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शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 10
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
दसवाँ अध्याय
कुमार कार्तिकेय और तारकासुर का भीषण संग्राम, कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध, देवताओं द्वारा दैत्यसेना पर विजय प्राप्त करना, सर्वत्र विजयोल्लास, देवताओं द्वारा शिवा-शिव तथा कुमार की स्तुति

ब्रह्माजी बोले — शत्रुपक्ष के वीरों का नाश करनेवाले कुमार कार्तिकेय ने इस प्रकार वीरभद्र को [तारकासुर के वध से] रोककर शिवजी के चरणकमलों का ध्यानकर स्वयं तारकासुर के वध की इच्छा की । विशाल सेना से घिरे हुए महातेजस्वी एवं महाबली कार्तिकेय गरजने लगे और क्रुद्ध होकर तारकासुर के वध के लिये उद्यत हो गये ॥ १-२ ॥

शिवमहापुराण

उस समय देवताओं, गणों एवं ऋषियों ने कार्तिकेय का जय-जयकार किया और उत्तम वाणी से उनकी स्तुति की । उसके बाद तारकासुर तथा कुमार का अत्यन्त दुःसह, समस्त प्राणियों को भय देनेवाला एवं महाघोर संग्राम होने लगा । हे मुने ! दोनों वीर हाथ में शक्ति नामक अस्त्र लेकर परस्पर युद्ध करने लगे, उस समय सभी देखनेवालों को महान् आश्चर्य हो रहा था ॥ ३-५ ॥

शक्ति-अस्त्र से छिन्न-भिन्न अंगोंवाले तथा महान् साधनों से युक्त वे दोनों महाबली एक-दूसरे की वंचना करते हुए दो सिंहों के समान आपस में प्रहार कर रहे थे । दोनों वैतालिक, खेचर तथा प्रापत नामक युद्ध-विधियों का आश्रय लेकर शक्ति से शक्ति पर प्रहार करने लगे ॥ ६-७ ॥ महावीर, महाबली एवं पराक्रमी वे दोनों ही एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से इन युद्धकलाओं से अद्भुत युद्ध कर रहे थे । रणविद्या में प्रवीण, वे एक-दूसरे के वध की इच्छा से अपना पराक्रम प्रदर्शित करते हुए शक्ति की धाराओं से युद्ध करने लगे । वे दोनों परस्पर एक-दूसरे के सिर, कण्ठ, ऊरु, जानु, कटिप्रदेश, वक्षःस्थल, हृदयदेश तथा पृष्ठ पर आघात कर रहे थे ॥ ८-१० ॥

उस समय अनेक युद्धों में कुशल एवं महाबली वे दोनों एक-दूसरे को मारने की इच्छा से वीरध्वनि से ललकारते हुए युद्ध कर रहे थे । उस समय सभी देवता, गन्धर्व, किन्नर उस युद्ध को देखने लगे और परस्पर कहने लगे — इस युद्ध में कौन जीतेगा ? ॥ ११-१२ ॥

तब देवताओं को सान्त्वना देते हुए आकाशवाणी हुई कि इस युद्ध में यह कुमार तारकासुर का वध करेगा । हे देवगणो ! आपलोग चिन्ता न करें, सुखपूर्वक रहें, आपलोगों के लिये शिवजी पुत्ररूप से स्थित हुए हैं ॥ १३-१४ ॥

उस समय आकाशमार्ग से आयी हुई उस शुभ वाणी को सुनकर प्रमथगणों से घिरे हुए कुमार अत्यन्त प्रसन्न हुए और दैत्यराज तारकासुर को मारने हेतु तत्पर हुए ॥ १५ ॥ उसके बाद उन महाबाहु ने क्रोधित होकर तारकासुर की छाती में उस शक्ति नामक अस्त्र से बलपूर्वक आघात किया । तब दैत्यश्रेष्ठ उस तारकासुर ने भी उस शक्ति का तिरस्कारकर अत्यन्त कुपित होकर कुमार पर अपनी शक्ति से प्रहार किया ॥ १६-१७ ॥ उस शक्ति के प्रहार से कार्तिकेय मूर्च्छित हो गये, पुनः थोड़ी देर के पश्चात् चेतनायुक्त हो गये और महर्षिगण उनकी स्तुति करने लगे ॥ १८ ॥

मदोन्मत्त सिंह की भाँति उन प्रतापी कुमार ने तारकासुर का वध करने की इच्छा से शक्ति से उस पर प्रहार किया ॥ १९ ॥ इस प्रकार शक्तियुद्ध में निपुण कुमार तथा तारकासुर क्रोध में भरकर युद्ध करने लगे । [युद्ध में] परम अभ्यस्त वे दोनों ही एक-दूसरे पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से पैदल ही पैंतरा देकर बड़ी तेजी से युद्ध कर रहे थे ॥ २०-२१ ॥ दोनों ही अनेक प्रकार के घातों से एक-दूसरे पर प्रहार कर रहे थे, एक-दूसरे का छिद्र देख रहे थे, वे दोनों ही पराक्रमी गर्जना कर रहे थे । सभी देवता, गन्धर्व तथा किन्नर युद्ध देख रहे थे, सभी आश्चर्य से चकित थे और कोई भी किसी से कुछ भी नहीं कह रहा था ॥ २२-२३ ॥

उस समय पवन का चलना भी बन्द हो गया, सूर्य की कान्ति फीकी पड़ गयी और पर्वत एवं वनकाननोंसहित सारी पृथ्वी काँप उठी ॥ २४ ॥ इसी बीच हिमालय आदि सभी प्रमुख पर्वत स्नेहाभिभूत होकर कुमार की रक्षा के लिये वहाँ पहुँचे ॥ २५ ॥ तब शंकर एवं पार्वती के पुत्र कार्तिकेय ने उन सभी पर्वतों को भयभीत देखकर समझाते हुए कहा — ॥ २६ ॥

