शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 12
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
बारहवाँ अध्याय
विष्णु आदि देवताओं तथा पर्वतों द्वारा कार्तिकेय की स्तुति और वरप्राप्ति, देवताओं के साथ कुमार का कैलासगमन, कुमार को देखकर शिव-पार्वती का आनन्दित होना, देवों द्वारा शिवस्तुति

ब्रह्माजी बोले — तारक को मृत देखकर विष्णु आदि देवता तथा अन्य सभी लोग प्रसन्नमुख होकर भक्तिपूर्वक कुमार की स्तुति करने लगे ॥ १ ॥

॥ देवा ऊचुः ॥
नमः कल्याणरूपाय नमस्ते विश्वमंगल ।
विश्वबंधो नमस्तेऽस्तु नमस्ते विश्वभावन ॥ २ ॥
नमोस्तु ते दानववर्यहंत्रे बाणासुरप्राणहराय देव ।
प्रलंबनाशाय पवित्ररूपिणे नमोनमश्शंकरतात तुभ्यम् ॥ ३ ॥

शिवमहापुराण


त्वमेव कर्त्ता जगतां च भर्त्ता त्वमेव हर्त्ता शुचिज प्रसीद ।
प्रपञ्चभूतस्तव लोकबिंबः प्रसीद शम्भ्वात्मज दीनबंधो॥ ४ ॥
देवरक्षाकर स्वामिन्रक्ष नस्सर्वदा प्रभो ।
देवप्राणावन कर प्रसीद करुणाकर ॥ ५ ॥
हत्वा ते तारकं दैत्यं परिवारयुतं विभो ।
मोचितास्सकला देवा विपद्भ्यः परमेश्वर ॥ ६ ॥

देवता बोले — कल्याणरूप आपको नमस्कार है । हे विश्वमंगल ! आपको नमस्कार है । हे विश्वबन्धो ! हे विश्वभावन ! आपको नमस्कार है ॥ २ ॥ बड़े-बड़े दैत्यों का वध करनेवाले, बाणासुर के प्राण का हरण करनेवाले तथा प्रलम्बासुर का वध करनेवाले हे देव ! आपको नमस्कार है । हे शंकरपुत्र ! आप पवित्ररूप को बार-बार नमस्कार है । हे अग्निदेव के पुत्र ! आप ही इस जगत् के कर्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं । आप [हमलोगों पर] प्रसन्न हों । यह लोकबिम्ब आपका ही प्रपंच है, हे शम्भुपुत्र ! हे दीनबन्धो ! आप प्रसन्न होइये ॥ ३-४ ॥

हे देवरक्षक ! हे स्वामिन् ! हे प्रभो ! हमलोगों की सर्वदा रक्षा कीजिये । हे देवताओं के प्राण की रक्षा करनेवाले ! हे करुणाकर ! प्रसन्न होइये ॥ ५ ॥ हे विभो ! हे परमेश्वर ! आपने परिवारयुक्त तारकासुर का वधकर सभी देवताओं को विपदाओं से मुक्त कर दिया ॥ ६ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! इस प्रकार विष्णु आदि देवताओं ने उन कुमार की स्तुति की, तब उन्होंने सभी देवताओं को क्रमशः नवीन-नवीन वर दिये । इसके बाद उन शिवपुत्र ने स्तुति करते हुए पर्वतों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें वर देते हुए कहा — ॥ ७-८ ॥

स्कन्द बोले — तुम सभी पर्वत तपस्वियों, कर्मकाण्ड करनेवालों तथा ज्ञानियों से सदा पूजित तथा सेवित रहोगे । हे पर्वतो ! मेरे वचन से तुमलोग शिव के विशिष्टरूप तथा उनके लिंगरूप से प्रतिष्ठित रहोगे, इसमें सन्देह नहीं है । ये पर्वतोत्तम महाभाग, जो मेरे नाना हिमालय हैं, वे तपस्वियों को फल देनेवाले होंगे ॥ ९-११ ॥

