शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 08
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
आठवाँ अध्याय
विश्वकर्मा द्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथ का वर्णन

व्यासजी बोले — हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! हे शैवप्रवर ! हे सन्मते ! हे तात ! आपने परमेश्वर की यह अद्भुत कथा सुनायी । अब आप सर्वदेवमय परम दिव्य रथ के निर्माण का वर्णन कीजिये, जिसे बुद्धिमान् विश्वकर्मा ने शिवजी के लिये निर्मित किया ॥ १-२ ॥

सूतजी बोले — उन व्यासजी के इस वचन को सुनकर मुनीश्वर सनत्कुमार शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके कहने लगे — ॥ ३ ॥

शिवमहापुराण

सनत्कुमार बोले — हे व्यास ! हे महाप्राज्ञ ! हे मुने ! मैं शिवजी के चरणकमलों का ध्यानकर अपनी बुद्धि के अनुसार रथ आदि के निर्माण का वर्णन करूँगा, आप उसका श्रवण करें । विश्वकर्मा ने रुद्रदेव के सर्वलोकमय तथा दिव्य रथ को यत्न से आदरपूर्वक बनाया ॥ ४-५ ॥

यह सर्वसम्मत तथा भूतमय रथ सुवर्ण का बना हुआ था । उसके दाहिने चक्र में सूर्य एवं बाँये चक्र में चन्द्रमा विराजमान थे । हे विप्रेन्द्र ! दाहिने चक्र में बारह अरे लगे हुए थे, उन अरों में बारहों आदित्य प्रतिष्ठित थे और बायाँ पहिया सोलह अरों से युक्त था । हे सुव्रत ! बायें पहिये के सोलह अरे चन्द्रमा की सोलह कलाएँ थीं । सभी नक्षत्र उस वामभाग के पहिये की शोभा बढ़ा रहे थे ॥ ६-८ ॥

हे विप्रश्रेष्ठ ! छहों ऋतुएँ उन दोनों पहियों की नेमि थीं । अन्तरिक्ष उस रथ का अग्रभाग हुआ और मन्दराचल रथनीड हुआ । अस्ताचल तथा उदयाचल उसके दोनों कूबर कहे गये हैं । महामेरु उस रथ का अधिष्ठान तथा अन्य पर्वत उसके केसर थे । संवत्सर उस रथ का वेग था तथा दोनों अयन (उत्तरायण एवं दक्षिणायन) चक्रों के संगम थे । मुहूर्त उसके बन्धुर (बन्धन) तथा कलाएँ उसकी कीलियाँ कही गयी हैं । काष्ठा (कला का तीसवाँ भाग) उसका घोण (जूए का अग्रभाग) और क्षण उसके अक्षदण्ड कहे गये हैं । निमेष उस रथ का अनुकर्ष (नीचे का काष्ठ) और लव उसका ईषा कहा गया है ॥ ९-१२ ॥

द्युलोक इस रथ का वरूथ (लोहे का पर्दा) तथा स्वर्ग और मोक्ष उसकी दोनों ध्वजाएँ थीं । भ्रम और कामदुग्ध उसके जूए के दोनों सिर कहे गये हैं ॥ १३ ॥ व्यक्त उसका ईषादण्ड, वृद्धि नड्वल, अहंकार उसके कोने तथा पंचमहाभूत उस रथ के बल कहे गये हैं ॥ १४ ॥ समस्त इन्द्रियाँ ही उस रथ के चारों ओर के आभूषण थे । हे मुनिसत्तम ! श्रद्धा ही उस रथ की गति थी ॥ १५ ॥

हे सुव्रतो ! उस समय षडंग (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द तथा ज्योतिष) उसके आभूषण बने । पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्र उसके उपभूषण बने ॥ १६ ॥ सब लक्षणों से युक्त वर उसके बल के स्थान कहे गये हैं । वर्णाश्रमधर्म उसके चारों चरण तथा मन्त्र घण्टा कहे गये हैं । हजारों फणों से विभूषित अनन्त नामक सर्प उस रथ के बन्धन हुए, दिशाएँ एवं उपदिशाएँ पाद बनीं । पुष्करादि तीर्थ उस रथ की रत्नजटित सुवर्णमय पताकाएँ और चारों समुद्र उस रथ को ढंकनेवाले वस्त्र कहे गये हैं ॥ १७–१९ ॥

सभी प्रकार के आभूषणों से भूषित गंगा आदि सभी श्रेष्ठ नदियाँ हाथों में चँवर लिये हुए स्त्रीरूप में सुशोभित होकर जगह-जगह स्थान बनाकर रथ की शोभा बढ़ाने लगीं । आवह आदि सातों वायु स्वर्णमय उत्तम सोपान बने एवं लोकालोक पर्वत उस रथ के चारों ओर उपसोपान बने । मानस आदि सरोवर उस रथ के बाहरी उत्तम विषम स्थान हुए ॥ २०-२२ ॥

सभी वर्षाचल उस रथ के चारों ओर के पाश और तललोक में निवास करनेवाले सभी प्राणी उस रथ के तल के भाग कहे गये हैं । भगवान् ब्रह्मा उसके सारथि और देवतागण घोड़े की रस्सी पकड़नेवाले कहे गये हैं । ब्रह्मदैवत ॐकार उन ब्रह्मा का चाबुक था । अकार उसका महान् छत्र, मन्दराचल उस छत्र को धारण करनेवाला पार्श्ववर्ती दण्ड, पर्वतराज सुमेरु धनुष तथा स्वयं भुजंगराज शेषनाग उस धनुष की डोरी बने ॥ २३-२५ ॥

श्रुतिस्वरूपा भगवती सरस्वती उस धनुष का घण्टा बनीं । महान् तेजस्वी विष्णु को बाण तथा अग्नि को उस बाण का शल्य कहा गया है । हे मुने ! चारों वेद उस रथ के घोड़े कहे गये हैं । सभी प्रकार की ज्योतियाँ उन अश्वों की परम आभूषण बनीं । समस्त विषसम्भूत पदार्थ सेना बने । सभी वायु बाजा बजानेवाले कहे गये हैं । व्यास आदि ऋषिगण उसे ढोनेवाले हुए ॥ २६–२८ ॥

[सनत्कुमार बोले-] हे मुनीश्वर ! अधिक कहने से क्या लाभ, मैं संक्षेप में ही बताता हूँ कि ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी वस्तु है, वह सब उस रथ में विद्यमान कही गयी है ॥ २९ ॥ परम बुद्धिमान् विश्वकर्मा ने ब्रह्मा तथा विष्णु की आज्ञा से इस प्रकार के रथ आदि से युक्त शुभ साधन का भली-भाँति निर्माण किया था ॥ ३० ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में रथादियुद्धप्रकारवर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥

 

 

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