शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 09
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
नौवाँ अध्याय
ब्रह्माजी का कार्तिकेय को तारक के वध के लिये प्रेरित करना, तारकासुर द्वारा विष्णु तथा इन्द्र की भर्त्सना, पुनः इन्द्रादि के साथ तारकासुर का युद्ध

ब्रह्माजी बोले — हे देवदेव ! हे गुह ! हे स्वामिन् ! हे शंकरपुत्र ! हे पार्वतीसुत ! विष्णु तथा तारकासुर का यह व्यर्थ संग्राम शोभा नहीं देता । यह अति बलवान् तारक विष्णु से नहीं मरेगा; क्योंकि मैंने उसको वरदान दिया है । यह मैं सत्य-सत्य कह रहा हूँ । हे पार्वतीसुत ! आपके बिना इस पापी को मारनेवाला अन्य कोई नहीं है, इसलिये हे महाप्रभो ! आप मेरा यह वचन स्वीकार कीजिये ॥ १-३ ॥

शिवमहापुराण

हे परन्तप ! अब आप शीघ्र ही इस दैत्य के वध के लिये तत्पर हो जाइये । हे शिवापुत्र ! इसको मारने के लिये ही आप शंकरजी से उत्पन्न हुए हैं । हे महावीर ! आप रणभूमि में इन पीड़ित देवगणों की रक्षा कीजिये, आप न तो बालक हैं, न युवा हैं, किंतु सर्वेश्वर प्रभु हैं ॥ ४-५ ॥ आप इस समय व्याकुल इन्द्र, विष्णु, अन्य देवताओं एवं गणों को देखिये और इस महादैत्य का वध कीजिये तथा त्रैलोक्य को सुख प्रदान कीजिये ॥ ६ ॥

इसने पूर्वकाल में लोकपालोंसहित इन्द्र पर विजय प्राप्त की है और अपनी तपस्या के बल से महावीर विष्णु को भी अपमानित किया है । इस दुरात्मा दैत्य ने सम्पूर्ण त्रैलोक्य को जीत लिया और इस समय आपके सान्निध्य के कारण उन देवताओं से पुनः युद्ध किया ॥ ७-८ ॥ इस कारण आप इस दुरात्मा पापी तारकासुर का वध कीजिये । हे शंकरात्मज ! यह मेरे वरदान के कारण आपके सिवा किसी अन्य से नहीं मारा जा सकता ॥ ९ ॥

[ब्रह्माजी ने कहा-] मेरी यह बात सुनकर शंकरपुत्र कार्तिकेय प्रसन्नचित्त होकर हँसने लगे और ‘ऐसा ही होगा’ — यह वचन बोले ॥ १० ॥

तब वे महाप्रभु शंकरपुत्र असुर के वध का निश्चयकर विमान से उतरकर पैदल हो गये ॥ ११ ॥ उस युद्धभूमि में अपने हाथ में महोल्का के समान महाप्रभायुक्त देदीप्यमान शक्ति नामक अस्त्र को धारण किये हुए वे शिवपुत्र कार्तिकेय पैदल दौड़ते हुए अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे । अत्यन्त प्रचण्ड, महाधैर्यशाली और अप्रमेय कार्तिकेय को अपने सम्मुख आता देखकर उस तारकासुर ने देवगणों से कहा — क्या शत्रुओं का वध करनेवाले कुमार ये ही हैं ? ॥ १२-१३ ॥

मैं अकेले ही इस कुमार एवं अन्य वीरों के साथ युद्ध करूँगा और लोकपालोंसहित समस्त गणों एवं विष्णु आदि देवताओं का वध करूँगा ॥ १४ ॥

ऐसा कहकर वह महाबली तारक कुमार को उद्देश्य करके युद्ध करने के लिये चला । उसने हाथ में अत्यन्त अद्भुत शक्ति ले ली और वह श्रेष्ठ देवताओं से कहने लगा — ॥ १५ ॥

तारक बोला — हे देवगणो ! तुमलोगों ने इस बालक कुमार को मेरे आगे कैसे कर दिया ? तुम सब बड़े निर्लज्ज हो, इन्द्र और विष्णु तो विशेष रूप से लज्जाहीन हैं ॥ १६ ॥ पूर्व समय में भी इन दोनों ने वेद-विरुद्ध कर्म किये हैं । मैं विशेषरूप से उनका वर्णन कर रहा हूँ, तुमलोग सुनो ॥ १७ ॥

