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शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 19
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
उन्नीसवाँ अध्याय
स्वामिकार्तिकेय और गणेश की बाल-लीला, विवाह के विषय में दोनों का परस्पर विवाद, शिवजी द्वारा पृथ्वी-परिक्रमा का आदेश, कार्तिकेय का प्रस्थान, बुद्धिमान् गणेशजी का पृथ्वीरूप माता-पिता की परिक्रमा और प्रसन्न शिवा-शिव द्वारा गणेश के प्रथम विवाह की स्वीकृति

नारदजी बोले — हे तात ! मैंने गणेशजी के श्रेष्ठ जन्म के आख्यान को सुन लिया तथा अत्यन्त पराक्रम से युक्त उनका दिव्य चरित्र भी सुना । हे तात ! हे सुरेश्वर ! उसके बाद क्या हुआ ? उसे भली-भाँति कहिये । यह आख्यान शिवा और शिव के यश से परिपूर्ण तथा महान् आनन्द देनेवाला है ॥ १-२ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! करुणार्द्र चित्तवाले आपने ठीक ही पूछा । हे ऋषिसत्तम ! अब मैं [आगे की कथा] कह रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनिये ॥ ३ ॥

शिवमहापुराण

हे विप्रेन्द्र ! शिवा एवं शिव अपने उन दोनों पुत्रों की उत्तम लीला बारंबार देखकर अत्यन्त प्रसन्न होने लगे ॥ ४ ॥ माता-पिता के दुलार से उनका सुख दिन-रात बढ़ने लगा और वे दोनों बड़ी प्रसन्नता से आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करते थे । हे मुनीश्वर ! वे दोनों पुत्र महान् भक्ति से युक्त होकर माता-पिता की सेवा करते थे । षण्मुख कार्तिकेय तथा गणेश के प्रति माता-पिता का अधिक स्नेह शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान सदा बढ़ने लगा ॥ ५-७ ॥

हे देवर्षे ! एक समय शिवा एवं शिव — वे दोनों प्रेमयुक्त होकर एकान्त में बैठे हुए कुछ विचार कर रहे थे ॥ ८ ॥

शिवा-शिव बोले — अब हमारे ये पुत्र विवाह के योग्य हो गये हैं । अतः इन दोनों का शुभ विवाह कैसे किया जाय ? जिस प्रकार षण्मुख प्रिय हैं, उसी प्रकार गणेश भी प्रिय हैं । इस प्रकार की चिन्ता में पड़े हुए वे दोनों लीला का आनन्द लेने लगे ॥ ९-१० ॥ हे मुने ! अपने माता-पिता का यह विचार जानकर वे दोनों पुत्र उनकी इच्छा से विवाह के लिये लालायित हो उठे । ‘मैं [पहले] विवाह करूँगा’ — इस प्रकार बारंबार कहते हुए दोनों आपस में विवाद करने लगे ॥ ११-१२ ॥

जगत् के अधिपति वे दोनों शिवा और शिव उनके वचन को सुनकर लोकाचार की रीति का आश्रय लेकर महान् आश्चर्य में पड़ गये । अब क्या करना चाहिये और किस प्रकार इनके विवाह की विधि सम्पन्न की जाय — ऐसा निश्चय करके उन दोनों ने एक अद्भुत युक्ति रची । किसी समय बैठकर माता-पिता ने अपने दोनों पुत्रों को बुलाकर कहा — ॥ १३-१५ ॥

शिवा-शिव बोले — हमने तुम दोनों के लिये एक सुखदायी नियम बनाया है । हे उत्तम पुत्रो ! उसे प्रीति से सुनो, हमलोग यथार्थ रूप से कह रहे हैं ॥ १६ ॥ तुम दोनों ही पुत्र समानभाव से हमें प्रिय हो, इसमें कोई विशेष नहीं है । अतः हमलोगों ने तुमदोनों पुत्रों के लिये एक कल्याणप्रद शर्त रखी है । तुम दोनों में जो कोई भी सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमाकर पहले चला आयेगा, उसी का शुभ लक्षणसम्पन्न विवाह पहले किया जायगा ॥ १७-१८ ॥

