शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 10
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
दसवाँ अध्याय
भगवान् शिव का त्रिपुर पर सन्धान करना, गणेशजी का विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणी द्वारा बोधित होने पर शिव द्वारा विघ्ननाशक गणेश का पूजन, अभिजित् मुहूर्त में तीनों पुरों का एकत्र होना और शिव द्वारा बाणाग्नि से सम्पूर्ण त्रिपुर को भस्म करना, मयदानव का बचा रहना

सनत्कुमार बोले — [हे व्यासजी !] इसके बाद महादेव शम्भु सम्पूर्ण सामग्रियों से युक्त हो उस रथ पर बैठकर दैत्यों के सम्पूर्ण त्रिपुर को दग्ध करने के लिये उद्यत हुए । उस रथ के शीर्ष स्थान पर स्थित हो वे धनुष को चढ़ाकर उस पर उत्तम बाण सन्धानकर अत्यन्त अद्भुत प्रत्यालीढ आसन में स्थित होकर दृढमुष्टि में धनुष को पकड़कर अपनी दृष्टि में दृष्टि डालकर निश्चल हो सौ हजार वर्षपर्यन्त वहाँ स्थित रहे । उस समय वे गणेशजी उन शिवजी के अंगूठे पर स्थिर हो निरन्तर उन्हें पीड़ित करने लगे, जिससे उनके लक्ष्य में त्रिपुर दिखायी न पड़े ॥ १-४ ॥

शिवमहापुराण

तब मुंजकेश, विरूपाक्ष तथा धनुष-बाणधारी शंकर ने यह अत्यन्त मनोहर आकाशवाणी सुनी । हे जगदीश ! हे ईश ! हे भगवन् ! जबतक आप इन गणेशजी का पूजन नहीं करेंगे, तबतक आप त्रिपुर का नाश नहीं कर सकेंगे ॥ ५-६ ॥

तदनन्तर यह वचन सुनकर अन्धक का वध करनेवाले सदाशिव ने भद्रकाली को बुलाकर गणेशजी की पूजा की ॥ ७ ॥ पूजा से उन गणेश के प्रसन्न हो जाने पर भगवान् शिव ने आकाश में स्वयं अपने आगे उन महात्मा दैत्य तारकपुत्रों के तीनों पुरों को देखा, जो यथायोग्य एक-दूसरे से युक्त थे । इस विषय में कोई ऐसा कहते हैं कि — परब्रह्म देवेश परमेश्वर तो सबके पूजनीय हैं, फिर उनके कार्य की सिद्धि दूसरों की प्रसन्नता से हो, यह तो उनके लिये उचित नहीं प्रतीत होता ॥ ८-१० ॥

वे परब्रह्म, स्वतन्त्र, सगुण, निर्गण, परमात्मा तथा माया से रहित एवं सभी से अलक्ष्य हैं । वे परम प्रभु पंचदेवात्मक तथा पंचदेवों के उपास्य हैं । उनका कोई भी उपास्य नहीं है, वे ही सबके उपास्य हैं । अथवा हे मुने ! सबको वर देनेवाले उन देवाधिदेव महेश्वर की लीला से सभी चरित सम्भव हैं ॥ ११–१३ ॥

जब महादेवजी गणेश का पूजनकर स्थित हो गये, उसी समय वे तीनों पुर शीघ्र ही एक में मिल गये ॥ १४ ॥ हे मुने ! इस प्रकार त्रिपुर के एक साथ मिल जाने पर देवताओं तथा महात्माओं को बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ १५ ॥ तत्पश्चात् समस्त देवगण, महर्षि एवं सिद्धगण महादेवजी की स्तुति करते हुए उनकी जय-जयकार करने लगे ॥ १६ ॥

इसके बाद जगत्पति ब्रह्मा तथा विष्णु ने कहा — हे महेश्वर ! अब इन दैत्य तारकपुत्रों के वध-कार्य का समय उपस्थित हो गया है । हे विभो ! आप देवकार्य सम्पन्न कीजिये; क्योंकि इनके तीनों पुर एक स्थान में आ गये हैं । हे देवेश ! जब तक ये पुर एक-दूसरे से अलग नहीं होते, तब तक आप बाण छोड़िये और त्रिपुर को भस्म कर दीजिये ॥ १७–१९ ॥

तब शंकरजी ने धनुष की डोरी चढ़ाकर उसपर बाण रखकर त्रिपुरसंहार के लिये अपने पूज्य पाशुपतास्त्र का ध्यान किया ॥ २० ॥ उसके बाद श्रेष्ठ लीलाविशारद शिवजी किसी कारण से उन पुरों को निरादर की दृष्टि से देखने लगे ॥ २१ ॥

आप विरूपाक्ष हैं और इन तीनों पुरों को क्षणमात्र में दग्ध करने में समर्थ हैं तथा सजनों की एकमात्र गति हैं । यद्यपि आप देवेश्वर अपनी दृष्टिमात्र से तीनों लोकों को भस्म करने में समर्थ हैं, किंतु हमलोगों के यश को बढ़ाने के लिये आप इन पर अपना बाण छोड़िये ॥ २२-२३ ॥

