शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 18
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
अठारहवाँ अध्याय
पार्वती द्वारा गणेश को वरदान, देवों द्वारा उन्हें अग्रपूज्य माना जाना, शिवजी द्वारा गणेश को सर्वाध्यक्षपद प्रदान करना, गणेशचतुर्थीव्रतविधान तथा उसका माहात्म्य, देवताओं का स्वलोक-गमन

नारदजी बोले — हे प्रजेश्वर ! जब गिरिजा ने अपने पुत्र को जीवित देख लिया, तब क्या हुआ ? कृपापूर्वक उसको आप कहिये ॥ १ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वर ! जब देवी ने देख लिया कि मेरा पुत्र जीवित हो गया, उसके बाद जो हुआ, उसे आप सुनिये, मैं उस महान् उत्सव को कह रहा हूँ ॥ २ ॥ हे मुने ! जब व्याकुलता से रहित तथा विशेष आकृतिवाले शिवापुत्र गजानन जीवित हो गये, तब देवताओं ने उन्हें गणाध्यक्ष के पद पर अभिषिक्त किया ॥ ३ ॥ भगवती पार्वती अपने पुत्र को [अभिषिक्त] देखकर अत्यन्त हर्षित हो गयीं और अपनी दोनों भुजाओं से बालक को गोद में लेकर प्रेमपूर्वक उसका आलिंगन करने लगीं ॥ ४ ॥ जगदम्बा ने उस अपने पुत्र को बड़े प्रेम से नाना प्रकार के वस्त्र तथा अलंकार प्रदान किये ॥ ५ ॥

शिवमहापुराण

उन देवी ने अनेक प्रकार की सिद्धियों से उस बालक का पूजन करके सभी दुःखों को दूर करनेवाले अपने कल्याणकारी हाथ से उसका स्पर्श किया । पूजन करने के उपरान्त देवी ने उसका मुख चूमा और प्रेम से उसे अनेक वरदान दिये और कहा — पुत्र ! तुमने इस समय बड़ा कष्ट उठाया ॥ ६-७ ॥ हे पुत्र ! तुम धन्य हो और कृतकृत्य हो, तुम सभी देवताओं के पहले पूजे जाओगे और सदा दुःखरहित रहोगे । चूँकि इस समय तुम्हारे मुखमण्डल पर सिन्दूर दिखायी देता है, इसलिये लोगों के द्वारा तुम सदा सिन्दूर से पूजित होओगे । जो मनुष्य पुष्प, चन्दन, सुगन्धित द्रव्य, उत्तम नैवेद्य, विधिपूर्वक आरती, ताम्बूल, दान, परिक्रमा तथा नमस्कार विधान से तुम्हारी पूजा करेगा, उसे सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी, इसमें सन्देह नहीं । इतना ही नहीं तुम्हारे पूजन से समस्त विघ्न भी निःसन्देह विनष्ट हो जायँगे ॥ ८-१२ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर उन महेश्वरी देवी ने नाना प्रकार के उत्कृष्ट पदार्थों से पुनः अपने उस पुत्र का पूजन किया । हे विप्र ! तब गिरिजा की कृपा से क्षणमात्र में देवताओं को तथा विशेषकर शिवगणों को शान्ति प्राप्त हुई ॥ १३-१४ ॥ उसी समय इन्द्रादि देवता प्रसन्नता से शिव की स्तुति करके उन्हें प्रसन्नकर भक्तियुक्त होकर पार्वती के पास ले गये । शिव को ले जाने के अनन्तर उन देवताओं ने तीनों लोक के सुख के लिये महेश्वरी के उस पुत्र को शिव की गोद में बैठा दिया । शिवजी ने भी उस बालक के सिरपर अपना करकमल रखकर देवगणों से यह वचन कहा — यह मेरा दूसरा पुत्र है ॥ १५-१७ ॥

तब गणेश ने भी उठकर शिव को, पार्वती को, मुझे, विष्णु को प्रणाम करके सबके सामने खड़े होकर नारदादि सभी ऋषियों से कहा — आपलोग मेरे अपराध को क्षमा करें, मनुष्यों में मान ऐसा ही होता है ॥ १८-१९ ॥

