शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 20
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
बीसवाँ अध्याय
प्रजापति विश्वरूप की सिद्धि तथा बुद्धि नामक दो कन्याओं के साथ गणेशजी का विवाह तथा उनसे ‘क्षेम’ तथा ‘लाभ’ नामक दो पुत्रों की उत्पत्ति, कुमार कार्तिकेय का पृथ्वी की परिक्रमाकर लौटना और क्षुब्ध होकर क्रौंचपर्वत पर चले जाना, कुमारखण्ड के श्रवण की महिमा

ब्रह्माजी बोले — इसी बीच विश्वरूप नामक प्रजापति शिवा-शिव के इस निश्चय को जानकर प्रसन्नचित्त हुए ॥ १ ॥ उन विश्वरूप प्रजापति की सिद्धि-बुद्धि नामक दो कन्याएँ थीं, जो सर्वांगसुन्दरी एवं दिव्य रूपवाली थीं ॥ २ ॥

गिरिजा एवं महेश्वर ने आनन्दपूर्वक उन दोनों के साथ गणेशजी का महोत्सवपूर्वक विवाह सम्पन्न कराया । सभी देवता प्रसन्न होकर उस विवाह में आये । जैसा पार्वती एवं शंकर का मनोरथ था, वैसे ही विश्वकर्मा ने [बड़ी प्रसन्नता के साथ] गणेश का विवाह किया । देवता तथा ऋषिगण अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ ३-५ ॥

शिवमहापुराण

हे मुने ! उस समय गणेश को भी उन दोनों से अति दुर्लभ सुख प्राप्त हुआ, उस सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता है । कुछ समय बीतने के बाद महात्मा गणेशजी को उन दोनों भार्याओं से दो दिव्य पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ६-७ ॥ गणेशजी की सिद्धि नामक पत्नी से ‘क्षेम’ नामक पुत्र हुआ तथा बुद्धि से ‘लाभ’ नामक परम सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ । इस प्रकार गणेशजी अचिन्त्य सुख का उपभोग करने लगे, इसके बाद शिवजी के दूसरे पुत्र [कार्तिकेय] पृथ्वी की परिक्रमाकर वहाँ आ गये ॥ ८-९ ॥

उसी समय महात्मा नारद उनके घर पहुँच गये और उन्होंने कहा — [हे कार्तिकेय!] मैं यथार्थ कह रहा हूँ, असत्य नहीं, न छल से अथवा न मत्सर से कह रहा हूँ ॥ १० ॥ तुम्हारे माता-पिता शिवा-शिव ने जो कार्य किया है, उसे इस लोक में कोई नहीं कर सकता । यह मैं सत्य-सत्य कह रहा हूँ । उन लोगों ने पृथ्वी की परिक्रमा का बहाना बनाकर तुम्हें घर के बाहर निकालकर गणेशजी का उत्तम तथा अत्यन्त शोभन विवाह कर दिया ॥ ११-१२ ॥

इस समय गणेशजी का विवाह हो गया है, उन्हें विश्वरूप प्रजापति की अत्यन्त मनोहर रत्नरूपा दो कन्याएँ स्त्री के रूप में प्राप्त हुई हैं । शुभ अंगोंवाली उन दोनों पत्नियों से उन्होंने दो पुत्र भी उत्पन्न किये हैं, सिद्धि से क्षेम तथा बुद्धि से लाभ नामक सर्वसुखप्रद पुत्र प्राप्त किये हैं ॥ १३-१४ ॥ इस प्रकार वे गणेश अपनी दोनों पत्नियों से दो पुत्र प्राप्तकर माता-पिता के मत में रहकर निरन्तर सुखोपभोग कर रहे हैं । छलपूर्वक दी गयी माता-पिता की आज्ञा से तुमने समुद्र-वनसहित पृथ्वी की परिक्रमा कर डाली । हे तात ! उसका यह फल तुम्हें प्राप्त हुआ ॥ १५-१६ ॥

हे तात ! तुम्हारे माता-पिता ने जो छल किया है, उसपर तुम विचार करो । जब अपने स्वामी ऐसा कर सकते हैं, तो दूसरा क्या नहीं कर सकता ॥ १७ ॥ तुम्हारे उन पिता-माता ने यह अनुचित कार्य किया है, तुम इसपर विचार करो, मेरे विचार से तो यह मत ठीक नहीं है ॥ १८ ॥ यदि माता ही विष दे दे, पिता बेच दे और राजा सर्वस्व हर ले तो फिर किससे क्या कहा जा सकता है ॥ १९ ॥ हे तात ! जिस किसी ने भी इस प्रकार का अनर्थकारी कार्य किया हो, उसका मुख शान्ति की इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान् पुरुष को नहीं देखना चाहिये ॥ २० ॥ यह नीति श्रुतियों, स्मृतियों तथा शास्त्रों में सर्वत्र कही गयी है । मैंने उसे तुमसे कह दिया, अब तुम जैसा चाहो, वैसा करो ॥ २१ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! महेश्वर के मन की गति जाननेवाले आपने उन कुमार से इस प्रकार का वचन कहकर मौन धारण कर लिया । तब कुमार स्कन्द भी माता-पिता को प्रणामकर क्रोधाग्नि से जलते हुए शिवा-शिव के मना करने पर भी क्रौंच पर्वत पर चले गये ॥ २२-२३ ॥

