September 17, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 01 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः पहला अध्याय तारकासुर के पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्ष की तपस्या से प्रसन्न ब्रह्मा द्वारा उन्हें वर की प्राप्ति, तीनों पुरों की शोभा का वर्णन नारदजी बोले — [हे ब्रह्मन्!] हमने गणेश तथा स्कन्द की सत्कथा से समन्वित गृहस्थ शिवजी के आनन्दप्रद उत्तम चरित्र का श्रवण किया । विहार करते हुए शिवजी ने जिस प्रकार दुष्टों का वध किया, अब आप उस श्रेष्ठ एवं उत्तम चरित्र का अत्यन्त प्रेमपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ १-२ ॥ पराक्रमशाली भगवान् शंकर ने एक ही बाण से एक साथ दैत्यों के तीनों पुरों को किस प्रकार जलाया ? ॥ ३ ॥ आप माया से निरन्तर विहार करनेवाले भगवान् शंकर के इस सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन कीजिये, जो देवताओं तथा ऋषियों को सुख देनेवाला है ॥ ४ ॥ शिवमहापुराण ब्रह्माजी बोले — हे ऋषिश्रेष्ठ ! पूर्वकाल में व्यासजी ने महर्षि सनत्कुमार से यही बात पूछी थी, तब सनत्कुमारजी ने उनसे जैसा कहा था, वही बात मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ ५ ॥ सनत्कुमार बोले — हे महाविद्वान् व्यासजी ! आप शंकर के उस चरित्र को सुनिये, जिस प्रकार विश्व का संहार करनेवाले उन शिव ने एक ही बाण से त्रिपुर को भस्म किया था । हे मुनीश्वर ! शिवजी के पुत्र कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर का वध कर दिये जाने पर उसके तीनों पुत्र दैत्य घोर तप करने लगे ॥ ६-७ ॥ उनमें तारकाक्ष ज्येष्ठ, विद्युन्माली मध्यम तथा कमलाक्ष कनिष्ठ था । वे सभी समान पराक्रमवाले, जितेन्द्रिय, महाबलवान्, कार्य में तत्पर, संयमी, सत्यवादी, दृढ़चित्त, महावीर एवं देवताओं के द्रोही थे ॥ ८-९ ॥ तीनों दैत्य सम्पूर्ण मनोहर भोगों को त्यागकर मेरु की गुफा में जाकर अत्यन्त अद्भुत तप करने लगे ॥ १० ॥ तारकासुर के वे तीनों पुत्र वसन्त-ऋतु में उत्सवसहित गीत-वाद्य की ध्वनि तथा समस्त कामनाएँ त्यागकर तप करने लगे ॥ ११ ॥ ग्रीष्म ऋतु में सूर्य के तेज को जीतकर अपने चारों ओर अग्नि जलाकर तथा उसके मध्य में स्थित होकर वे सिद्धि के लिये आदरपूर्वक हव्य की आहुति देने लगे ॥ १२ ॥ उस समय वे महान् गर्मी से सन्तप्त होकर मूर्च्छित हो जाते थे और वर्षाकाल में निर्भीक होकर सिर पर वृष्टि को सह लेते थे । शरत्काल में उत्पन्न हुए मनोहर, स्निग्ध, स्थिर, उत्तम फल-मूलादि पदार्थों का तथा उत्तम प्रकार के पेय-पदार्थों का भूखों के लिये दानकर स्वयं भूखे रह जाते थे, वे संयमपूर्वक भूख-प्यास को जीतकर पत्थर के समान हो गये थे ॥ १३-१५ ॥ वे महात्मा हेमन्त-ऋतु में पहाड़ों का आश्रय लेकर बड़ी धीरता के साथ स्थित हो, निराधार हो चारों दिशाओं में निवास करने लगे । तुषार से आच्छादित शरीरवाले वे सब निरन्तर जल से भीगे हुए रेशमी वस्त्र धारणकर शिशिर-ऋतु में जल के बीच में खड़े होकर विषादरहित होकर क्रमशः अपने तप को बढ़ाने लगे । इस प्रकार ब्रह्माजी को उद्देश्य करके उस [तारकासुर]-के वे तीनों श्रेष्ठ पुत्र तप कर रहे थे ॥ १६–१८ ॥ वे श्रेष्ठ दानव परम नियम में स्थित रहकर कठोर तप करके तपस्या के द्वारा अपने शरीर को सुखाने लगे ॥ १९ ॥ सौ वर्ष तक एक पैर के सहारे पृथ्वी पर खड़े होकर उन अति बलवान् दैत्यों ने तप किया । वे दारुण तथा दुरात्मा दैत्य हजार वर्षपर्यन्त वायु का भक्षणकर महान् कष्ट से युक्त हो तप करते रहे ॥ २०-२१ ॥ वे एक हजार वर्ष तक पृथ्वी पर सिर के बल खड़े रहे और सौ वर्ष तक दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर खड़े रहे । इस प्रकार दुराग्रह में तत्पर होकर उन्होंने बहुत क्लेश प्राप्त किया, वे दैत्य आलस्य को छोड़कर दिनरात तप करने लगे ॥ २२-२३ ॥ हे महामुने ! इस प्रकार धर्मपूर्वक तप करते हुए तथा ब्रह्माजी में मन लगाये हुए उन तारकपुत्रों का बहुत समय बीत गया, ऐसा मेरा विचार है । उसके बाद सुरासुर के महान् गुरु तथा महायशस्वी ब्रह्माजी उनके तप से सन्तुष्ट हो गये और उन्हें वर देने के लिये प्रकट हुए ॥ २४-२५ ॥ उस समय सभी प्राणियों के पितामह ब्रह्माजी मुनियों, देवगणों तथा असुरों के साथ वहाँ जाकर सान्त्वना देते हुए उन सभी से यह वचन कहने लगे — ॥ २६ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे महादैत्यो ! मैं तुमलोगों के तप से प्रसन्न हो गया हूँ । मैं तुमलोगों को सब कुछ दूंगा, जो तुमलोगों का अभीष्ट वर हो, उसे कहो ॥ २७ ॥ हे देवशत्रुओ ! मैं सबकी तपस्या का फलदाता और सर्वदा सबका रचयिता हूँ, अतः बताओ कि तुमलोगों ने अत्यन्त कठिन तप किस उद्देश्य से किया है ? ॥ २८ ॥ सनत्कुमार बोले — उनकी यह बात सुनकर उन सबने हाथ जोड़कर पितामह को प्रणाम करके फिर धीरे-धीरे अपने मन की बात कही ॥ २९ ॥ दैत्य बोले — हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं, तो हमें सब प्राणियों में सभी से अवध्यत्व प्रदान कीजिये ॥ ३० ॥ हे जगन्नाथ ! आप हमें स्थिर कर दें और हमें जरा, रोग एवं मृत्यु आदि कभी भी प्राप्त न हों । हम सभी अजर-अमर हो जायँ — ऐसा हमारा विचार है । हमलोग तीनों लोकों में अन्य सभी प्राणियों को मार सकें । पर्याप्त लक्ष्मी से, उत्तम पुरों से, अन्य विपुल भोगों से, स्थानों से अथवा ऐश्वर्य से हमें क्या प्रयोजन ! हे ब्रह्मन् ! यदि पाँच ही दिनों में प्राणी मृत्यु के द्वारा ग्रसित हो जाता है — यह निश्चित ही है, तब तो उसका सब कुछ व्यर्थ हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ३१-३४ ॥ सनत्कुमार बोले — उन तपस्वी दैत्यों की यह बात सुनकर ब्रह्मा ने गिरि पर शयन करनेवाले अपने स्वामी भगवान् शंकर का स्मरण करके कहा — ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे असुरो ! पूर्ण अमरत्व किसी को नहीं मिल सकता, इसलिये इस वर का आग्रह मत करो और अन्य वर माँग लो, जो तुमलोगों को अच्छा लगे ॥ ३६ ॥ हे असुरो ! इस भूतल पर जहाँ भी जो कोई भी प्राणी जनमा है, वह अवश्य मरेगा, काल के भी काल भगवान् शंकर तथा श्रीहरि के अतिरिक्त इस जगत् में कोई भी प्राणी अजर-अमर नहीं हो सकता; क्योंकि वे दोनों धर्म, अधर्म से परे हैं तथा व्यक्त और अव्यक्त हैं ॥ ३७-३८ ॥ यदि जगत् को पीड़ा पहुँचाने के लिये तप किया जाय, तो उसका फल नष्ट समझना चाहिये । अतः उत्तम उद्देश्य के लिये किया गया तप सफल होता है ॥ ३९ ॥ हे अनघ ! तुमलोग स्वयं अपनी बुद्धि से विचार करके जिस मृत्यु का अतिक्रमण दुर्लभ एवं दुःसाध्य है और देवता तथा असुर भी ऐसा नहीं कर सके, ऐसी मृत्यु के अतिरिक्त अन्य वर माँगो । तुमलोग सत्त्वगुण का आश्रय लेकर अपने मरण का हेतुभूत कोई वर माँगो तथा उस हेतु से अपनी-अपनी रक्षा का उपाय अलग-अलग रूप से करो, जिससे तुम्हारी मृत्यु न हो ॥ ४०-४१ ॥ सनत्कुमार बोले — ब्रह्मा का वचन सुनकर वे एक मुहूर्त तक ध्यान में स्थित रहे, इसके बाद विचारकर लोकपितामह ब्रह्मा से कहने लगे — ॥ ४२ ॥ दैत्य बोले — हे भगवन् ! हमलोग यद्यपि पराक्रमशील हैं, किंतु हमारे पास कोई ऐसा स्थान नहीं है, जिसमें शत्रु प्रवेश न कर सके और वहाँ हम सुख से निवास कर सकें । अतः आप ऐसे तीन नगरों का निर्माण कराकर हमें प्रदान कीजिये, जो परम अद्भुत, सभी सम्पत्तियों से परिपूर्ण और देवताओं के लिये सर्वथा अनतिक्रमणीय हों ॥ ४३-४४ ॥ हे लोकेश ! हे जगद्गुरो ! इस प्रकार हमलोग आपकी कृपा से इन तीनों पुरों में स्थित होकर इस पृथ्वी पर विचरण करेंगे । तत्पश्चात् तारकाक्ष बोला — जो देवगणों से भी अभेद्य हो, इस प्रकार का मेरा सुवर्णमय पुर विश्वकर्मा बनायें । कमलाक्ष ने चाँदी के अति विशाल पुर की तथा विद्युन्माली ने प्रसन्न होकर वज्र के समान लोहे के पुर की याचना की ॥ ४५-४७ ॥ हे ब्रह्मन् ! जब मध्याह्नकाल में अभिजित् मुहूर्त हो, चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र पर हो और आकाश में नीले बादलों पर स्थित होकर ये तीनों पुर क्रमश: एक के ऊपर एक रहते हुए लोगों की दृष्टि से ओझल रहें । फिर जब पुष्कर और आवर्त नामक कालमेघ वर्षा कर रहे हों, उस समय एक हजार वर्ष के उपरान्त हमलोग परस्पर मिलेंगे और ये तीनों पुर भी उसी समय एक स्थान पर स्थित हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं है । हमलोगों द्वारा धर्म का अतिक्रमण हो जाने पर कोई देवता, जिसमें सभी देवों का निवास हो, वह सम्पूर्ण युद्धसामग्री से युक्त होकर असम्भव रथ पर बैठकर एक ही असम्भाव्य बाण से हमारे नगरों का भेदन करे । शिवजी तो किसी से द्वेष नहीं करते । वे सदा हमलोगों के वन्द्य, पूज्य तथा अभिवादन के योग्य हैं, तो फिर वे हमलोगों के पुरों को कैसे जला सकते हैं, वैसा कोई दूसरा पृथ्वी पर दुर्लभ है — उन दैत्यों ने अपने मन में यही विचारकर ऐसा वर माँगा ॥ ४८-५३ ॥ सनत्कुमार बोले — [हे व्यासजी!] उनका यह वचन सुनकर सृष्टि करनेवाले लोकपितामह ब्रह्मा ने शिवजी का स्मरण करते हुए उनसे कहा — ऐसा ही होगा ॥ ५४ ॥ उसके बाद उन्होंने मय को आज्ञा दी कि हे मय ! तुम सोने, चाँदी और लोहे के तीन नगरों का निर्माण कर दो । उनके समक्ष मय को यह आज्ञा प्रदानकर ब्रह्माजी उन तारकपुत्रों के देखते-देखते अपने धाम स्वर्गलोक को चले गये ॥ ५५-५६ ॥ तदनन्तर धैर्यशाली मय ने बड़े प्रयत्न के साथ तारकाक्ष के लिये सोने का, कमलाक्ष के लिये चाँदी का तथा विद्युन्माली के लिये लोहे का पुर बनाया और तीन प्रकार का दुर्ग भी बनाया, उन्हें क्रम से स्वर्ग में, आकाश में तथा भूलोक में जानना चाहिये । उन असुरों को तीनों पुर देकर मय ने स्वयं भी उनके हित की इच्छा से उस पुरी में प्रवेश किया ॥ ५७–५९ ॥ इस प्रकार तीनों पुरों को प्राप्तकर महाबली तथा पराक्रमशाली वे तारकासुर के पुत्र उनमें प्रविष्ट हुए और सभी प्रकार के सुखों का भोग करने लगे ॥ ६० ॥ कल्पवृक्षों से व्याप्त, हाथी-घोड़ों से युक्त, नाना प्रकार की अट्टालिकाओं तथा मणियों से परिपूर्ण वे नगर सूर्यमण्डल के समान देदीप्यमान, चारों ओर मुखवाले, चन्द्रमा के समान तथा पद्मराग मणियों से जटित विमानों से शोभित थे ॥ ६१-६२ ॥ उन पुरों में कैलास पर्वत के शिखर के समान ऊँचे-ऊँचे मनोहर महल तथा गोपुर बने हुए थे । दिव्य देवांगनाओं, गन्धर्वो, सिद्धों तथा चारणों से वह पुर पूर्ण रूप से भरा हआ था । उनमें प्रत्येक घर में शिवालय तथा अग्निहोत्रकुण्ड बने हुए थे । शास्त्रवेत्ता एवं शिवभक्त ब्राह्मण उन पुरों में सदा निवास करते थे ॥ ६३-६४ ॥ बावली, कुएँ, तालाब, छोटे सरोवर और स्वर्गीय गुणोंवाले उद्यान एवं वन्य वृक्षों, कमलयुक्त नदियों और बड़ी-बड़ी सरिताओं से वे पुर शोभित हो रहे थे । सभी ऋतुओं में फल-फूल देनेवाले अनेक प्रकार के वृक्षों से वे पुर मनोहर प्रतीत हो रहे थे ॥ ६५-६६ ॥ वे झुण्ड-के-झुण्ड मदमत्त हाथियों, सुन्दर-सुन्दर घोड़ों, विविध आकारवाले रथों एवं शिविकाओं से अलंकृत थे । उनमें समयानुसार अलग-अलग क्रीडास्थल बने हुए थे और वेदाध्ययन की विविध पाठशालाएँ भी पृथक्-पृथक् बनी हुई थीं ॥ ६७-६८ ॥ पापीजन तो मन एवं वाणी के द्वारा उन नगरों की ओर देख भी नहीं सकते थे; शुभ आचरण करनेवाले पुण्यशाली महात्मा ही उन्हें देख सकते थे ॥ ६९ ॥ वहाँ का उत्तम स्थल सर्वत्र अधर्म से रहित तथा पतिसेवापरायण पतिव्रताओं के द्वारा पवित्र कर दिया गया था । उनमें महाभाग्यवान् बलवान् दैत्य अपनी स्त्रियों, पुत्रों और श्रुति-स्मृति के रहस्य को जाननेवाले तथा अपने धर्म में निरत ब्राह्मणों के साथ निवास करते थे ॥ ७०-७१ ॥ वे पुर चौड़ी छातीवाले, ऊँचे कंधोंवाले, साम एवं विग्रह के ज्ञाता, समय-समय पर शान्ति तथा कोप करनेवाले, कुबड़े तथा बौने, नीले कमल के समान काले-काले घुघराले बालवाले, मय के द्वारा रक्षित तथा शिक्षित किये गये और युद्ध की अभिलाषा रखनेवाले योद्धाओं से परिपूर्ण थे । बड़े-बड़े युद्धों में निरत रहनेवाले, ब्रह्मा तथा सदाशिव के पूजन के प्रभाव से विशुद्ध पराक्रमवाले, सूर्य-वायु-इन्द्र के सदृश देवगणों का मर्दन करनेवाले तथा अत्यन्त शक्तिशाली वीर उन पुरों में निवास करते थे ॥ ७२-७४ ॥ वेदों, शास्त्रों और पुराणों में जिन-जिन धर्मों का वर्णन किया गया है, वे सभी धर्म तथा शिवजी के प्रिय देवता वहाँ चारों ओर व्याप्त थे । इस प्रकार वर प्राप्त किये हुए वे तारकपुत्र दैत्य शिवभक्त मयदानव का आश्रय लेकर वहाँ निवास करने लगे । उन नगरों में प्रवेश करके वे सदा शिवभक्तिनिरत होकर सम्पूर्ण त्रिलोकी को बाधित करके विशाल राज्य का उपभोग करने लगे ॥ ७५-७७ ॥ हे मुने ! इस प्रकार अपने इच्छानुसार सुखपूर्वक उत्तम राज्य करते हुए उन पुण्यकर्मा राक्षसों का वहाँ निवास करते हुए बहुत लम्बा काल व्यतीत हो गया ॥ ७८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में त्रिपुरवधोपाख्यान में त्रिपुरवर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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