तब मैं [ब्रह्मा], विष्णु तथा शंकर — इन तीनों देवताओं ने एक साथ ही उस बालक को प्रेमपूर्वक उत्तम वर प्रदान करते हुए कहा — जिस प्रकार हम तीनों श्रेष्ठ देवता तीनों लोकों में पूज्य हैं, उसी प्रकार ये गणेश भी सभी के द्वारा पूजे जायँ । हमलोग प्राकृत (मौलिक) देवता हैं, उसी प्रकार ये भी प्राकृत हैं । गणेश विघ्नों का हरण करनेवाले तथा सभी कामनाओं का फल प्रदान करनेवाले हैं । पहले इनकी पूजा करके बाद में मनुष्य हमलोगों की पूजा करें, यदि हमलोगों की पूजा की गयी और इनकी पूजा नहीं की गयी और हे देवताओ ! यदि कोई इनकी पूजा किये बिना अन्य देवताओं की पूजा करेगा तो उसे पूजा का फल प्राप्त नहीं होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २०-२४ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर शिवजी ने अनेक प्रकार की वस्तुओं से गणेश की पूजा की, उसके बाद विष्णु के द्वारा भी वे पूजित हुए । तदनन्तर मैंने एवं पार्वती ने उनकी पूजा की और देवगणों ने भी बड़े आदर के साथ उनका पूजन किया । उसी स्थान पर ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव ने एक साथ मिलकर पार्वती की प्रसन्नता हेतु उन गणेश को सर्वाध्यक्ष शब्द से सम्बोधित किया ॥ २५–२७ ॥ इसके बाद शिव ने प्रसन्न मन से उन गणेश को लोक में सदा सुख देनेवाले अनेक वर दिये ॥ २८ ॥

शिवजी बोले — हे पार्वतीपुत्र ! मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ, इसमें सन्देह नहीं है, मेरे सन्तुष्ट रहने पर जगत् सन्तुष्ट हो जाता है, कोई भी विरुद्ध नहीं हो सकता ॥ २९ ॥ तुम बालकरूप से हो और शक्ति के महापराक्रमी एवं परम तेजस्वी पुत्र हो । इसलिये सर्वदा सुखी रहो ॥ ३० ॥ हे बालक ! विघ्नों के नष्ट करने में तुम्हारा नाम सर्वश्रेष्ठ होगा । आज से तुम मेरे सम्पूर्ण गणों के अध्यक्ष एवं सबके पूजनीय होओगे । इस प्रकार कहकर शंकर ने गणेश को उनकी अनेक पूजाविधि बतलाकर उसी क्षण उन्हें अनेक आशीर्वाद प्रदान किये ॥ ३१-३२ ॥

उसके बाद देवताओं एवं अप्सराओं ने प्रसन्न होकर [अनेक प्रकार के] गीत, वाद्य तथा नृत्य किये ॥ ३३ ॥ इसके बाद कल्याणकारी महात्मा शंकर ने प्रसन्न होकर उन गणेश को पुनः वर प्रदान किया ॥ ३४ ॥

हे गणेश्वर ! तुम भाद्रपदमास में कृष्णपक्ष की चतुर्थी को शुभ चन्द्रोदयकाल में उत्पन्न हुए हो और रात्रि के प्रथम प्रहर में गिरिजा के चित्त से तुम्हारा रूप आविर्भूत हुआ है, इसलिये उसी दिन तुम्हारा उत्तम व्रत होगा ॥ ३५-३६ ॥ उसी दिन से आरम्भकर उसी तिथि को सभी सिद्धियों के लिये मनुष्य को प्रसन्नतापूर्वक इस सुन्दर व्रत का अनुष्ठान करना चाहिये । एक वर्ष में जब भाद्रमास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि पुनः आये, तबतक वर्षपर्यन्त तुम्हारे व्रत को मेरी आज्ञा से करना चाहिये । जो लोग इस संसार में अनेक प्रकार के अतुल सुख चाहते हैं, वे प्रत्येक चतुर्थी के दिन विधिपूर्वक तुम्हारी पूजा करें ॥ ३७–३९ ॥