देवता बोले — इस प्रकार आपने असुराधिपति तारक का वधकर तथा वर देकर चराचरसहित हम सभी को सुखी किया है । अब आप अपने माता-पिता पार्वती तथा शिव का दर्शन करने के लिये प्रेमपूर्वक शिवजी के घर कैलास के लिये प्रस्थान कीजिये ॥ १२-१३ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर विष्णु आदि सभी देवता कार्तिकेय की आज्ञा से बहुत बड़ा महोत्सव कर कुमार को लेकर कैलास की ओर चले ॥ १४ ॥ सर्वव्यापक कार्तिकेय के कैलास की ओर प्रस्थान करने पर महामंगल दिखायी पड़ने लगा और जयजयकार का शब्द होने लगा ॥ १५ ॥ वे कुमार सम्पूर्ण ऋद्धियों से युक्त, सभी ओर से अलंकृत, मनोहर तथा सर्वोपरि विराजमान विमान पर चढ़े ॥ १६ ॥

हे मुने ! अति प्रसन्न मैं और विष्णु बड़ी सावधानी से प्रेमपूर्वक उनके ऊपर चामर डुलाने लगे और इन्द्रादि सभी देवता चारों ओर से प्रीतिपूर्वक कुमार की यथायोग्य सेवा करते हुए चलने लगे ॥ १७-१८ ॥ इस प्रकार वे सभी शिवजी के लिये जय-जयकार शब्द का उच्चारण करते हुए मंगलध्वनिपूर्वक बड़े आनन्द के साथ कैलासपर्वत पर पहुँचे ॥ १९ ॥ विष्णु आदि सभी लोग वहाँ शिवा-शिव का दर्शन कर शीघ्रता से उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणामकर हाथ जोड़कर उनके सम्मुख सिर झुकाये हुए खड़े हो गये ॥ २० ॥

विनीतात्मा कुमार ने भी विमान से उतरकर सिंहासन पर विराजमान पार्वतीजी को तथा शिवजी को प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम किया । हे नारद ! तब अपने प्राणप्रिय उस पुत्र कुमार को देखकर वे दोनों दम्पती शिव-पार्वती बहुत ही प्रसन्न हुए ॥ २१-२२ ॥ महाप्रभु ने उन्हें उठाकर गोद में बैठाया, उनका प्रसन्नतापूर्वक सिर सूंघा और स्नेहपूर्वक हाथ से उनका स्पर्श किया । शिवजी ने अत्यधिक आनन्दविभोर हो तारकासुर के शत्रु उन महाप्रभु कुमार का मुख चूमा ॥ २३-२४ ॥ इसी प्रकार पार्वती ने भी उनको उठाकर गोद में ले लिया और उनका माथा सूंघकर मुखमण्डल चूमा ॥ २५ ॥ हे तात नारद ! इस समय लौकिक आचार करते हुए उन पति-पत्नी शिव-पार्वती को महान् आनन्द हुआ ॥ २६ ॥

उस समय शिवजी के घर में अनेक प्रकार के महान् उत्सव होने लगे और चारों ओर जय-जयकार एवं नमः शब्द होने लगा । उसके बाद हे मुने ! वे विष्णु आदि सभी देवता एवं मुनिगण प्रसन्नतापूर्वक शिवजी को प्रणामकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ २७-२८ ॥