इस प्रकार जब विष्णु, ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं ने महेश्वर की स्तुति की, तब उन्होंने उसी बाण से तीनों पुरों को भस्म करने की इच्छा की । उन शिवजी ने अभिजित् मुहूर्त में उस अद्भुत धनुष को खींचकर उसकी प्रत्यंचा की टंकार से अत्यन्त दुःसह शब्द करके और उन असुरों को अपना नाम सुनाकर तथा उन्हें ललकारते हुए करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान बाण छोड़ा ॥ २४–२६ ॥
पापनाशक, जाज्वल्यमान, अग्निफलक से युक्त तथा तीव्रगामी उस विष्णुमय बाण ने त्रिपुर में रहनेवाले उन तीनों दैत्यों को दग्ध कर दिया ॥ २७ ॥ इस प्रकार भस्म हुए वे तीनों पुर चार समुद्रों की मेखलावाली पृथ्वी पर एक साथ ही गिर पड़े और जले हए वे पुर राख के रूप में हो गये । शिव की पूजा में व्यतिक्रम के कारण सैकड़ों दैत्य हाहाकार करते हुए उस बाण की अग्नि से भस्म हो गये ॥ २८-२९ ॥

जब भाइयों के सहित तारकाक्ष भस्म होने लगा, तब उसने अपने प्रभु भक्तवत्सल भगवान् सदाशिव का स्मरण किया । महादेव की ओर देखकर परम भक्ति से युक्त होकर वह नाना प्रकार के विलाप करता हुआ मन-ही-मन उनसे कहने लगा — ॥ ३०-३१ ॥

तारकाक्ष बोला — हे भव ! मैंने जान लिया है कि आप हमारे ऊपर प्रसन्न हैं, अपने इस सत्य के प्रभाव से आप पुनः भाइयों सहित हमें कब जलायेंगे ? हे भगवन् ! हमलोगों ने वह दुर्लभ वस्तु प्राप्त की है, जो देवताओं और असुरों के लिये भी अप्राप्य है, हमारी बुद्धि जन्म-जन्मान्तर में आपकी भक्ति से भावित रहे ॥ ३२-३३ ॥

हे मुने ! ऐसा कहते हुए उन दैत्यों को शिवजी की आज्ञा से अग्नि ने अद्भुत रीति से जलाकर राख कर दिया । हे व्यासजी ! उस अग्नि ने अन्य बालक तथा वृद्ध दानवों को भी शिवजी की आज्ञा से शीघ्र ही जलाकर राख कर दिया । जिस प्रकार कल्पान्त में जगत् भस्म हो जाता है, उसी प्रकार उस अग्नि ने वहाँ जो भी स्त्री, पुरुष, वाहनादि थे, उन सभी को जला दिया ॥ ३४-३६ ॥

बहुत-सी श्रेष्ठ स्त्रियाँ गले में भुजाएँ डालनेवाले अपने पतियों को छोड़कर भस्म हो गयीं, सोयी हुई, प्रमत्त और रतिश्रान्त स्त्रियाँ भी भस्म हो गयीं ॥ ३७ ॥ कोई आधी जलकर चेतना में आ-आकर बारंबार मोह से मूर्च्छित हो जाती थी । कोई अति सूक्ष्म भी ऐसी वस्तु शेष न बची, जो त्रिपुर की अग्नि से भस्म न हुई हो ॥ ३८ ॥ केवल एक अविनाशी विश्वकर्मा मयदानव को छोड़कर स्थावर तथा जंगम कोई भी बिना जले न बचा, वह देवताओं का विरोधी नहीं था, विपत्तिकाल में भी महेश का शरणागत भक्त था और शिवजी के तेज से रक्षित था ॥ ३९-४० ॥

चाहे दैत्य हों, चाहे अन्य प्राणी हों, भावाभाव की अवस्था में तथा कृत-अकृत काल में महेश्वर के शरणागत होने पर उनका नाशकारक पतन नहीं होता है । इसलिये सत्पुरुषों को ध्यानपूर्वक इस प्रकार का यत्न करना चाहिये, जिससे भक्ति बढ़े । निन्दा से लोक का क्षय होता है, अतः उस कर्म को कभी नही करना चाहिये ॥ ४१-४२ ॥ पुरुष को कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जिससे उन त्रिपुरों-जैसा संयोग उपस्थित हो । क्या ही उत्तम बात होती कि प्रारब्ध से सभी का मन शिवजी में लगता ॥ ४३ ॥

उस समय भी जो दैत्य बान्धवोंसहित शिवपूजन में तत्पर थे, वे सब शिवपूजा के प्रभाव से गणों के अधिपति हो गये ॥ ४४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में त्रिपुरदाहवर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥

 

 

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