शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 05
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पाँचवाँ अध्याय
मायावी यति द्वारा अपने धर्म का उपदेश, त्रिपुरवासियों का उसे स्वीकार करना, वेदधर्म के नष्ट हो जाने से त्रिपुर में अधर्माचरण की प्रवृत्ति

व्यासजी बोले — उस मायावी के द्वारा मोहित दैत्यराज के दीक्षित हो जाने पर उस मायावी ने क्या कहा और दैत्यराज ने क्या किया ? ॥ १ ॥

सनत्कुमार बोले — उसे दीक्षा देकर नारदादि शिष्यों के द्वारा सेवित चरणकमलोंवाले अरिहन् यति ने दैत्यराज से कहा — ॥ २ ॥

शिवमहापुराण

अरिहन् बोले — हे दैत्यराज ! मेरे वचन को सुनो, जो वेदान्त का सार-सर्वस्व, परमोत्तम तथा रहस्यमय है । यह संसार कर्ता तथा कर्म से रहित और अनादिकाल से स्वयंसिद्ध है । यह स्वयं उत्पन्न होता है तथा स्वयं विनष्ट भी हो जाता है । ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जितने भी शरीरधारी हैं, उनका एक आत्मा ही ईश्वर है, कोई दूसरा उनका शासक नहीं है । जिस प्रकार हम शरीरधारियों के नाम हैं, उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश आदि — ये नाम उन नामधारियों के हैं, अनादि तो एक अरिहन् ही है ॥ ३-६ ॥

जिस प्रकार हमलोगों का शरीर समय आने पर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मा से लेकर मच्छर तक का शरीर अपने समय से नष्ट हो जाया करता है ॥ ७ ॥ विचार करने पर ज्ञात होता है कि शरीर में कहीं भी कोई विशेषता नहीं है; क्योंकि सभी जीवधारियों में आहार, मैथुन, निद्रा तथा भय समान हैं ॥ ८ ॥ सभी शरीरधारी निराहार रहने के उपरान्त भोजन प्राप्त करने पर समान रूप से तृप्त होते हैं, कम या अधिक नहीं । जैसे जब हम प्यासे होते हैं, तब प्रसन्नतापूर्वक जल पीकर तृप्त होते हैं, उसी प्रकार अन्य प्राणी भी तृप्त होते हैं, किसी में न्यूनाधिक्य नहीं होता । रूप-लावण्य से युक्त चाहे सहस्रों स्त्रियाँ क्यों न हों, किंतु सहवासकाल में एक ही स्त्री का उपभोग सम्भव है ॥ ९-११ ॥

अनेक प्रकार के घोड़े चाहे सौ हों, चाहे हजार हों, किंतु अपने अधिरोहण के समय एक का ही उपयोग सम्भव है, दूसरे का नहीं । निद्राकाल में पलंग पर सोनेवाले को जो सुख प्राप्त होता है, वही सुख निद्रा से व्याकुल हो पृथ्वी पर सोनेवाले को भी प्राप्त होता है । जैसे हम शरीरधारियों को मरने का भय है, उसी प्रकार ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त सभी को मृत्यु से भय होता है ॥ १२–१४ ॥

यदि बुद्धि से विचार किया जाय, तो सभी शरीरधारी समान हैं — ऐसा निश्चय करके किसी को भी कभी किसी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिये । पृथ्वीतल पर जीवों पर दया करने के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है, अतः ऐसा जानकर सभी प्रकार के प्रयत्नों द्वारा मनुष्यों को जीवों पर दया करनी चाहिये । एक जीव की भी रक्षा करने से जैसे तीनों लोकों की रक्षा हो जाती है, उसी प्रकार एक जीव के मारने से त्रैलोक्यवध का पाप लगता है, इसलिये जीवों की रक्षा करनी चाहिये, हिंसा नहीं । अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है तथा आत्मा को पीड़ा पहुँचाना पाप है, दूसरों के अधीन न रहना ही मुक्ति है और अभिलषित भोजन की प्राप्ति ही स्वर्ग है । प्राचीन विद्वानों ने उत्तम प्रमाण के साथ ऐसा कहा है, इसलिये नरक से डरनेवाले मनुष्यों को हिंसा नहीं करनी चाहिये । इस चराचर जगत् में हिंसा के समान कोई पाप नहीं है । हिंसक नरक में जाता है तथा अहिंसक स्वर्ग को जाता है ॥ १५-२० ॥