॥ देवा ऊचुः ॥
देवदेव महादेव भक्तानामभयप्रद ।
नमो नमस्ते बहुशः कृपाकर महेश्वर ॥ २९ ॥
अद्भुता ते महादेव महालीला सुखप्रदा ।
सर्वेषां शंकर सतां दीनबंधो महाप्रभो ॥ ३० ॥
एवं मूढधियश्चाज्ञाः पूजायां ते सनातनम् ।
आवाहनं न जानीमो गतिं नैव प्रभोद्भुताम् ॥ ३१ ॥
गंगासलिलधाराय ह्याधाराय गुणात्मने ।
नमस्ते त्रिदशेशाय शंकराय नमोनमः ॥ ३२ ॥
वृषांकाय महेशाय गणानां पतये नमः ।
सर्वेश्वराय देवाय त्रिलोकपतये नमः ॥ ३३ ॥
संहर्त्रे जगतां नाथ सर्वेषां ते नमो नमः ।
भर्त्रे कर्त्रे च देवेश त्रिगुणेशाय शाश्वते ॥ ३४ ॥
विसंगाय परेशाय शिवाय परमात्मने ।
निष्प्रपंचाय शुद्धाय परमायाव्ययाय च ॥ ३५ ॥
दण्डहस्ताय कालाय पाशहस्ताय ते नमः ।
वेदमंत्रप्रधानाय शतजिह्वाय ते नमः ॥ ३६ ॥
भूतं भव्यं भविष्यच्च स्थावरं जंगमं च यत् ।
तव देहात्समुत्पन्नं सर्वथा परमेश्वर ॥ ३७ ॥
पाहि नस्सर्वदा स्वामिन्प्रसीद भगवन्प्रभो ।
वयं ते शरणापन्नाः सर्वथा परमेश्वर ॥ ३८ ॥
शितिकण्ठाय रुद्राय स्वाहाकाराय ते नमः ।
अरूपाय सरूपाय विश्वरूपाय ते नमः ॥ ३९ ॥
शिवाय नीलकंठाय चिताभस्मांगधारिणे ।
नित्यं नीलशिखंडाय श्रीकण्ठाय नमोनमः ॥ ४० ॥
सर्वप्रणतदेहाय संयमप्रणताय च ।
महादेवाय शर्वाय सर्वार्चितपदाय च ॥ ४१ ॥
त्वं ब्रह्मा सर्वदेवानां रुद्राणां नीललोहितः ।
आत्मा च सर्वभूतानां सांख्यैः पुरुष उच्यसे ॥ ४२ ॥
पर्वतानां सुमेरुस्त्वं नक्षत्राणां च चन्द्रमा ।
ऋषीणां च वशिष्ठस्त्वं देवानां वासवस्तथा ॥ ४३ ॥
अकारस्सर्ववेदानां त्राता भव महेश्वर ।
त्वं च लोकहितार्थाय भूतानि परिषिंचसि ॥ ४४ ॥
महेश्वर महाभाग शुभाशुभनिरीक्षक ।
आप्यायास्मान्हि देवेश कर्तॄन्वै वचनं तव ॥ ४५ ॥
रूपकोटिसहस्रेषु रूपकोटिशतेषु ते ।
अंतं गंतुं न शक्ताः स्म देवदेव नमोस्तु ते ॥ ४६ ॥

देवता बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे भक्तों को अभय प्रदान करनेवाले प्रभो ! आपको नमस्कार है, हे महेश्वर ! आप हमलोगों पर कृपा कीजिये । हे महादेव ! हे शंकर ! हे दीनबन्धो ! हे महाप्रभो ! आपकी लीला अद्भुत है तथा सभी सज्जनों को सुख देनेवाली है ॥ २९-३० ॥ हे प्रभो ! हम मूर्खबुद्धि तथा अज्ञानी लोग पूजन में आपके सनातन आवाहन को तथा आपकी अद्भुत गति को नहीं जानते हैं । गंगाजल को धारण करनेवाले, सबके आधार, गुणस्वरूप, आप देवेश्वर को नमस्कार है । आप शंकर को बारंबार नमस्कार है । आप वृषभध्वज, महेश्वर, गणाधिपति को नमस्कार है । आप सर्वेश्वर एवं त्रिलोकपति देव को नमस्कार है । हे नाथ ! हे देवेश ! सभी लोकों का संहार करनेवाले, सृष्टिकर्ता, पोषण करनेवाले, त्रिगुणेश तथा शाश्वत आपको नमस्कार है ॥ ३१-३४ ॥

निःसंग, परमेश्वर, शिव, परमात्मा, निष्प्रपंच, शुद्ध, परम, अव्यय, हाथ में दण्ड धारण करनेवाले, कालस्वरूप, हाथ में पाश धारण करनेवाले आपको नमस्कार है । वेदमन्त्रों में प्रधान तथा सैकड़ों जीभवाले आपको नमस्कार है ॥ ३५-३६ ॥ हे परमेश्वर ! भूत, भविष्य, वर्तमान — तीनों काल तथा स्थावर-जंगमात्मक जो भी है, वह सर्वथा आपके विग्रह से उत्पन्न हुआ है । हे स्वामिन् ! हे भगवन् ! हे प्रभो ! हमलोगों पर प्रसन्न होइये और सर्वदा हमलोगों की रक्षा कीजिये । हे परमेश्वर ! हमलोग सभी प्रकार से आपके शरणागत हैं ॥ ३७-३८ ॥