ब्रह्माजी बोले — उन दोनों का वचन सुनकर महाबली कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिये बड़ी शीघ्रता से घर से चल पड़े । किंतु बुद्धिमान् गणेशजी अपनी सद्बुद्धि से चित्त में बारंबार विचार करके वहीं स्थित रहे कि मुझे क्या करना चाहिये और कहाँ जाना चाहिये, मैं तो लाँघ भी नहीं सकता हूँ, कोसभर चलने के बाद मैं पुनः चल नहीं सकता, फिर इस पृथ्वी की परिक्रमा करके मैं कौनसा सुख प्राप्त कर सकूँगा ? ऐसा विचारकर गणेशजी ने जो किया, उसे आप सुनिये । विधिपूर्वक स्नान करके स्वयं घर आकर वे माता-पिता से कहने लगे — ॥ १९–२३ ॥

गणेशजी बोले — हे तात ! आप दोनों की पूजा के लिये मेरे द्वारा स्थापित इस आसन पर आप लोग बैठ जाइये और मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये ॥ २४ ॥

ब्रह्माजी बोले — उनकी बात सुनकर पार्वती और परमेश्वर पूजा ग्रहण करने के लिये आसन पर बैठ गये ॥ २५ ॥ गणेशजी ने उन दोनों का पूजन किया और बारंबार उनकी परिक्रमा की, इस प्रकार सात परिक्रमा की तथा सात बार प्रणाम किया ॥ २६ ॥ हे तात ! बुद्धिसागर गणेशजी ने बारंबार उनकी स्तुति कर हाथ जोड़कर प्रेमविह्वल अपने माता-पिता से कहा — ॥ २७ ॥

गणेशजी बोले — हे माता एवं हे पिता ! आप मेरी श्रेष्ठ बात सुनिये, अब शीघ्र ही मेरा सुन्दर विवाह कर दीजिये ॥ २८ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार महात्मा गणेशजी का यह वचन सुनकर माता-पिता ने महाबुद्धिनिधि गणेशजी से कहा — ॥ २९ ॥

शिवा-शिव बोले — तुम भी वनसहित पृथ्वी की ठीक-ठीक परिक्रमा करो, कुमार गया हुआ है, वहाँ तुम भी जाओ और पहले चले आओ ॥ ३० ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार माता-पिता के इस वचन को सुनकर गणेशजी संयत तथा कुपित होकर कहने लगे — ॥ ३१ ॥

गणेशजी बोले — हे माता एवं हे पिता ! आप दोनों धर्मरूप और अत्यन्त विद्वान् माने गये हैं, अतः हे श्रेष्ठ [माता-पिता] ! मेरी धर्मसम्मत बात को ठीक-ठीक सुनिये । मैंने तो सात बार पृथ्वी की परिक्रमा की है, तब हे माता-पिता ! आप दोनों ऐसा क्यों कह रहे हैं ? ॥ ३२-३३ ॥

ब्रह्माजी बोले — उसके बाद गणेशजी का वचन सुनकर महालीला करनेवाले उन दोनों शिवा-शिव ने लौकिक रीति का आश्रय लेते हुए कहा — ॥ ३४ ॥

माता-पिता बोले — हे पुत्र ! तुमने अति विशाल, सात द्वीपवाली, समुद्रपर्यन्त फैली हुई तथा घोर जंगलों से परिव्याप्त पृथ्वी की परिक्रमा कब की ? ॥ ३५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! शिवा-शिव के इस वचन को सुनकर महाबुद्धि के निधान पुत्र गणेशजी यह वचन कहने लगे — ॥ ३६ ॥