संसार में अनेक प्रकार के दान हैं, परंतु तुच्छ फल देनेवाले उन दानों से क्या लाभ ? अभयदान के सदृश कोई दूसरा दान नहीं है । मनीषियों ने अनेक शास्त्रों का विचारकर इस लोक तथा परलोक में कल्याण के लिये चार दानों का वर्णन किया है ॥ २१-२२ ॥ भयभीत लोगों को अभय प्रदान करना चाहिये, रोगियों को औषधि देनी चाहिये, विद्यार्थियों को विद्या देनी चाहिये तथा भूखों को अन्न प्रदान करना चाहिये । अनेक मुनियों ने जो-जो दान कहे हैं, वे अभयदान की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते ॥ २३-२४ ॥

मणि, मन्त्र एवं औषधि के प्रभाव तथा बल को अविचिन्त्य समझकर केवल यश तथा अर्थ के उपार्जन के लिये ही उसका प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना चाहिये ॥ २५ ॥ बहुत धन उपार्जितकर द्वादशायतनों का ही चारों ओर से पूजन करना चाहिये, दूसरों के पूजन से क्या लाभ ? पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन एवं बुद्धि — यही शुभ द्वादशायतन कहा गया है ॥ २६-२७ ॥

प्राणियों के लिये यहीं पर स्वर्ग तथा नरक है, अन्यत्र कहीं नहीं । सुख का ही नाम स्वर्ग है तथा दुःख को नरक कहा गया है । सुखों का भोग कर लेनेपर जो इस देह का परित्याग होता है, तत्त्वचिन्तकों को इसे ही परम मोक्ष जानना चाहिये । वासनासहित समस्त क्लेशों के नष्ट हो जाने पर अज्ञान के नाश को तत्त्वचिन्तकों को मोक्ष जानना चाहिये ॥ २८-३० ॥

वेदवेत्ता इस श्रुति को प्रामाणिक कहते हैं कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । हिंसा में प्रवर्तन करनेवाली अन्य कोई श्रुति उपलब्ध नहीं है । अग्निष्टोमादि यज्ञों से सम्बद्ध जो पश्वालम्भन-श्रुति है, वह तो भ्रम उत्पन्न करनेवाली है और असजनों के लिये है । पशुवध से सम्बन्धित श्रुति तो ज्ञानियों के लिये प्रमाण नहीं है । यह तो बड़े आश्चर्य की बात है कि वृक्षों को काटकर, पशुओं का वधकर, उनके रुधिर का कीच बनाकर तथा आग में तिल-घी आदि को जलाकर लोग स्वर्ग की अभिलाषा करते हैं ॥ ३१-३३ ॥

इस प्रकार उस त्रिपुराधिपति से अपना विचार कहकर समस्त त्रिपुरवासियों को सुनाकर वह यति आदर से वेदों के विपरीत, देहमात्र को सुख देनेवाले और प्रत्यक्ष पर ही विश्वास करनेवाले धर्मों का पुनः वर्णन करने लगा — ॥ ३४-३५ ॥

श्रुति जो ऐसा कहती है कि आनन्द ही ब्रह्म का रूप है, उसे सही मानना चाहिये, अनेक धर्मों की कल्पना मिथ्या है । जबतक यह शरीर स्वस्थ है, जबतक इन्द्रियाँ निर्बल नहीं होती और जबतक वृद्धावस्था दूर है, तबतक सुख का उपभोग करते रहना चाहिये ॥ ३६-३७ ॥ अस्वस्थ हो जाने पर, इन्द्रियों के विकल हो जाने पर एवं वृद्धावस्था आ जाने पर सुख की प्राप्ति किस प्रकार से हो सकती है ? इसलिये सुख चाहनेवालों को अपना शरीर भी याचना करनेवालों को प्रदान कर देना चाहिये ॥ ३८ ॥

जिसका जन्म माँगनेवालों की मनोवृत्ति को प्रसन्न करने के लिये नहीं हुआ, उसी से यह पृथ्वी भारयुक्त है, समुद्रों, पर्वतों तथा वृक्षों से नहीं ॥ ३९ ॥ यह शरीर शीघ्र ही नष्ट होनेवाला है तथा संचित धन विनष्ट हो जानेवाले हैं — ऐसा जानकर ज्ञानवान् को देहसुख का उपाय करते रहना चाहिये ॥ ४० ॥ यह शरीर कुत्तों, कौवों तथा कीटों का प्रातःकालीन भोजन है और शरीर अन्त में भस्म होनेवाला है — ऐसा वेद में ठीक ही कहा गया है । लोकों में जाति-कल्पना व्यर्थ ही की गयी है, सभी मनुष्य समान हैं तो कौन उच्च है और कौन नीच है ! ॥ ४१-४२ ॥

