विष्णुजी की आज्ञा से विश्वकर्मा ने पर्वत के निकट ही अत्यन्त सुन्दर नगर की रचना की ॥ ६१ ॥ उस नगर में विश्वकर्मा ने अत्यन्त मनोहर, परम अद्भुत तथा अत्यन्त निर्मल गृह कुमार के लिये निर्मित किया तथा उस गृह में उत्तम सिंहासन का भी निर्माण किया ॥ ६२ ॥

तब परम बुद्धिमान् विष्णु ने उस गृह में नाना प्रकार के मांगलिक कृत्य करवाये और देवताओं के साथ सभी तीर्थों के जल से उस सिंहासन पर कार्तिकेय का अभिषेक किया ॥ ६३ ॥ फिर कार्तिकेय को सुसज्जितकर [उनको प्रसन्न रखने की] समस्त सामग्री वहाँ एकत्रित कर दी तथा उस उपलक्ष्य में अनेक विधि-विधान तथा उत्सव किये ॥ ६४ ॥ हरि ने प्रेम से उनको ब्रह्माण्ड का अधिपतित्व प्रदान किया, फिर स्वयं तिलक लगाकर देवगणों के साथ उनकी पूजा-अर्चना की । उन्होंने सभी देवताओं तथा ऋषियों के साथ प्रीति से कार्तिकेय को प्रणाम किया और सनातन शिवस्वरूप उन कुमार की विविध स्तोत्रों से स्तुति की ॥ ६५-६६ ॥ ब्रह्माण्ड के पालक कार्तिकेय इस प्रकार उत्तम सिंहासन पर बैठकर स्वामित्व को प्राप्तकर अत्यन्त शोभित हुए ॥ ६७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में कुमार का अभिषेकवर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.