मार्गशीर्ष के महीने में रमा नामक जो चतुर्थी होती है, उस दिन प्रातःकाल स्नानकर व्रत के लिये ब्राह्मणों से निवेदन करे । दूर्वा से पूजन करे तथा उपवास करे, रात्रि का प्रथम प्रहर उपस्थित होने पर स्नान करके मनुष्य को [गणेश का] पूजन करना चाहिये ॥ ४०-४१ ॥ धातु से, मूंगे से, श्वेत अर्क से अथवा मिट्टी से गणेश की मूर्ति का निर्माण करके उसकी प्रतिष्ठाकर मनुष्य सावधान होकर नाना प्रकार के दिव्य गन्ध, चन्दन तथा पुष्पों से उनकी पूजा करे ॥ ४२-४३ ॥ गणेशजी की पूजा के लिये जो दूर्वा हो, वह एक वित्ते (बारह अंगुल लम्बी)-की हो और तीन गाँठ से युक्त तथा मूलरहित होनी चाहिये । इस प्रकार की एक सौ एक दूर्वाओं अथवा इक्कीस दूर्वाओं के द्वारा स्थापित प्रतिमा का पूजन करे । धूप, दीप तथा नाना प्रकार के नैवेद्य, ताम्बूल, अर्घ्य आदि उत्तम द्रव्यों से और प्रणाम तथा स्तुति के द्वारा गणेशजी की पूजा करे । इस प्रकार तुम्हारा पूजनकर बालचन्द्रमा की पूजा करे ॥ ४४-४६ ॥

तदनन्तर ब्राह्मणों की पूजा करके प्रसन्नतापूर्वक मधुर पदार्थों का भोजन कराना चाहिये, इसके बाद स्वयं भी लवणरहित मधुर भोजन करना चाहिये ॥ ४७ ॥ तत्पश्चात् अपना सारा नियम विसर्जित करे और गणेशजी का स्मरण करे । इस प्रकार का अनुष्ठान करने से यह शुभ व्रत सम्पूर्ण होता है ॥ ४८ ॥ इस प्रकार व्रत करते हुए एक वर्ष बीत जाय, तब उस व्रत की सम्पूर्णता के लिये उद्यापन करना चाहिये । मेरी आज्ञा से उसमें बारह ब्राह्मणों को भोजन कराये तथा एक कलश की स्थापना करके तुम्हारी मूर्ति की पूजा करे ॥ ४९-५० ॥

वेदी पर अष्टदल कमल बनाकर मनुष्यों को धन की कृपणता से रहित होकर वेदविधि से होम करना चाहिये ॥ ५१ ॥ इसके बाद मूर्ति के आगे दो स्त्रियों एवं दो वटुकों की विधिपूर्वक पूजाकर आदर से उन्हें भोजन कराये । रात्रि में जागरण करे, प्रातःकाल पुनः पूजन करे । इसके बाद गणेशजी से पुनः आने के लिये प्रार्थनाकर उनका विसर्जन करे ॥ ५२-५३ ॥

तत्पश्चात् बालक वटुओं से आशीर्वाद ग्रहण करे तथा स्वस्तिवाचन भी कराये और व्रत की सम्पूर्णता के लिये पुष्पांजलि समर्पित करे । उसके बाद नमस्कार कर अन्य कार्य सम्पन्न करे । जो इस प्रकार व्रत का अनुष्ठान करता है, उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है ॥ ५४-५५ ॥ हे गणेश्वर ! जो श्रद्धा के साथ नित्य अपनी शक्ति के अनुसार सभी कामनाओं का फल प्राप्त करने के लिये सिन्दूर, चन्दन, तण्डुल, केतकी के फूल तथा अनेक प्रकार के उपचारों से तुझ गणेश की पूजा करेगा और इस प्रकार जो भी लोग भक्तिपूर्वक अनेक उपचारों से तुम्हारी पूजा करेंगे, उनको सदा सिद्धि प्राप्त होगी तथा उनके विघ्नों का नाश हो जायगा ॥ ५६-५८ ॥

