September 17, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 04 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः चौथा अध्याय त्रिपुरवासी दैत्यों को मोहित करने के लिये भगवान् विष्णु द्वारा एक मुनिरूप पुरुष की उत्पत्ति, उसकी सहायता के लिये नारदजी का त्रिपुर में गमन, त्रिपुराधिप का दीक्षा ग्रहण करना सनत्कुमार बोले — उन महातेजस्वी विष्णु ने उनके धर्म में विघ्न उत्पन्न करने के लिये अपने ही शरीर द्वारा एक मायामय मुनिरूप पुरुष को उत्पन्न किया ॥ १ ॥ वह अपना सिर मुड़ाये हुए, मलिन वस्त्र धारण किये हुए, हाथ में एक गुम्फि (काष्ठ)-का पात्र लिये हुए, दूसरे हाथ में झाड़ लिये तथा उससे पग-पग पर बुहारी करता हुआ, हस्तपरिमाण का वस्त्र अपने मुख पर लपेटे हुए विकल वाणी से धर्म-धर्म इस प्रकार कह रहा था ॥ २-३ ॥ शिवमहापुराण वह उन विष्णु को प्रणामकर उनके आगे स्थित हो गया, इसके बाद उसने हाथ जोड़कर पूज्य, अच्युत विष्णु से यह वचन कहा — हे अरिहन् ! [शत्रुनाशक] मैं क्या करूँ ? इसके लिये आज्ञा दीजिये । हे देव ! मेरे क्या-क्या नाम होंगे ? हे प्रभो ! मेरे स्थान का भी निर्देश कीजिये । इस प्रकार उसका यह शुभ वचन सुनकर भगवान् विष्णु प्रसन्नचित्त होकर यह वचन कहने लगे — ॥ ४-६ ॥ विष्णुजी बोले — मेरे शरीर से उत्पन्न हे महाप्राज्ञ ! मैंने जिसके लिये तुम्हारा निर्माण किया है, उसे सुनो, मैं कह रहा हूँ । तुम मेरे ही रूप हो, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७ ॥ मेरे शरीर से उत्पन्न हुए तुम मेरा कार्य करने में समर्थ हो । तुम मुझसे अभिन्न हो, इसलिये [लोक में] सदा पूज्य होओगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ८ ॥ तुम्हारा नाम अरिहन् होगा, तुम्हारे अन्य भी शुभ नाम होंगे । मैं तुम्हारे स्थान को बाद में बताऊँगा, इस समय मेरा प्रस्तुत कार्य आदर से सुनो ॥ ९ ॥ हे मायावी ! तुम सोलह हजार श्लोकोंवाला एक शास्त्र प्रयत्नपूर्वक बनाओ, जो मायामय, श्रुति-स्मृति से विरुद्ध, वर्णाश्रमधर्म से रहित, अपभ्रंश शब्दों से युक्त और कर्मवाद पर आधारित हो, आगे चलकर उसका विस्तार होगा । मैं तुम्हें उस शास्त्र के निर्माण का सामर्थ्य देता हूँ । अनेक प्रकार की माया भी तुम्हारे अधीन हो जायगी ॥ १०-१२ ॥ उन परमात्मा श्रीविष्णु का वचन सुनकर वह मायावी प्रणामकर जनार्दन से कहने लगा — ॥ १३ ॥ मुण्डी बोला — हे देव ! मुझे जो करना हो, उसे शीघ्र बताइये । हे प्रभो ! आपकी आज्ञा से सारा कार्य सिद्ध होगा ॥ १४ ॥ सनत्कुमार बोले — मुण्डी के द्वारा ऐसा कहे जाने पर भगवान् ने उसे मायामय शास्त्र पढ़ाया और बताया कि स्वर्ग-नरक की प्रतीति यहीं पर है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १५ ॥ उसके बाद विष्णु ने शिवजी के चरणकमल का स्मरण करके उससे पुनः कहा कि तुम त्रिपुर में रहनेवाले इन समस्त दैत्यों को मोहित करो । तुम उन्हें दीक्षित करो और प्रयत्नपूर्वक इस शास्त्र को पढ़ाओ । हे महामते ! मेरी आज्ञा के कारण तुम्हें [ऐसा करने से] दोष नहीं लगेगा । हे यते ! इसमें सन्देह नहीं कि वहाँ श्रौत-स्मार्त धर्म प्रकाश कर रहे हैं, किंतु तुम इस विद्या के द्वारा उन सभी को धर्म से च्युत करो ॥ १६–१८ ॥ हे मुण्डिन् ! अब तुम उन त्रिपुरवासियों के विनाश के लिये जाओ और तमोगुणी धर्म को प्रकाशितकर तीनों पुरों का नाश करो । हे विभो ! उसके बाद वहाँ से मरुस्थल में जाकर कलियुग के आने तक वहीं अपने धर्म के साथ निवास करना और उस युग के आ जाने पर तुम शिष्य-प्रशिष्यों के साथ अपने धर्म का प्रचार करना और उसीका व्यवहार करना ॥ १९-२१ ॥ मेरी आज्ञा से तुम्हारे इस धर्म का निश्चित रूप से विस्तार होगा तथा मेरी आज्ञा में तत्पर होकर तुम मेरी गति प्राप्त करोगे । इस प्रकार देवाधिदेव शंकर की आज्ञा से सर्वसमर्थ विष्णु ने उसे हृदय से आदेश दिया, इसके बाद विष्णुजी अन्तर्धान हो गये ॥ २२-२३ ॥ उसके बाद उस मुण्डी ने विष्णु की आज्ञा का पालन करते हुए उस समय अपने रूप के अनुसार चार शिष्यों का निर्माण किया और उन्हें स्वयं मायामय शास्त्र पढ़ाया ॥ २४ ॥ जैसा वह स्वयं था, उसी प्रकार के वे चारों शुभ मुण्डी भी थे, वे परमात्मा श्रीविष्णु को नमस्कार कर वहीं पर स्थित हो गये । हे मुने ! तब शिव की आज्ञा का पालन करनेवाले श्रीविष्णु ने भी परम प्रसन्न होकर उन चारों शिष्यों से स्वयं कहा — जैसे तुमलोगों के गुरु हैं, वैसे ही मेरी आज्ञा से तुमलोग भी बनो । तुमलोग धन्य हो और इस लोक में सद्गति प्राप्त करोगे, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २५–२७ ॥ इसके बाद वे चारों मुण्डी हाथ में पात्र लिये, नासिका पर वस्त्र बाँधे, मलिन वस्त्र धारण किये हुए, अत्यधिक न बोलते हुए ‘धर्म ही लाभ तथा परम तत्त्व है’ ऐसा अति हर्षपूर्वक कहते हुए, वस्त्र के छोटे-छोटे टुकड़ों से बनी हुई मार्जनी धारण किये हुए और जीवहिंसा के भय से धीरे-धीरे चलते हुए विचरण करने लगे । हे मुने ! तब वे सभी प्रसन्न होकर देवाधिदेव श्रीविष्णु को नमस्कारकर उनके आगे स्थित हो गये ॥ २८-३१ ॥ उसके अनन्तर भगवान् विष्णु ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें गुरु को अर्पित कर दिया और अत्यन्त प्रेम के साथ विशेषरूप से उनके नामों को बताया और कहा — जैसे तुम मेरे हो, उसी प्रकार ये भी मेरे हैं, इसमें संशय नहीं है । तुम्हारा आदिरूप है, इसलिये आदिरूप यह नाम होगा और पूज्य होने से तुम पूज्य भी कहे जाओगे ॥ ३२-३३ ॥ ऋषि, यति, कीर्य एवं उपाध्याय — ये नाम भी तुमलोगों के प्रसिद्ध होंगे । तुमलोगों को मेरे भी शुभ नाम को ग्रहण करना चाहिये । अरिहन् — यह मेरा नाम ध्यानयोग्य तथा पापनाशक है । अब आपलोगों को लोककल्याणकारी कार्य करते रहना चाहिये । लोक के अनुकूल आचरण करते हुए तुमलोगों की उत्तम गति होगी ॥ ३४-३६ ॥ सनत्कुमार बोले — इसके बाद विष्णु को प्रणाम करके वह मायावी अपने शिष्यों के साथ प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र ही शिव की इच्छा के अनुसार कार्य करनेवाले त्रिपुर के पास गया । महामायावी विष्णु द्वारा प्रेरित वह जितेन्द्रिय ऋषि त्रिपुर में शीघ्र प्रविष्ट होकर मायाचार करने लगा । उसने शिष्यों के सहित नगर के उपवन में निवासकर बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित करनेवाली माया फैलायी ॥ ३७–३९ ॥ हे मुने ! जब शिवजी के अर्चन के प्रभाव के कारण उसकी माया त्रिपुर में सहसा न चल सकी, तो यति व्याकुल हो उठा । इसके बाद उत्साहहीन तथा चेतनारहित उसने दुखी मन से विष्णु का स्मरण किया और हृदय से उनकी स्तुति की । उसके द्वारा स्मरण किये गये विष्णुजी ने हृदय में शंकरजी का ध्यान किया और उनकी आज्ञा प्राप्तकर शीघ्र ही मन से नारदजी का स्मरण किया ॥ ४०-४२ ॥ विष्णुजी के स्मरण करते ही नारदजी उपस्थित हुए और उन्हें प्रणामकर तथा उनकी स्तुति कर हाथ जोड़े हुए वे उनके आगे खड़े हो गये । तब बुद्धिमानों में श्रेष्ठ विष्णुजी ने नारदजी से कहा — आप तो सर्वदा लोकोपकार में निरत तथा देवताओं का कार्य करनेवाले हैं । हे तात ! मैं शिवजी की आज्ञा से कहता हूँ कि आप शीघ्र ही त्रिपुर में जायँ, उस पुर के निवासियों को मोहित करने के लिये एक ऋषि अपने शिष्यों के साथ वहाँ गये हैं ॥ ४३-४५ ॥ सनत्कुमार बोले — उनका यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी बड़ी शीघ्रता से वहाँ गये, जहाँ मायावियों में श्रेष्ठ वह ऋषि था । नारदजी भी बड़े मायावी थे, उन्होंने मायावी प्रभु [विष्णु]-की आज्ञा से उस पुर में प्रवेशकर उस मायावी से दीक्षा ग्रहण कर ली । उसके बाद नारदजी ने त्रिपुराधिपति के पास जाकर उसका कुशल-मंगल आदि पूछकर राजा से सारा वृत्तान्त कहा ॥ ४६-४८ ॥ नारदजी बोले — [हे राजन् !] धर्मपरायण सभी विद्याओं में पारंगत और वेदविद्या में प्रवीण कोई यति आपके नगर में आया है । हमने बहुत धर्म देखे हैं, परंतु इसके समान नहीं । इसके सनातनधर्म को देखकर हमने इससे दीक्षा ले ली है । अतः हे दैत्यसत्तम ! हे महाराज ! यदि आपकी भी इच्छा उस धर्म में हो, तो आप भी उस धर्म की दीक्षा ग्रहण कर लें ॥ ४९-५१ ॥ सनत्कुमार बोले — नारदजी का विशद अर्थगर्भित वचन सुनकर वह दैत्याधिपति बड़ा विस्मित हो उठा और मोहित होकर मन में कहने लगा कि जब नारदजी ने स्वयं दीक्षा ली है, तो हम भी उससे दीक्षा ग्रहण कर लें — ऐसा सोचकर वह स्वयं वहाँ गया ॥ ५२-५३ ॥ उसके स्वरूप को देखकर उसकी माया से मोहित दैत्य ने उस महात्मा को नमस्कार करके यह वचन कहा — ॥ ५४ ॥ त्रिपुराधिप बोला — पवित्र अन्तःकरणवाले हे ऋषे ! आप मुझे भी दीक्षा दीजिये, मैं आपका शिष्य बनूँगा, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ५५ ॥ दैत्यराज के इस निर्मल वचन को सुनकर उस सनातन ऋषि ने प्रयत्न के साथ कहा — हे दैत्यसत्तम ! यदि तुम मेरी आज्ञा का सर्वथा पालन करोगे, तभी मैं दीक्षा दे सकता हूँ, अन्यथा करोड़ों यत्न करने पर भी दीक्षा नहीं दूंगा । इस प्रकार यह वचन सुनकर राजा माया के अधीन हो गया और हाथ जोड़कर बड़ी शीघ्रता से यति से यह वचन कहने लगा — ॥ ५६-५८ ॥ दैत्यराज बोला — आप जैसी आज्ञा देंगे, मैं वैसा ही करूँगा । उसके विपरीत नहीं करूँगा, मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूँगा, यह सत्य है-सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ५९ ॥ सनत्कुमार बोले — त्रिपुराधिपति का यह वचन सुनकर उस ऋषिश्रेष्ठ ने अपने मुख से वस्त्र हटाकर उससे कहा — हे दैत्येन्द्र ! आप सभी धर्मों में परम उत्तम इस दीक्षा को ग्रहण कीजिये, जिस दीक्षा के विधान से तुम कृतार्थ हो जाओगे ॥ ६०-६१ ॥ [सनत्कुमार बोले-] ऐसा कहकर उस मायावी ने विधि-विधान के साथ अपने धर्म में बतायी गयी दीक्षा उस दैत्यराज को शीघ्र ही प्रदान की । हे मुने ! अपने सहोदरों के सहित उस दैत्यराज के दीक्षित हो जानेपर सभी त्रिपुरवासी भी उस धर्म में दीक्षित हो गये ॥ ६२-६३ ॥ हे मुने ! उस समय महामायावी उस ऋषि के शिष्यों तथा प्रशिष्यों से वह सम्पूर्ण त्रिपुर शीघ्र ही व्याप्त हो गया ॥ ६४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में सनत्कुमारपाराशर्यसंवाद में त्रिपुरदीक्षाविधानवर्णन नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ Related