इन दोनों में विशेषरूप से विष्णु तो छली, दोषी तथा अविवेकी है, जिसने पूर्वकाल में पापपूर्वक छल करके बलि को बाँधा था ॥ १८ ॥ उसी ने यत्नपूर्वक वेदमार्ग का त्यागकर धूर्तता से मधु तथा कैटभ नामक राक्षसों का सिर काट लिया था ॥ १९ ॥ उसके बाद देवता एवं दैत्यों के अमृत-पान के समय उसी ने मोहिनीरूप धारणकर पंक्ति-भेद किया और वेदमार्ग को दूषित किया ॥ २० ॥ उसने रामावतार लेकर ताड़का स्त्री का वध किया, बालि को [छिपकर] मारा तथा विश्रवा के पुत्र विप्र रावण का वध किया, इस प्रकार उसने वेदनीति का विनाश किया ॥ २१ ॥ पापपरायण इसने बिना अपराध के ही अपनी स्त्री का परित्याग कर दिया । इस प्रकार अपने स्वार्थ के लिये इसने वेदमार्ग को ध्वस्त किया ॥ २२ ॥

छठे परशुरामावतार में इस दुष्ट ने अपनी माता का सिर काट दिया और [गणेश को युद्ध में हराकर] गुरुपुत्र का अपमान किया ॥ २३ ॥ कृष्णावतार में इसने कुलधर्म के विरुद्ध वेदमार्ग को छोड़कर बहुत-से विवाह किये और अनेक नारियों को दूषित किया ॥ २४ ॥ इसके बाद नौवें बुद्धावतार में इसने वेदमार्ग की निन्दा की और वेदमार्ग का विरोध करनेवाले नास्तिक मत का स्थापन किया ॥ २५ ॥ इस प्रकार जिसने वेदमार्ग को छोड़कर पाप किया है, वह युद्ध में कैसे विजयी हो सकता है और कैसे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ हो सकता है ? ॥ २६ ॥

इसी प्रकार इसका ज्येष्ठ भ्राता इन्द्र भी महापापी कहा गया है । उसने भी अपने स्वार्थ के लिये नाना प्रकार के पाप किये हैं ॥ २७ ॥ उसने अपने स्वार्थ के लिये दिति के गर्भ में प्रवेशकर गर्भस्थ बालक के टुकड़े-टुकड़े कर दिये, गौतम की स्त्री से व्यभिचार किया और ब्राह्मणकुमार वृत्र का वध किया ॥ २८ ॥ विश्वरूप ब्राह्मण का, जो असुरों का भागिनेय तथा इन्द्र का गुरु भी था, उसका सिर काटकर इसने वेदमार्ग को विनष्ट किया ॥ २९ ॥

इस प्रकार विष्णु एवं इन्द्र वे दोनों बार-बार अनेक पाप करके तेज से रहित तथा विनष्ट पराक्रमवाले हो गये हैं ॥ ३० ॥ [हे देवगण!] इन दोनों के बल से तुमलोग संग्राम में विजय नहीं प्राप्त कर सकोगे । फिर मूर्खता करके तुमलोग अपना प्राण त्याग करने के लिये यहाँ क्यों आये हो ? ॥ ३१ ॥ ये दोनों बड़े लम्पट एवं स्वार्थी हैं, इन्हें धर्म का ज्ञान नहीं है । हे देवताओ ! धर्म के बिना किया गया सारा कृत्य व्यर्थ होता है ॥ ३२ ॥ ये दोनों बड़े धृष्ट हैं । इन दोनों ने इस बालक को मेरे सामने खड़ा कर दिया है । यदि मैं बालक का वध करूँगा, तो यह पाप भी इन्हीं दोनों को लगेगा ॥ ३३ ॥