[माता-पिता ने कहा —] हे कार्तिकेय ! मना करने पर भी इस समय तुम क्यों जा रहे हो ? किंतु इस प्रकार रोके जाने पर ‘नहीं’ — ऐसा कहकर वे कुमार चलने लगे और बोले — ॥ २४ ॥

हे तात ! मैं अब यहाँ क्षणमात्र भी नहीं रह सकता; क्योंकि आपने मुझ पर प्रीति न कर ऐसा कपट किया है — इस प्रकार कहकर हे मुने ! दर्शनमात्र से ही सबका पाप हरनेवाले कुमार कार्तिकेय वहाँ चले गये और तभी से वे आज भी वहींपर हैं ॥ २५-२६ ॥ हे देवर्षे ! उसी दिन से लेकर वे शिवपुत्र कार्तिकेय कुमार ही रह गये । उनका यह नाम तीनों लोकों में प्रसिद्ध है, यह शुभदायक, सब पापों को नष्ट करनेवाला, पुण्यस्वरूप तथा ब्रह्मचर्य प्रदान करनेवाला है ॥ २७-२८ ॥

कार्तिक पूर्णिमा के दिन सभी देवता, ऋषि, मुनि तथा सभी तीर्थ कुमार के दर्शन के निमित्त जाते हैं ॥ २९ ॥ कृत्तिकानक्षत्रयुक्त कार्तिक पूर्णिमा तिथि में जो कुमार का दर्शन करता है, उसके पाप भस्म हो जाते हैं और उसे मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है ॥ ३० ॥

स्कन्द का वियोग होने पर पार्वतीजी भी दुःखित हुईं और उन्होंने दीन होकर शिवजी से कहा — हे प्रभो ! आप मेरे साथ वहाँ चलिये ॥ ३१ ॥

तब उनको सुखी करने के लिये शंकरजी स्वयं अपने अंश से [क्रौंच] पर्वत पर गये, वहाँ मल्लिकार्जुन नामक सुखदायक ज्योतिर्लिंग प्रतिष्ठित है ॥ ३२ ॥ अपने भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करनेवाले तथा सज्जनों को शरण देनेवाले शिवजी पार्वती के साथ आज भी वहाँ दिखायी पड़ते हैं ॥ ३३ ॥ तब पार्वतीसहित उन शिव को आया हुआ जानकर वे कुमार विरक्त होकर वहाँ से अन्यत्र जाने को उद्यत हो गये ॥ ३४ ॥ तब देवताओं तथा मुनियों के बहुत प्रार्थना करने पर भी वे कार्तिकेय उस स्थान से तीन योजन दूर हटकर निवास करने लगे ॥ ३५ ॥

हे नारद ! पुत्र के स्नेह से आतुर वे दोनों शिवाशिव कुमार के दर्शन के लिये पर्व-पर्व पर वहाँ जाते रहते हैं ॥ ३६ ॥ अमावास्या के दिन वहाँ शिवजी स्वयं जाते हैं एवं पूर्णमासी के दिन पार्वती निश्चित रूप से उनके स्थान पर जाती हैं ॥ ३७ ॥

हे मुनीश्वर ! आपने कार्तिकेय तथा गणेश्वर का जो-जो वृत्तान्त पूछा, मैंने वह श्रेष्ठ वृत्तान्त आपसे वर्णित किया ॥ ३८ ॥ इस कथा को सुनकर बुद्धिमान् मनुष्य समस्त पापों से छूट जाता है और अपनी सम्पूर्ण अभिलषित शुभ कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ॥ ३९ ॥ जो इस कथा को पढ़ता है अथवा पढ़ाता है, सुनता है अथवा सुनाता है, वह सभी मनोरथ प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ४० ॥

ब्राह्मण ब्रह्मवर्चस्वी तथा क्षत्रिय विजयी हो जाता है । वैश्य धन से सम्पन्न हो जाता है और शूद्र श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है ॥ ४१ ॥ रोगी रोग से मुक्त हो जाता है और भयभीत व्यक्ति भय से मुक्त हो जाता है । वह मनुष्य भूत-प्रेत आदि बाधाओं से पीड़ित नहीं होता है ॥ ४२ ॥ यह आख्यान पापरहित, यश तथा सुख को बढ़ानेवाला, आयु में वृद्धि करनेवाला, स्वर्ग की प्राप्ति करानेवाला, अतुलनीय तथा पुत्र-पौत्रादि प्रदान करनेवाला, मोक्षदायकशिवविषयक ज्ञान को देनेवाला, शिवाशिव का प्रीतिकारक तथा शिव की भक्ति को बढ़ानेवाला है ॥ ४३-४४ ॥

भक्तों को तथा निष्काम मुमुक्षुओं को शिवजी के अद्वैतज्ञान देनेवाले, कल्याणकारक तथा सदा शिवमय इस आख्यान का सर्वदा श्रवण करना चाहिये ॥ ४५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में गणेशविवाहवर्णन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥
॥ द्वितीय रुद्रसंहिता का चतुर्थ कुमारखण्ड पूर्ण हुआ ॥

 

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