शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 13
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
तेरहवाँ अध्याय
गणेशोत्पत्ति का आख्यान, पार्वती का अपने पुत्र गणेश को अपने द्वार पर नियुक्त करना, शिव और गणेश का वार्तालाप

सूतजी बोले — तारक के शत्रु कुमार के अद्भुत तथा उत्तम चरित्र को सुनकर प्रसन्न हुए नारदजी ने ब्रह्माजी से प्रीतिपूर्वक पूछा ॥ १ ॥

नारदजी बोले — हे देवदेव ! हे प्रजानाथ ! हे शिवज्ञाननिधे ! मैंने आपसे कार्तिकेय का अमृत से भी उत्तम चरित्र सुना । अब मैं गणेशजी का उत्तम चरित्र सुनना चाहता हूँ । उनका जन्म एवं चरित्र [अत्यन्त] दिव्य तथा सभी मंगलों का भी मंगल करनेवाला है ॥ २-३ ॥

शिवमहापुराण

सूतजी बोले — उन महामुनि नारद का यह वचन सुनकर ब्रह्माजी प्रसन्नचित्त हो गये और शिवजी का स्मरण करते हुए कहने लगे — ॥ ४ ॥

ब्रह्माजी बोले — कल्प के भेद से गणेशजी का जन्म ब्रह्माजी से भी पहले कहा गया है । एक समय शनि की दृष्टि पड़ने से उनका सिर कट गया और उसपर हाथी का सिर जोड़ दिया गया । अब मैं श्वेतकल्प में जिस प्रकार गणेशजी का जन्म हुआ था, उसे कह रहा हूँ, जिसमें कृपालु शंकरजी के द्वारा उनका शिरश्छेदन किया गया था ॥ ५-६ ॥ हे मुने ! शंकरजी सृष्टिकर्ता हैं, इस विषय में सन्देह नहीं करना चाहिये । वे सबके स्वामी हैं, वे शिव सगुण होते हुए भी निर्गुण हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! उनकी लीला से ही इस विश्व का सृजन, पालन तथा संहार होता है । अब आदरपूर्वक प्रस्तुत चरित्र सुनिये ॥ ७-८ ॥

शिवजी के विवाह के उपरान्त कैलास चले जाने पर कुछ समय के बाद गणेशजी का जन्म हुआ ॥ ९ ॥ किसी समय पार्वती की सखियाँ जया तथा विजया पार्वती के साथ मिलकर विचार करने लगीं ॥ १० ॥ शिवजी की आज्ञा में रहनेवाले नन्दी, भृंगी आदि अनेक और असंख्य प्रमथगण हैं । यद्यपि वे हमारे भी गण हैं, फिर भी शंकर की आज्ञा का पालन करनेवाले वे सभी द्वार पर स्थित रहते हैं, स्वतन्त्ररूप से हमारा कोई भी गण नहीं है । यद्यपि वे सब हमारे भी हैं, किंतु हमारा मन उनसे नहीं मिलता है, इसलिये हे अनघे ! हमारा भी कोई स्वतन्त्र गण होना चाहिये, अतः आप ऐसे एक गण की रचना कीजिये ॥ ११–१३ ॥

ब्रह्माजी बोले — जब सखियों ने यह उत्तम वचन पार्वती से कहा, तब उन्होंने उसमें अपना हित मान लिया और वे वैसा करने का प्रयत्न करने लगीं ॥ १४ ॥ इसके बाद किसी समय जब पार्वतीजी स्नान कर रही थीं, उसी समय [द्वार पर बैठे] नन्दी को डाँटकर शंकरजी भीतर चले आये ॥ १५ ॥ शिवजी को असमय में आता हुआ देखकर स्नान करती हुई वे सुन्दरी जगदम्बा लज्जित होकर उठ गयीं ॥ १६ ॥ उस समय अत्यन्त कौतुक से युक्त पार्वती को सखियों के द्वारा कहा गया वह वचन अत्यन्त हितकारी तथा सुखदायक प्रतीत हुआ । इसके बाद कुछ समय बीतने पर परमाया परमेश्वरी पार्वती ने मन में विचार किया कि मेरा भी कोई ऐसा सेवक होना चाहिये, जो श्रेष्ठ हो तथा योग्य हो और मेरी आज्ञा के बिना रेखामात्र भी इधर-से-उधर विचलित न हो ॥ १७–१९ ॥