कुमार बोले — हे महाभाग पर्वतो ! आपलोग खेद मत करें और चिन्ता मत करें । मैं आप सभी के देखते-देखते इस पापी का वध करूँगा ॥ २७ ॥

इस प्रकार उन्होंने पर्वतों, गणों तथा देवताओं को ढाँढस देकर गिरिजा एवं शम्भु को प्रणाम करके अत्यन्त देदीप्यमान शक्ति को हाथ में लिया । उस तारक को मारने की इच्छावाले शम्भुपुत्र महावीर महाप्रभु कुमार हाथ में शक्ति लिये हुए उस समय अद्भुत शोभा पा रहे थे ॥ २८-२९ ॥ इस प्रकार शंकरजी के तेज से सम्पन्न कुमार कार्तिकेय ने लोक को क्लेश देनेवाले उस तारकासुर पर उस शक्ति से प्रहार किया । तब सभी असुरगणों का अधिपति महावीर तारक नामक असुर सहसा छिन्न-भिन्न अंगोंवाला होकर उसी क्षण पृथ्वी पर गिर पड़ा । हे मुने ! कार्तिकेय ने इस प्रकार उस असुर का वध किया और वह भी सबके देखते-देखते वहीं पर लय को प्राप्त हो गया ॥ ३०-३२ ॥

महाबलवान् तारक को रणभूमि में गिरा हुआ देखकर वीर कार्तिकेय ने पुनः उस प्राणविहीन पर प्रहार नहीं किया । तब उस तारक नामक महाबली महादैत्य की मृत्यु हो जाने पर देवगणों ने असुरों को विनष्ट कर दिया ॥ ३३-३४ ॥ कुछ युद्ध में भयभीत होकर हाथ जोड़ने लगे, कुछ छिन्न-भिन्न अंगोंवाले हुए और हजारों दैत्य मृत्यु को प्राप्त हो गये । शरण की इच्छावाले कुछ दैत्य हाथ जोड़कर ‘रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये’ — ऐसा कहते हुए कुमार की शरण में चले गये ॥ ३५-३६ ॥ कुछ मारे गये, कुछ भाग खड़े हुए और कुछ भागते समय देवताओं के द्वारा मारे जाने से पीड़ित हो गये ॥ ३७ ॥

जीने की इच्छावाले हजारों दैत्य पाताललोक में प्रविष्ट हो गये और कुछ दीनतापूर्वक निराश होकर भाग गये ॥ ३८ ॥ हे मुनीश्वर ! इस प्रकार सम्पूर्ण दैत्यसेना विनष्ट हो गयी । उस समय देवताओं तथा गणों के भय से कोई भी असुर वहाँ रुक न सका ॥ ३९ ॥ उस दुरात्मा के मारे जाने पर सभी लोग निष्कण्टक हो गये और इन्द्रादि वे सभी देवता आनन्दमग्न हो गये ॥ ४० ॥ इस प्रकार विजय को प्राप्त करनेवाले कुमार कार्तिकेय को देखकर सभी देवता एक साथ प्रसन्न हो उठे एवं सारा त्रैलोक्य महासुखी हो गया ॥ ४१ ॥

उस समय [भगवान्] शंकर भी कार्तिकेय की विजय का समाचार सुनकर अपने गणों तथा पार्वती के साथ प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आ पहुँचे ॥ ४२ ॥ स्नेह से भरी हुई पार्वतीजी सूर्य के समान तेजस्वी अपने पुत्र कुमार को अपनी गोदी में लेकर अत्यन्त प्रीतिपूर्वक लाड़-प्यार करने लगीं ॥ ४३ ॥ उसी समय अपने बन्धुओं, अनुचरों और पुत्रोंसहित हिमालय भी वहाँ आकर शंकर, पार्वती तथा कुमार की स्तुति करने लगे ॥ ४४ ॥ तदनन्तर सभी देवता, मुनि, सिद्ध एवं चारण शिव, शिवा एवं कुमार की स्तुति करने लगे ॥ ४५ ॥

देवादिकों ने [आकाशमण्डल से] पुष्पों की वर्षा की, गन्धर्वपति गान करने लगे तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ॥ ४६ ॥ उस समय विशेष रूप से बाजे बजने लगे और ऊँचे स्वर से जय शब्द तथा नमः शब्द का उच्चारण बारंबार होने लगा । तब मेरे साथ भगवान् विष्णु विशेष रूप से प्रसन्न हुए और उन्होंने आदरपूर्वक शिव, शिवा एवं कुमार की स्तुति की । इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि देवता, मुनि तथा अन्यलोग कुमार को आगे कर प्रेमपूर्वक उनकी आरती उतारने लगे ॥ ४७-४९ ॥

उस समय गीत-बाजे के शब्द से तथा वेदध्वनि के उद्घोष से महान् उत्सव होने लगा और विशेष रूप से स्थान-स्थान पर कीर्तन होने लगा ॥ ५० ॥ हे मुने ! उस समय प्रसन्न समस्त देवगणों ने हाथ जोड़कर गीत-वाद्यों से भगवान् शंकर की स्तुति की ॥ ५१ ॥ उसके बाद सबके द्वारा स्तुत तथा अपने गणों से घिरे हुए भगवान् रुद्र जगज्जननी भवानी के साथ अपने [निवासस्थान] कैलासपर्वत पर चले गये ॥ ५२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में तारकासुरवध तथा देवताओं का उत्सववर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥

 

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