सभी वर्गों, विशेषकर स्त्रीजनों को गणेशजी का पूजन अवश्य करना चाहिये । अपने अभ्युदय की कामना करनेवाले राजाओं को विशेष रूप से पूजन करना चाहिये ॥ ५९ ॥ [हे गणेश!] मनुष्य जो-जो कामनाएँ करता है, तुम्हारी पूजा से उसे निश्चित रूप से प्राप्त करता है, इसलिये कामना करनेवाले उस मनुष्य को सदैव तुम्हारा पूजन करना चाहिये ॥ ६० ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! जब महात्मा शिवजी ने गणेशजी से इस प्रकार कहा, तभी सभी देवगणों, ऋषिवरों तथा समस्त शिवप्रिय गणों ने ‘तथास्तु’ कहकर विधिपूर्वक गणपति का पूजन किया ॥ ६१-६२ ॥ उसके बाद सभी गणों ने भी गणेश को प्रणाम किया और आदरपूर्वक अनेक प्रकार की वस्तुओं से विशेषरूप से उनकी पूजा की । हे मुनीश्वर ! उस समय भगवती गिरिजा को जो हर्ष उत्पन्न हुआ, उस अवर्णनीय हर्ष को मैं अपने चारों मुखों से भी कैसे कहूँ ॥ ६३-६४ ॥

देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगी, अप्सराएँ नाचने लगीं, बड़े-बड़े गन्धर्व गान करने लगे और [आकाशमण्डल से] पुष्पवृष्टि होने लगी । इस प्रकार गणपति की प्रतिष्ठा होने पर सारा जगत् सुखी हो गया, महोत्सव होने लगा एवं सारा दुःख नष्ट हो गया ॥ ६५-६६ ॥ हे नारद ! उस समय विशेष रूप से पार्वती तथा शिव प्रसन्न हुए । सर्वत्र सुखदायक महामंगल होने लगा ॥ ६७ ॥ उस समय समस्त देवता एवं ऋषिगण जो सभी वहाँ आये हुए थे, वे शिवजी की आज्ञा से भगवती पार्वती तथा गणेश की बारंबार प्रशंसा करते हुए, शिव की स्तुति करते हुए तथा वह युद्ध कैसा था, उसका वर्णन करते हुए चले गये ॥ ६८-६९ ॥

जब भगवती पार्वती का क्रोध शान्त हो गया, तब शिवजी भी पूर्ववत् पार्वती के समीप आकर लोकहित की कामना से नाना प्रकार के सुखद कार्य करने लगे । यद्यपि वे स्वात्माराम हैं, फिर भी भक्तों के कार्य के लिये सदैव उद्यत रहते हैं । विष्णु तथा मैं ब्रह्मा उन पार्वती एवं शंकर की भक्तिपूर्वक सेवाकर तथा शिव से आज्ञा लेकर अपने स्थान को आ गये । हे नारद ! हे भगवन् ! हे मुनीश्वर ! आप भी शिवा-शिव के यश का गान करके उनसे पूछकर अपने भवन को चले आये । हे नारद ! आपके द्वारा पूछे जाने पर मैंने आपसे विघ्नेश्वर गणेशजी के यश से मिश्रित भगवान् शिव तथा भगवती शिवा के यश का आदरपूर्वक पूर्णरूप से वर्णन कर दिया ॥ ७०-७४ ॥

जो संयत होकर इस मंगलदायक आख्यान को सुनता है, वह सभी मंगलों से युक्त होकर मंगलों का आलय हो जाता है, पुत्रहीन को पुत्र, निर्धन को धन, स्त्री की इच्छावाले को स्त्री एवं प्रजा चाहनेवाले को प्रजा की प्राप्ति होती है, रोगी को आरोग्य, भाग्यहीन को सौभाग्य, नष्ट पुत्रवाले को पुत्र, नष्ट धनवालों को धन एवं जिस स्त्री का पति विदेश गया हो, उसको पति की प्राप्ति होती है और शोकयुक्त पुरुष शोक से रहित हो जाता है, इसमें संशय नहीं है । गणेश से सम्बन्धित यह आख्यान जिसके घर में नित्य रहता है, वह सर्वदा मंगल से युक्त होता है; इसमें संशय नहीं है । यात्राकाल में तथा पवित्र पर्व पर जो कोई सावधान होकर इसे सुनता है, वह गणेश की कृपा से सम्पूर्ण मनोरथ प्राप्त कर लेता है ॥ ७५-७९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में गणेश को गणाधिप की पदवीप्राप्ति का वर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

 

 

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