इस प्रकार विचारकर उन देवी ने अपने शरीर के मैल से सर्वलक्षणसम्पन्न, शरीर के सभी अवयवों से सर्वथा निर्दोष, समस्त सुन्दर अंगोंवाले, विशाल, सर्वशोभा-सम्पन्न एवं महाबली तथा पराक्रमी पुरुष का निर्माण किया ॥ २०-२१ ॥ पार्वती ने उसे नाना प्रकार के वस्त्र, अनेक प्रकार के अलंकार तथा अनेक उत्तम आशीर्वाद देकर कहा — तुम मेरे पुत्र हो, तुम्हीं मेरे हो और यहाँ कोई दूसरा मेरा नहीं है । इस प्रकार कहे जाने पर उस पुरुष ने पार्वती को नमस्कारकर कहा — ॥ २२-२३ ॥

गणेशजी बोले — आपका क्या कार्य है ? मैं आपके द्वारा आदिष्ट कार्य को पूरा करूँगा । तब उनके द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर पार्वती ने पुत्र से कहा — ॥ २४ ॥

शिवा बोलीं — हे तात ! मेरे वचन को सुनो । तुम आज मेरे द्वारपाल बनो, तुम मेरे पुत्र हो, केवल तुम्ही मेरे हो, तुम्हारे अतिरिक्त यहाँ मेरा कोई नहीं है ॥ २५ ॥ हे सत्पुत्र ! मेरी आज्ञा के बिना कोई भी मेरे घर के भीतर किसी प्रकार हठ से भी न जाने पाये । हे तात ! यह मैंने तुमसे सत्य कह दिया ॥ २६ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! पार्वती ने इस प्रकार कहकर एक अत्यन्त दृढ़ लाठी उसे दी और उस बालक के सुन्दर रूप को देखकर वे हर्षित हो गयीं ॥ २७ ॥ उन्होंने प्रेम से उस पुत्र का मुख चूमकर उसका आलिंगन करके हाथ में लाठी लिये हुए उन गणेश को अपने द्वार पर नियुक्त कर दिया । हे तात ! इस प्रकार वह महावीर देवीपुत्र गण पार्वती माता की रक्षा के लिये हाथ में लाठी लिये हुए द्वार पर पहरा देने लगा ॥ २८-२९ ॥

एक समय अपने पुत्र उन गणेश्वर को द्वार पर नियुक्तकर वे पार्वती सखियों के साथ स्नान करने लगीं । हे मुनिश्रेष्ठ ! इसी समय परम कौतुकी तथा अनेक प्रकार की लीलाएँ करने में प्रवीण वे शिवजी भी द्वार पर आ पहुँचे ॥ ३०-३१ ॥ तब गणेश ने उन शिवजी को बिना पहचाने कहा — हे देव ! इस समय माता की आज्ञा के बिना आप भीतर नहीं जा सकते । माताजी स्नान कर रही हैं, कहाँ चले जा रहे हैं ? इस समय यहाँ से चले जाइये — इस प्रकार कहकर गणेश ने उन्हें रोकने के लिये अपनी लाठी उठा ली ॥ ३२-३३ ॥

उसे देखकर शिवजी बोले — हे मूर्ख ! तुम किसे मना कर रहे हो, हे दुर्बुद्धे ! तुम मुझे नहीं जानते, मैं शिव हूँ, कोई दूसरा नहीं । इसपर गणेश ने लाठी से शिवजी पर प्रहार किया, तब बहुत लीला करनेवाले शिवजी ने कुपित होकर पुत्र से कहा — ॥ ३४-३५ ॥

शिवजी बोले — हे बालक ! तुम मूर्ख हो, तुम मुझे नहीं जानते हो । मैं पार्वती का पति शिव हूँ, हे बालक ! मैं तो अपने ही घर जा रहा हूँ, तुम मुझे मना क्यों करते हो ? ॥ ३६ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे विप्र ! ऐसा कह घर में प्रवेश करते हुए उन शंकरजी पर गणनायक गणेश ने क्रोध करते हुए पुनः डण्डे से प्रहार किया । तब अत्यन्त कुपित हुए शिवजी ने अपने गणों को आज्ञा दी — हे गणो ! देखो, यह कौन है और यहाँ क्या कर रहा है ? ॥ ३७-३८ ॥ ऐसा कहकर लोकाचार में तत्पर रहनेवाले तथा अनेक अद्भुत लीलाएँ करनेवाले शिवजी महाक्रोध में भरकर घर के बाहर ही स्थित रहे ॥ ३९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में गणेशोत्पत्तिवर्णन नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥

 

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