किंतु यह बालक अपने प्राण की रक्षा के लिये यहाँ से दूर चला जाय । विष्णु तथा इन्द्र के विषय में इस प्रकार कहकर उसने वीरभद्र से कहा — ॥ ३४ ॥ तुमने भी पहले दक्षप्रजापति के यज्ञ में अनेक ब्राह्मणों का वध किया था । हे अनघ ! मैं आज तुम्हें उस कर्म का फल चखाऊँगा ॥ ३५ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार युद्ध करनेवालों में श्रेष्ठ तारकासुर ने विष्णु तथा इन्द्र के निन्दाकर्म से अपना समस्त पुण्य नष्ट करके अत्यन्त अद्भुत शक्ति ग्रहण की ॥ ३६ ॥ तब बड़े वेग से बालक के समीप आते हुए उस तारकासुर को देखकर इन्द्र ने कुमार के आगे होकर अपने वज्र से उसपर प्रहार किया ॥ ३७ ॥ उस वज्र के प्रहार से देवताओं की निन्दा से नष्ट बलवाला तारकासुर जर्जर हो गया और क्षणमात्र में पृथ्वी पर सहसा गिर पड़ा ॥ ३८ ॥ तब गिरने पर भी उठकर उसने बड़े वेग से इन्द्र पर अपनी शक्ति से प्रहार किया और हाथी पर चढ़े इन्द्र को पृथ्वी पर गिरा दिया ॥ ३९ ॥

इस प्रकार इन्द्र के गिरने पर महान् हाहाकार होने लगा, यह देखकर देवताओं की सेना में शोक छा गया ॥ ४० ॥ [हे नारद!] उस समय तारक ने भी धर्मविरुद्ध एवं दुःखदायक जो कर्म अपने नाश के लिये किया, उसे आप मुझसे सुनें ॥ ४१ ॥ उसने गिरे हुए इन्द्र को अपने पैरों से रौंदकर उनके हाथ से वज्र छीनकर उसी वज्र से उन पर प्रहार किया ॥ ४२ ॥ इस प्रकार इन्द्र को तिरस्कृत होता हुआ देखकर प्रतापशाली भगवान् विष्णु ने चक्र उठाकर तारकासुर पर प्रहार किया ॥ ४३ ॥ उस चक्र के प्रहार से आहत होकर वह तारकासुर पृथ्वी पर गिर पड़ा । पुनः उठकर उस दैत्यराज ने शक्ति नामक अस्त्र से विष्णु पर प्रहार किया ॥ ४४ ॥

उस शक्ति के प्रहार से विष्णु पृथ्वी पर गिर पड़े । इससे बड़ा हाहाकार मच गया और देवता लोग जोर-जोर से चिल्लाने लगे ॥ ४५ ॥ एक निमेषमात्र में पुनः अभी विष्णु उठ ही रहे थे, तभी उसी समय वीरभद्र उस असुर के समीप आ गये ॥ ४६ ॥ प्रतापी एवं बलवान् वीरभद्र ने अपना त्रिशूल लेकर बड़े वेग से उस दैत्यपति तारकासुर पर बलपूर्वक प्रहार किया । तब उस त्रिशूल के लगते ही वह महातेजस्वी तारक पृथ्वी पर गिर पड़ा और गिरने पर भी क्षणमात्र में उठ गया । तब समस्त असुरों के सेनापति उस महावीर ने क्रोध करके अपनी परम शक्ति द्वारा वीरभद्र की छाती पर प्रहार किया ॥ ४७-४९ ॥

क्रोध से चलाये गये उस प्रचण्ड शक्ति नामक अस्त्र के छाती पर लगते ही वीरभद्र भी क्षणमात्र में मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ ५० ॥ तब गणोंसहित देवता, गन्धर्व, उरग तथा राक्षस बड़ा हाहाकार करते हुए बार-बार चिल्लाने लगे ॥ ५१ ॥ क्षणभर के पश्चात् शत्रुनाशक महातेजस्वी वीरभद्र जलती हुई अग्नि के समान प्रभावाले एवं विद्युत् के समान देदीप्यमान त्रिशूल लेकर [युद्धस्थल में] शोभित होने लगे । वह त्रिशूल अपनी कान्ति से दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था । वह सूर्य एवं चन्द्र के बिम्ब तथा अग्नि के समान मण्डलवाला, महाप्रभा से युक्त, वीरों को भय उत्पन्न करनेवाला, काल के समान सबका अन्त करनेवाला तथा महोज्ज्वल था ॥ ५२-५३ ॥ महाबली वीरभद्र जैसे ही उस त्रिशूल से असुर को मारने के लिये उद्यत हुए, तभी कुमार ने उन्हें रोक दिया ॥ ५४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में तारकवाक्यशक्रविष्णुवीरभद्रयुद्धवर्णन नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥

 

 

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