प्राचीन पुरुष कहते हैं कि इस सृष्टि के आदि में ब्रह्मा उत्पन्न हुए, उनके विख्यात दक्ष तथा मरीचि दो पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ४३ ॥ जब मरीचिपुत्र कश्यप ने दक्ष की सुन्दर नेत्रवाली तेरह कन्याओं से धर्मपूर्वक विवाह किया तो फिर इस समय के अल्पबुद्धि तथा अल्प पराक्रमवाले लोगों के द्वारा यह गम्य है, यह अगम्य है — ऐसा विचार व्यर्थ ही किया जाता है । मुख, बाहु, जंघा एवं चरण से चारों वर्ण उत्पन्न हुए हैं — पूर्व पुरुषों ने यह कल्पना की है, जो कि विचार करने पर ठीक नहीं लगती है ॥ ४४-४६ ॥

एक ही पुरुष से एक ही शरीर से यदि चार पुत्र उत्पन्न हुए तो वे भिन्न-भिन्न वर्गों के किस प्रकार हो सकते हैं । अतः वर्ण एवं अवर्ण का यह विभाग उचित नहीं प्रतीत होता है और इसलिये किसी को भी मनुष्य में कोई भेद नहीं मानना चाहिये ॥ ४७-४८ ॥

सनत्कुमार बोले — हे मुने ! दैत्यपति तथा पुरवासियों से आदरपूर्वक ऐसा कहकर शिष्योंसहित उस यति ने वेदधर्मों का नाश कर दिया । पातिव्रत्यरूपी महान् स्त्रीधर्म को तथा समस्त पुरुषों के जितेन्द्रियत्वधर्म को खण्डित कर दिया । देवधर्म, श्राद्धधर्म, यज्ञधर्म, व्रततीर्थ विशेषरूप से श्राद्ध, शिवपूजा, लिंगार्चन, विष्णु-सूर्य-गणेश आदि का विधिपूर्वक पूजन और विशेष रूप से पर्वकाल में किये जानेवाले स्नान-दान आदि इन सबका खण्डन किया । हे विप्रेन्द्र ! बहुत कहने से क्या लाभ ! मायावियों में श्रेष्ठ उस मायावी यति ने त्रिपुर में जो कुछ भी धर्म थे, उन सबको दूर कर दिया ॥ ४९-५४ ॥

त्रिपुर की सभी स्त्रियाँ उस यति के धर्म का आश्रय लेकर मोह में पड़ गयीं और उन्होंने पति की सेवा के उत्तम विचार का त्याग कर दिया । आकर्षण एवं वशीकरण विद्या का अभ्यासकर मोहित हुए पुरुष दूसरों की स्त्रियों में अपने मनोरथ सफल करने लगे ॥ ५५-५६ ॥ अन्तःपुर की स्त्रियाँ, राजकुमार, पुरवासी, पुर की स्त्रियाँ आदि सभी मोहित हो गये ॥ ५७ ॥ इस प्रकार सभी पुरवासियों के अपने धर्मों से सर्वथा विमुख हो जाने पर अधर्म की वृद्धि होने लगी ॥ ५८ ॥ हे प्रभो ! उन देवाधिदेव विष्णुजी की माया से और उनकी आज्ञा से स्वयं दरिद्रता ने त्रिपुर में प्रवेश किया ॥ ५९ ॥

उन लोगों ने जिस महालक्ष्मी को तपस्या के द्वारा श्रेष्ठ देवेश्वर से प्राप्त किया था, प्रभु ब्रह्मदेव की आज्ञा से उन्हें छोड़कर वह बाहर चली गयी ॥ ६० ॥ इस प्रकार विष्णु की माया से निर्मित उस प्रकार के बुद्धिमोह को उन्हें क्षणभर में देकर वे नारदजी कृतार्थ हो गये । उन नारद ने भी उस मायावी-जैसा रूप धारण कर लिया था, फिर भी परमेश्वर के अनुग्रह से वे विकारयुक्त नहीं हुए । हे मुने ! दोनों भाइयों तथा मयसहित वह दैत्यराज भी शिवजी की इच्छा से पराक्रमहीन हो गया ॥ ६१–६३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में त्रिपुरमोहनवर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥

 

 

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