शितिकण्ठ, रुद्र एवं स्वाहाकाररूपवाले आपको नमस्कार है । निराकार, साकार एवं विश्वरूपवाले आपको नमस्कार है । शिव, नीलकण्ठ, अंग में सदा चिता की भस्म धारण करनेवाले, नीलशिखण्ड एवं श्रीकण्ठ आपको बार-बार नमस्कार है ॥ ३९-४० ॥ सबके द्वारा प्रणम्य देहवाले, संयम धारण करनेवालोंपर कृपा करनेवाले, महादेव, सबके संहारकारक तथा सभी के द्वारा पूजित चरणवाले आपको नमस्कार है ॥ ४१ ॥

आप सभी देवगणों में ब्रह्मा हैं, रुद्रों में नीललोहित हैं तथा सभी जीवधारियों में आत्मा हैं । सांख्यमतावलम्बी आपको पुरुष कहते हैं । आप पर्वतों में सुमेरु, नक्षत्रों में चन्द्रमा, ऋषियों में वसिष्ठ तथा देवों में इन्द्र हैं ॥ ४२-४३ ॥ आप सभी वेदों में ॐकारस्वरूप हैं । हे महेश्वर ! हमलोगों की रक्षा कीजिये । आप लोकहित के लिये प्राणियों का पालन करते हैं । हे महेश्वर ! हे महाभाग ! हे शुभाशुभ को देखनेवाले ! हे देवेश ! आपकी आज्ञा पालन करनेवाले हम देवताओं की रक्षा कीजिये ॥ ४४-४५ ॥ हमलोग आपके सहस्रकोटि तथा शतकोटिस्वरूप का अन्त पाने में समर्थ नहीं हैं । हे देवदेव ! आपको नमस्कार है ॥ ४६ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार विष्णु आदि समस्त देवता स्तुति करके बारंबार शिवजी को प्रणामकर उनके सम्मुख खड़े हो गये ॥ ४७ ॥ देवगणों की स्तुति सुनकर सर्वेश्वर स्वराट् दयालु शिव प्रसन्न हो गये और हँसने लगे ॥ ४८ ॥ इसके बाद प्रसन्न होकर वे दीनबन्धु, परमेश्वर, सत्पुरुषों को गति देनेवाले भगवान् शंकर विष्णु आदि देवताओं से कहने लगे — ॥ ४९ ॥

शिवजी बोले — हे हरे ! हे विधे ! हे देवगणो ! आपलोग आदरपूर्वक मेरा वचन सुनें, मैं सब प्रकार से सज्जनों का रक्षक, आप देवगणों के लिये दयानिधि, दुष्टों का संहार करनेवाला, त्रिलोकेश, सबका कल्याण करनेवाला, भक्तवत्सल, सबका कर्ता-भर्ता-हर्ता एवं विकाररहित हूँ । देवसत्तमो ! जब-जब आपलोगों पर विपत्ति आये, तब-तब सुखप्राप्ति के लिये आपलोग मेरा भजन किया करें ॥ ५०-५२ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! उसके बाद मुनीश्वरोंसहित विष्णु आदि देवता शिवजी की आज्ञा लेकर पार्वती, परमेश्वर एवं कुमार को प्रणामकर प्रसन्न होकर पार्वती-शिव एवं कुमार के रम्य यश का वर्णन करते हुए परम आनन्द प्राप्तकर अपने-अपने स्थान को चले गये ॥ ५३-५४ ॥ हे मुने ! शिवजी भी अपने गणों, कुमार कार्तिकेय एवं पार्वती के साथ प्रीतिपूर्वक आनन्दित होकर उस पर्वत पर निवास करने लगे । हे मुने ! इस प्रकार मैंने कुमार कार्तिकेय का तथा शिवजी का सम्पूर्ण चरित, जो सुख प्रदान करनेवाला तथा दिव्य है, आपलोगों से कह दिया, अब और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ५५-५६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में स्वामिकार्तिकचरित गर्भितशिवाशिवचरितवर्णन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥

 

 

 

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