गणेशजी बोले — मैंने आप दोनों माता-पिता शिवा और शिव का पूजन करके अपनी बुद्धि से समुद्रपर्यन्त पृथ्वी की परिक्रमा कर ली । इस प्रकार का वचन वेदों, शास्त्रों तथा धर्मशास्त्रों में विद्यमान है, क्या यह वचन सत्य है अथवा सत्य नहीं है ? ॥ ३७-३८ ॥ माता-पिता का पूजनकर जो उनकी परिक्रमा कर लेता है, उसे पृथ्वी की परिक्रमा करने से होनेवाला फल निश्चित रूप से प्राप्त हो जाता है ॥ ३९ ॥ जो माता-पिता को घर में छोड़कर तीर्थस्थान में जाता है, उसके लिये वह वैसा ही पाप कहा गया है, जो उन दोनों के वध करने से लगता है ॥ ४० ॥

माता-पिता का चरणकमल ही पुत्र के लिये महान् तीर्थ है, अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होता है ॥ ४१ ॥ यह तीर्थ सन्निकट रहनेवाला, [सभी प्रकार से] सुलभ और धर्मों का साधन है । पुत्र के लिये माता-पिता तथा स्त्री के लिये पति ही घर में सर्वोत्तम तीर्थ है ॥ ४२ ॥ वेद और धर्मशास्त्र निरन्तर ऐसा कहते हैं, आपलोगों को भी यही करना चाहिये, अन्यथा ये असत्य हो जायँगे । ऐसी स्थिति में आपका स्वरूप ही असत्य हो जायगा और तब वेद भी असत्य हो जायँगे, इसमें संशय नहीं है । अतः अब मेरा शुभ विवाह शीघ्रता से कीजिये, अथवा वेदों और शास्त्रों को मिथ्या कहिये ॥ ४३-४५ ॥ हे धर्मस्वरूप माता-पिता ! इन दोनों में जो श्रेष्ठतम हो, उसी को ठीक-ठीक विचारकर प्रयत्नपूर्वक कीजिये ॥ ४६ ॥

ब्रह्माजी बोले — तब ऐसा कहकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ उत्कृष्ट बुद्धिवाले पार्वतीपुत्र गणेशजी मौन हो गये ॥ ४७ ॥ इसके बाद विश्व के स्वामी दम्पती पार्वती-परमेश्वर उनका यह वचन सुनकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये । तदनन्तर उन शिवा-शिव ने बुद्धिविचक्षण तथा यथार्थ बात कहनेवाले पुत्र की प्रशंसा करते हुए यथार्थ बोलनेवाले उनसे प्रेमपूर्वक कहा — ॥ ४८-४९ ॥

शिवा-शिव बोले — हे पुत्र ! तुझ महात्मा में निर्मल बुद्धि उत्पन्न हुई है, तुमने जो बात कही है, वह सत्य ही है, इसमें सन्देह नहीं है । संकट उपस्थित होने पर भी जिसकी बुद्धि में विशेषता बनी रहती है, उसका दुःख उसी प्रकार दूर हो जाता है, जैसे सूर्य के उदय होने पर अन्धकार दूर हो जाता है । जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है । बुद्धिहीन को बल कहाँ से प्राप्त होगा, [बुद्धि के बल से] किसी खरगोश ने मदोन्मत्त सिंह को कुएँ में गिरा दिया था । वेद-शास्त्रों तथा पुराणों में बालक के लिये जो धर्मपालन बताया गया है, तुमने वह सब धर्मपालन किया है । तुमने जो सम्यक् कार्य किया, उसे कोई नहीं कर सकता । हम दोनों ने तुम्हारी बात मान ली, अब उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता है ॥ ५०-५४ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर वे दोनों बुद्धिसागर गणेश को आश्वस्तकर उनका विवाह करने के लिये उत्तम विचार करने लगे ॥ ५५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में गणेशविवाहोपक्रम नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥

 

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