शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 07
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
सातवाँ अध्याय
तारकासुर से सम्बद्ध देवासुर-संग्राम

ब्रह्माजी बोले — विभु कार्तिकेय के इस चरित्र को देखकर विष्णु आदि देवताओं के मन में विश्वास हो गया और वे परम प्रसन्न हो गये । शिवजी के तेज से प्रभावित होकर वे उछलते तथा सिंहनाद करते हुए कुमार को आगे कर तारकासुर का वध करने हेतु चल पड़े ॥ १-२ ॥

शिवमहापुराण

महाबली तारकासुर ने भी देवताओं के उद्योग को सुनकर बड़ी सेना के साथ देवताओं से युद्ध करने के लिये शीघ्र प्रस्थान किया । देवगणों ने तारकासुर की बहुत बड़ी सेना देखकर अत्यन्त बलपूर्वक सिंहनाद करते हुए उसे आश्चर्यचकित कर दिया । उसी समय ऊपर से बड़ी शीघ्रता के साथ शिवजी द्वारा प्रेरित आकाशवाणी ने समस्त विष्णु आदि देवताओं से शीघ्र कहा — ॥ ३-५ ॥

आकाशवाणी बोली — हे देवगण ! आपलोग जो कुमार को आगे करके युद्ध करने के लिये उद्यत हुए हैं, इससे आपलोग संग्राम में दैत्यों को जीतकर विजयी होंगे ॥ ६ ॥

ब्रह्माजी बोले — आकाशवाणी को सुनकर सभी देवताओं में अत्यन्त उत्साह भर गया और वे वीरों की भाँति गर्जना करते हुए उस समय निर्भय हो गये ॥ ७ ॥ इस प्रकार भय से रहित एवं युद्ध की इच्छावाले वे सभी देवता कुमार को आगे करके महीसागर-संगम पर गये । बहुत से असुरों से घिरा वह तारक भी जहाँ देवता थे, वहाँ पर अपनी बहुत बड़ी सेना के साथ शीघ्र ही आ गया ॥ ८-९ ॥

उसके आने पर प्रलयकालीन बादल के समान शब्द करनेवाली रणदुन्दुभियाँ तथा अन्य कर्कश बाजे बजने लगे । उस समय तारकासुर के साथ रहनेवाले समस्त असुर कूदते-फाँदते हुए पादप्रहारों से पृथ्वी को कँपाने लगे और गर्जना करने लगे । उस उग्र ध्वनि को सुनकर सभी देवगण अत्यन्त निर्भय हो एक साथ ही तारकासुर से युद्ध करने की इच्छा से उठ खड़े हुए । स्वयं इन्द्रदेव कुमार को हाथी पर चढ़ाकर देवताओं की बहुत बड़ी सेना के साथ लोकपालों से युक्त हो आगे-आगे चलने लगे ॥ १०–१३ ॥ उस समय अनेक प्रकार की दुन्दुभि, भेरी, तुरही, वीणा, वेणु और मृदंग बजने लगे तथा गन्धर्व गान करने लगे ॥ १४ ॥

कुमार इन्द्र को हाथी देकर अनेक आश्चर्यों से युक्त तथा विविध रत्नों से जटित दूसरे यान पर सवार हो गये ॥ १५ ॥ उस समय सर्वगुणसम्पन्न महायशस्वी शंकरपुत्र कुमार कार्तिकेय विमान के ऊपर चढ़कर महाकान्तिमान् चामरों से वीज्यमान होते हुए अत्यन्त शोभित हो रहे थे ॥ १६ ॥ उस समय प्रचेता के द्वारा दिया गया छत्र, जो अनेक रत्नों से जटित होने के कारण महाकान्तिमान् था तथा जिससे चन्द्रकिरणों के समान आभा निकल रही थी, वह कुमार के द्वारा मस्तक पर धारण किया गया था ॥ १७ ॥

उस समय युद्ध की इच्छावाले महाबलवान् इन्द्रादि समस्त देवता अपनी-अपनी सेना के साथ सम्मिलित हुए ॥ १८ ॥ इस प्रकार देवता एवं दानव व्यूह की रचनाकर बहुत बड़ी सेना के साथ युद्ध की इच्छा से रणभूमि में आ डटे ॥ १९ ॥ उस समय एक-दूसरे को मारने की इच्छावाली देवताओं तथा दैत्यों की वे दोनों सेनाएँ चारणों के द्वारा स्तुति की जाती हुई अत्यन्त सुशोभित हो रही थीं ॥ २० ॥ कायरों के लिये भयंकर तथा वीरों के लिये सुखद समुद्रतुल्य उनकी दोनों सेनाएँ गरजने लगीं ॥ २१ ॥ इसी बीच बल से उन्मत्त महावीर दैत्य एवं देवता क्रोध से अधीर हो परस्पर युद्ध करने लगे ॥ २२ ॥

