September 15, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 14 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः चौदहवाँ अध्याय द्वाररक्षक गणेश तथा शिवगणों का परस्पर विवाद ब्रह्माजी बोले — तब उन गणों ने क्रुद्ध हो शिवजी की आज्ञा से वहाँ जाकर उन द्वारपाल गिरिजापुत्र से पूछा ॥ १ ॥ शिवगण बोले — तुम कौन हो, कहाँ से आये हो और यहाँ क्या करना चाहते हो ? यदि जीना चाहते हो तो यहाँ से शीघ्र ही दूर चले जाओ ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले — उनका वह वचन सुनकर हाथ में लाठी लिये हुए गिरिजापुत्र ने निडर होकर उन द्वाररक्षक गणों से कहा — ॥ ३ ॥ शिवमहापुराण गणेशजी बोले — आपलोग कौन हैं और कहाँ से आये हैं ? आपलोग तो बहुत ही सुन्दर हैं, शीघ्र ही यहाँ से दूर हो जाइये, विरोध करने के लिये यहाँ क्यों स्थित हैं ? ॥ ४ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार उनके वचन को सुनकर शिवजी के सभी महावीर गणों ने आश्चर्यचकित होकर परस्पर हास्य करके कहा ॥ ५ ॥ शिवजी के उन पार्षदों ने आपस में बातें करके कुपितमन होकर उन द्वारपाल गणेशजी से कहा — ॥ ६ ॥ शिवगण बोले — सुनिये, हम सब शिवजी के श्रेष्ठ गण ही यहाँ के द्वारपाल हैं । हम उन विभु शंकर की आज्ञा से तुम्हें यहाँ से हटाने के लिये आये हैं ॥ ७ ॥ तुमको भी एक गण समझकर हम तुम्हारा वध नहीं करते । अन्यथा तुम मार दिये गये होते । तुम स्वयं यहाँ से हट जाओ, क्यों मरना चाहते हो ? ॥ ८ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार कहे जाने के बाद भी गिरिजापुत्र निर्भय गणेश शंकरगणों को बहुत फटकारकर द्वार से नहीं हटे । तब वहाँ के उन सम्पूर्ण शिवगणों ने भी गणेशजी का वचन सुनकर शिवजी के पास जाकर उस वृत्तान्त को निवेदित किया । हे मुने ! तब अद्भुत लीला करनेवाले महेश्वर उस वचन को सुनकर अपने गणों को डाँटकर लौकिक गति का आश्रय लेकर कहने लगे — ॥ ९-११ ॥ महेश्वर बोले — हे गणो ! यह कौन है ? जो शत्रु के समान इतना उच्छृखल होकर बातें करता है, यह असद्बुद्धि क्या करेगा, निश्चय ही यह अपनी मृत्यु चाहता है ॥ १२ ॥ इस नवीन द्वारपाल को शीघ्र ही यहाँ से दूर करो, तुमलोग कायरों की भाँति खड़े होकर उसका समाचार मुझसे क्यों कह रहे हो ? अद्भुत लीला करनेवाले शंकर के ऐसा कहने पर उन गणों ने पुनः वहीं पर आकर उन द्वारपाल गणेश से कहा — ॥ १३-१४ ॥ शिवगण बोले — हे द्वारपाल ! तुम कौन हो और किसके द्वारा नियुक्त होकर यहाँ स्थित हो, तुमको हमलोगों की कोई परवाह नहीं है, यहाँ रहकर कैसे जीना चाहते हो ? ॥ १५ ॥ द्वारपाल तो हमलोग हैं, तुम किस प्रकार अपने को द्वारपाल कहते हो, शेर के आसन पर बैठकर सियार किस प्रकार अपने कल्याण की इच्छा कर सकता है ? ॥ १६ ॥ हे मूर्ख ! तुम तभी तक गर्जना कर रहे हो, जब तक तुम शिवगणों के पराक्रम का अनुभव नहीं कर लेते हो । अभी जब तुम अनुभव कर लोगे, तब धराशायी हो जाओगे ॥ १७ ॥ तब उनके द्वारा कहे गये इस वचन को सुनकर गणेशजी दोनों हाथ में लाठी लेकर ऐसा बोलनेवाले उन गणों को मारने लगे । तदनन्तर शिवापुत्र गणेश ने निडर होकर शंकर के महावीर गणों को घुड़ककर कहा — ॥ १८-१९ ॥ पार्वतीपुत्र बोले — जाओ, जाओ, यहाँ से दूर चले जाओ, अन्यथा मैं तुमलोगों को प्रचण्ड पराक्रम दिखाऊँगा, जिससे तुमलोग उपहासास्पद हो जाओगे ॥ २० ॥ तब उन गिरिजापुत्र की यह बात सुनकर शंकर के वे गण आपस में कहने लगे ॥ २१ ॥ शिवगण बोले — अब हमें क्या करना चाहिये, कहाँ जाना चाहिये । कहने पर भी यह हमारी बात नहीं मानता । हमलोग तो मर्यादा की रक्षा करते हैं, इसने ऐसी बात किस प्रकार कही ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब शिव के सभी गणों ने कैलास से एक कोस की दूरी पर स्थित शंकरजी से जाकर वह सब कहा — तब हाथ में त्रिशूल धारण किये हुए उग्रबुद्धि परमेश्वर शिवजी ने हँसकर वीरमानी अपने उन गणों से कहा — ॥ २३-२४ ॥ शिवजी बोले — हे गणो ! तुमलोग कायर हो, वीरमानी वीर नहीं, मेरे सामने तुमलोग ऐसा कहने के योग्य नहीं हो, डाँटे जाने पर वह पुनः क्या कह सकता है ॥ २५ ॥ तुम लोग जाओ, उस पर प्रहार करो, चाहे वह कोई क्यों न हो, मैं तुमलोगों से अधिक क्या कहूँ, चाहे जैसे भी हो, उसे वहाँ से हटाओ ॥ २६ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वर ! जब महेश्वर ने अपने श्रेष्ठ गणों को इस प्रकार फटकारा, तब वे गण पुनः वहाँ गये और बोले — ॥ २७ ॥ शिवगण बोले — अरे बालक ! सुनो । तुम हठपूर्वक क्यों व्यर्थ बकवास करते हो, अब तुम यहाँ से दूर चले जाओ, अन्यथा तुम्हारी मृत्यु हो जायगी ॥ २८ ॥ ब्रह्माजी बोले — शिव के आज्ञाकारी उन गणों का निश्चयपूर्वक वचन सुनकर ‘मैं क्या करूँ’ — यह सोचकर पार्वतीपुत्र गणेशजी बहुत दुखी हुए ॥ २९ ॥ इसी बीच द्वार पर गणों का तथा गणेश का कलह सुनकर देवी पार्वती ने अपनी सखी से कहा — देखो, द्वार पर किस प्रकार का कलह हो रहा है ? सखी ने वहाँ आकर सारा वृत्तान्त जान लिया और क्षणमात्र में सब कुछ देखकर प्रसन्न होकर वह पार्वती के पास गयी । हे मुने ! जो कुछ भी घटित हुआ था, वहाँ जाकर उस सखी ने वह सब यथार्थ रूप से पार्वती के आगे वर्णन किया ॥ ३०-३२ ॥ सखी बोली — हे महेश्वरि । हमारा गण जो द्वार पर स्थित है, उसको शिवजी के वीर गण निश्चित रूप से धमका रहे हैं । शिव तथा उनके वे सभी गण बिना अवसर के घर में जबरदस्ती कैसे प्रवेश कर सकते हैं, यह तो आपके लिये शुभतर नहीं है ॥ ३३-३४ ॥ इस बालक ने बहुत अच्छा किया, जो इस कार्य के लिये दुःख तथा तिरस्कार आदि का अनुभव करके भी इसने किसी को घर में आने नहीं दिया । इसके बाद इन लोगों में परस्पर विवाद चल रहा है, वाद-विवाद किये जाने पर वे सुखपूर्वक घर में प्रवेश नहीं कर पायेंगे ॥ ३५-३६ ॥ हे प्रिये ! यदि वाद-विवाद किया गया, तो मेरे गण को जीतकर विजय प्राप्त करने के बाद ही वे घर में प्रवेश कर सकते हैं, अन्यथा नहीं । हमारे गण को धमकी देने से इन गणों ने हमलोगों को ही धमकी दी है, इसलिये हे देवि ! हे भद्रे ! आपको अपने श्रेष्ठ मान का त्याग नहीं करना चाहिये । हे सति ! शिवजी तो बन्दर के समान सदा आपके अधीन हैं, वे अहंकार क्या करेंगे; अवश्य ही वे आपके अनुकूल हो जायँगे ॥ ३७-३९ ॥ ब्रह्माजी बोले — आश्चर्य है कि वे सती पार्वती शिवेच्छा से क्षणभर वहाँ रुक गयीं और वे मानिनी होकर अपने मन में कहने लगीं ॥ ४०-४१ ॥ शिवा बोलीं — अहो, यह बड़े आश्चर्य की बात है कि शिव के गण क्षणमात्र भी रुक नहीं सके । इस प्रकार प्रवेश का हठ उन लोगों ने कैसे ठान लिया ! अब इस निमित्त उनसे विनय अथवा अन्य उपाय करना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है । जो होना होगा, वही होगा, मैंने जो कर दिया है, उसे अन्यथा कैसे कर सकती हूँ । ऐसा कहकर प्रिया पार्वती ने अपनी सखी को वहाँ भेजा ॥ ४२-४३ ॥ वह सखी आकर पार्वतीपुत्र गणेश से प्रिया पार्वती द्वारा कही गयी बात कहने लगी — ॥ ४४ ॥ सखी बोली — हे भद्र ! तुमने बहुत अच्छा किया, ये लोग अब हठपूर्वक घर में प्रवेश न करें । तुम्हारे सामने ये गण क्या हैं ? जो कि तुम्हारे-जैसे गण को जीत लें ॥ ४५ ॥ करने योग्य अथवा न करने योग्य जो भी कर्तव्य हो, तुम उसे अवश्य करना । जो एक बार जीत लिया जायगा, वह फिर वैर नहीं करेगा ॥ ४६ ॥ ब्रह्माजी बोले — उस सखी के द्वारा कहे गये माता के वचन को सुनकर गणेश्वर को परम आनन्द, बल तथा महान् उत्साह प्राप्त हुआ ॥ ४७ ॥ उन्होंने अच्छी तरह से कमर कस ली और पगड़ी बाँधकर ऊरु तथा जंघा पर ताल ठोकते हुए निडर होकर उन सभी गणों से प्रसन्नतापूर्वक यह वचन कहा — ॥ ४८ ॥ गणेशजी बोले — मैं पार्वती का पुत्र हूँ, तुमलोग शिव के गण हो, दोनों ही समान हैं, [हम सभी] अपने-अपने कर्तव्य का पालन करें ॥ ४९ ॥ क्या आप लोग ही द्वारपाल रह सकते हैं, मैं द्वारपाल नहीं रह सकता ? यदि आपलोग शिव के द्वार पर स्थित हैं, तो मैं भी यहाँ निश्चित रूप से स्थित हूँ ॥ ५० ॥ जब आपलोग यहाँ स्थित रहियेगा, तब आपलोग शिव की आज्ञा का पालन कीजियेगा । इस समय तो यहाँ मैं पार्वती की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ । हे वीरो ! यह सत्य है; मैंने उचित निर्णय लिया है ॥ ५१-५२ ॥ इसलिये हे शिवगणो ! आपलोग मेरा वचन आदरपूर्वक सुन लें, हठ से अथवा विनय से आपलोगों को घर के भीतर नहीं जाना चाहिये ॥ ५३ ॥ ब्रह्माजी बोले — गणेश्वर के द्वारा इस प्रकार कहे गये वे सभी शिवगण लज्जित होकर शिव के पास गये और उन्हें प्रणामकर उनके आगे खड़े हो गये ॥ ५४ ॥ खड़े होकर उनलोगों ने वह सारा अद्भुत वृत्तान्त शिवजी से निवेदन किया । इसके बाद फिर हाथ जोड़कर सिर झुकाये हुए वे शिवजी की स्तुति कर उनके आगे खड़े हो गये । तब अपने गणों के द्वारा कहे गये उस समाचार को सुनकर शिवजी लौकिक व्यवहार का आश्रय लेकर यह वचन कहने लगे — ॥ ५५-५६ ॥ शंकर बोले — हे समस्त गणो ! सुनो, युद्ध करना भी उचित नहीं है, क्योंकि तुमलोग हमारे गण हो और वह बालक पार्वती का गण है । हे गणो ! यदि नम्रता प्रदर्शित की जाय, तो संसार में मेरी यह निन्दनीय प्रसिद्धि होगी कि शिवजी सदा स्त्री के वश में रहते हैं और शिव के गण निर्बल हैं । जो जैसा करे, उसके साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिये — यही नीति सर्वश्रेष्ठ है । वह अकेला बालक गण क्या पराक्रम करेगा ? ॥ ५७–५९ ॥ तुम सब मेरे गण हो और युद्ध में अत्यन्त कुशल हो, अतः युद्ध छोड़कर तुमलोग लघुता को कैसे प्राप्त होओगे, विशेषरूप से पति के आगे स्त्री को हठ कैसे करना चाहिये । हठ करके वह पार्वती उसका फल अवश्य प्राप्त करेगी । इसलिये हे वीरो ! तुम सब मेरी बात आदरपूर्वक सुनो, तुम लोग अवश्य युद्ध करो, जो होनहार है, वह तो होकर ही रहेगा ॥ ६०-६२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे ब्रह्मन् ! हे मुनिश्रेष्ठ ! अनेक प्रकार की लीलाएँ करने में प्रवीण शंकरजी ऐसा कहकर लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए चुप हो गये ॥ ६३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में गणविवादवर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ Related