उस समय देवों एवं दानवों में महाभयंकर युद्ध आरम्भ हो गया और क्षणमात्र में पृथ्वी रुण्ड-मुण्डों से व्याप्त हो गयी ॥ २३ ॥ सैकड़ों तथा हजारों वीरसम्मत योद्धा महाशस्त्रों के प्रहार से छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वी पर गिरने लगे । युद्ध में अत्यन्त कठोर खड्ग के प्रहार से किसी की भुजा छिन्नभिन्न हो गयी और किन्हीं मानी वीरों की जाँघे कट गयीं । गदाओं तथा मुद्गरों से कुछ वीरों के सभी अंग विदीर्ण हो गये । भालों से कुछ वीरों की छाती छिद गयी और कुछ पाशों से बाँध दिये गये । कुछ वीर पीठ पर भाला, ऋष्टि एवं अंकुश के प्रहार से घायल हो गये । किन्हीं के सिर कटकर पृथ्वी पर गिर गये ॥ २४–२७ ॥

वहाँ बहुत-से कबन्ध (सिर कटे हुए धड़) नाच रहे थे तथा कुछ लोग अपने हाथों में शस्त्र लिये हुए एक दूसरे को ललकार रहे थे ॥ २८ ॥ वहाँ रक्त की सैकड़ों नदियाँ बह चलीं और सैकड़ों की संख्या में भूत-प्रेत वहाँ आ गये ॥ २९ ॥ वहाँ पर सियार-सियारिनें मांस खाने लगीं । गृध्रवट, श्येन तथा कौवे एवं अनेक मांसभक्षी जानवर युद्ध में गिरे हुए योद्धाओं के मांस का भक्षण करने लगे ॥ ३० ॥ इसी बीच महाबली तारकासुर बहुत बड़ी सेना के साथ देवताओं से युद्ध करने के लिये वहाँ शीघ्र आ पहुँचा ॥ ३१ ॥

युद्ध में दुर्मद तारकासुर को युद्ध करने के लिये आता हुआ देखकर इन्द्र आदि देवता भी शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये । उस समय दोनों सेनाओं में घोर गर्जना होने लगी ॥ ३२ ॥ उस समय देवता तथा दैत्यों का विनाशकारी द्वन्द्वयुद्ध होने लगा, जिसे देखकर वीर हर्षित होते थे तथा कायर भयभीत हो जाते थे ॥ ३३ ॥ रण में दितिपुत्र बलवान् तारक इन्द्र के साथ, संह्राद अग्नि के साथ, यमराज जम्भ के साथ, महाप्रभु निर्ऋति के साथ, वरुण बल के साथ, सुवीर वायु के साथ तथा गुह्यराट पवमान के साथ युद्ध करने लगा । रणकुशल शम्भु ईशान के साथ युद्ध करने लगा । शुम्भ का शेष के साथ और दानव कुम्भ का चन्द्रमा के साथ युद्ध होने लगा । उस युद्ध में महाबली, पराक्रमी तथा अनेक युद्धों में प्रवीण कुंजर मिहिर के साथ परम अस्त्रों से युद्ध करने लगा ॥ ३४-३७ ॥

इस प्रकार देवता तथा राक्षस अपनी-अपनी सेना लेकर महान् द्वन्द्वयुद्ध के द्वारा रणभूमि में विजय की आशा से परस्पर युद्ध करने लगे । हे मुने ! महाबली वे दैत्य तथा देवता उस देवासुर-संग्राम में परस्पर स्पर्धा करते हुए एक-दूसरे के लिये दुर्जेय हो गये ॥ ३८-३९ ॥ विजय की इच्छा रखनेवाले उन देवगणों तथा दानवों का घनघोर युद्ध छिड़ गया, जो मनस्वी वीरों के लिये सुखदायक तथा कायरों के लिये भयदायक था ॥ ४० ॥ युद्ध में घायल हुए अनेक देवता तथा दानवों के गिरने से वह रणभूमि अत्यन्त भयानक हो उठी । उस समय वह कायरों के लिये अगम्य एवं भयंकर हो गयी और मनस्वियों को प्रसन्न करनेवाली हुई ॥ ४१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में युद्धप्रारम्भवर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥

 

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