September 19, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 11 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः ग्यारहवाँ अध्याय त्रिपुरदाह के अनन्तर भगवान् शिव के रौद्ररूप से भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्ति का वरदान प्राप्त करना व्यासजी बोले — हे ब्रह्मपुत्र ! हे महाप्राज्ञ ! आप धन्य हैं । हे शैवश्रेष्ठ ! त्रिपुर के जल जाने पर सभी देवताओं ने क्या किया, दाह से रहित मय कहाँ गया, वे यतिगण कहाँ गये, यदि शिवजी की कथा से सम्बन्धित अन्य कुछ हो, तो वह सब मुझे बताइये ॥ १-२ ॥ सूतजी बोले — व्यासजी के इस वचन को सुनकर ब्रह्माजी के पुत्र भगवान् सनत्कुमार शिव के चरण-युगल का स्मरण करते हुए कहने लगे — ॥ ३ ॥ शिवमहापुराण सनत्कुमार बोले — हे महाबुद्धे ! हे पराशरपुत्र व्यास ! अब आप लोकलीला का अनुसरण करनेवाले महेश्वर के सर्वपापनाशक चरित्र को सुनिये । महेश्वर के द्वारा दैत्यों से परिपूर्ण समस्त त्रिपुर के दग्ध कर दिये जाने पर वे देवता विशेष रूप से आश्चर्यचकित हुए । उस समय इन्द्र, विष्णुसहित सभी देवता महातेजस्वी रुद्र को देखकर आश्चर्य में पड़ गये और कुछ भी नहीं बोले ॥ ४-६ ॥ अत्यन्त भयंकर, रौद्र रूपवाले, दसों दिशाओं को प्रज्वलित करते हुए, करोड़ों सूर्यों के समान तथा प्रलयाग्नि-सदृश महादेव को तथा देवी पार्वती को देखकर सभी देवगण भयभीत हो गये और सिर झुकाकर खड़े हो गये ॥ ७-८ ॥ तब श्रेष्ठ ऋषिगण देवसेना को इस प्रकार भयभीत देखकर कुछ भी नहीं बोले और वे [शिव को] प्रणामकर चारों ओर खड़े रहे ॥ ९ ॥ तब शंकरजी के रूप को देखकर डरे हुए ब्रह्मा भी प्रसन्नचित्त होकर सावधान हो देवताओं तथा भयभीत विष्णु के साथ पार्वती सहित भक्ताधीन देवदेव, भव, हर, त्रिपुरारि महेश्वर की स्तुति करने लगे ॥ १०-११ ॥ ॥ ब्रह्मोवाच ॥ देवदेव महादेव भक्तानुग्रहकारक । प्रसीद परमेशान सर्व देवहितप्रद ॥ १२ ॥ प्रसीद जगतां नाथ प्रसीदानंददायक । प्रसीद शंकर स्वामिन् प्रसीद परमेश्वर ॥ १३ ॥ ॐकाराय नमस्तुभ्यमाकारपरतारक । प्रसीद सर्वदेवेश त्रिपुरघ्न महेश्वर ॥ १४ ॥ नानावाच्याय देवाय वरणप्रिय शंकर । अगुणाय नमस्तुभ्यं प्रकृतेः पुरुषात्पर ॥ १५ ॥ निर्विकाराय नित्याय नित्यतृप्ताय भास्वते । निरंजनाय दिव्याय त्रिगु णाय नमोऽस्तु ते ॥ १६ ॥ सगुणाय नमस्तुभ्यं स्वर्गेशाय नमोस्तु ते । सदाशिवाय शांताय महेशाय पिनाकिने ॥ १७ ॥ सर्वज्ञाय शरण्याय सद्योजाताय ते नमः । वामदेवाय रुद्राय तदाप्यपुरुषाय च ॥ १८ ॥ अघोराय सुसेव्याय भक्ताधीनाय ते नमः । ईशानाय वरेण्याय भक्तानंदप्रदायिने ॥ १९ ॥ रक्षरक्ष महादेव भीतान्नस्सकलामरान् । दग्ध्वा च त्रिपुरं सर्वे कृतार्था अमराः कृताः ॥ २० ॥ ब्रह्माजी बोले — हे देव ! हे महादेव ! हे भक्तानुग्रहकारक ! हे सर्वदेवहितकारी परमेश्वर ! आप प्रसन्न होइये । हे जगत्पते ! प्रसन्न होइये, हे आनन्ददायक ! प्रसन्न होइये । हे शंकर ! हे स्वामिन् ! प्रसन्न होइये । हे परमेश्वर ! प्रसन्न होइये ॥ १२-१३ ॥ जीवों के उद्धारकर्ता आप ओंकार को नमस्कार है । हे सर्वदेवेश ! त्रिपुर का विनाश करनेवाले हे महेश्वर ! आप प्रसन्न होइये । हे प्रणतप्रिय ! हे शंकर ! अनेक नामों से वाच्य आप देव को नमस्कार है, हे प्रकृति एवं पुरुष से पर ! आप निर्गुण को नमस्कार है ॥ १४-१५ ॥ निर्विकार, नित्य, नित्यतृप्त, प्रकाशमान, निरंजन, दिव्य तथा त्रिगुणरूप आपको प्रणाम है ॥ १६ ॥ सगुणरूपधारी आपको नमस्कार है । स्वर्गेश, सदाशिव, शान्त, पिनाकधारी तथा महेश्वर आपको नमस्कार है ॥ १७ ॥ सर्वज्ञ, शरण देनेवाले, सद्योजात, वामदेव, रुद्र एवं आप्यपुरुष आपको नमस्कार है ॥ १८ ॥ अघोर, सुसेव्य, भक्ताधीन, ईशान, वरेण्य (श्रेष्ठ) एवं भक्तों को आनन्द देनेवाले आपको नमस्कार है ॥ १९ ॥ हे महादेव ! आपने त्रिपुर को जलाकर सभी देवताओं को कृतार्थ कर दिया, अब आप भयभीत समस्त देवताओं की रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ २० ॥ इस प्रकार ब्रह्मादि सभी देवता अति प्रसन्न होकर भगवान् सदाशिव की स्तुति कर उन्हें पृथक्-पृथक् प्रणाम करने लगे ॥ २१ ॥ इसके बाद स्वयं ब्रह्माजी सिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर त्रिपुरारि महेश्वरदेव की स्तुति करने लगे ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले — -हे भगवन् ! हे देवदेवेश ! हे त्रिपुरान्तक ! हे शंकर ! हे महादेव ! मेरी अनपायिनी श्रेष्ठ भक्ति आपमें सदैव बनी रहे । हे देवेश ! हे शंकर ! मैं सदा आपका सारथी बना रहूँ । हे विभो ! हे परमेश्वर ! आप सदा मेरे अनुकूल रहें ॥ २३-२४ ॥ सनत्कुमार बोले — इस प्रकार उदार बुद्धिवाले ब्रह्मा कन्धा झुकाये हुए हाथ जोड़कर विनम्र हो भक्तवत्सल भगवान् शिवजी की स्तुतिकर चुप हो गये ॥ २५ ॥ इसके बाद भगवान् विष्णु ने भी हाथ जोड़कर महेश्वर को प्रणाम करके उनकी स्तुति की ॥ २६ ॥ ॥ विष्णुरुवाच ॥ देवाधीश महेशान दीनबंधो कृपाकर । प्रसीद परमेशान कृपां कुरु नतप्रिय ॥ २७ ॥ निर्गुणाय नमस्तुभ्यं पुनश्च सगुणाय च । पुनः प्रकृतिरूपाय पुनश्च पुरुषाय च ॥ २८ ॥ पश्चाद्गुणस्वरूपाय नतो विश्वात्मने नमः । भक्तिप्रियाय शांताय शिवाय परमात्मने ॥ २९ ॥ सदाशिवाय रुद्राय जगतां पतये नमः । त्वयि भक्तिर्दृढा मेऽद्य वर्द्धमाना भवत्विति ॥ ३० ॥ विष्णुजी बोले — हे देवाधीश ! हे महेश्वर ! हे दीनबन्धो ! हे कृपाकर ! हे परमेश्वर ! हे प्रणतप्रिय ! आप प्रसन्न होइये और कृपा कीजिये ॥ २७ ॥ निर्गुण होते हुए भी सगुण और प्रकृतिरूप होते हुए भी पुरुषरूप आपको नमस्कार है ॥ २८ ॥ उसके बाद गुणरूप धारण करनेवाले विश्वात्मा आपको नमस्कार है । विश्वात्मा, भक्तप्रिय, शान्तस्वरूप तथा परमात्मा शिव को नमस्कार है ॥ २९ ॥ सदाशिव, रुद्र एवं जगत्पति को नमस्कार है । आप में आज से मेरी भक्ति दृढ़ होकर निरन्तर बढ़ती रहे ॥ ३० ॥ सनत्कुमार बोले — ऐसा कहकर महाशिवभक्त विष्णु मौन हो गये । इसके बाद सभी देवता प्रणाम करके उन परमेश्वर से कहने लगे — ॥ ३१ ॥ देवता बोले — हे देवनाथ ! हे महादेव ! हे करुणाकर ! हे शंकर ! हे जगत्पते ! हे परमेश्वर ! प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये ॥ ३२ ॥ आप सर्वकर्ता हैं । आप प्रसन्न होइये । हमलोग प्रसन्नता के साथ आपको नमस्कार करते हैं । आपमें हमारी अविनाशी दृढ़ भक्ति सदा बनी रहे ॥ ३३ ॥ सनत्कुमार बोले — इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा देवताओं के द्वारा स्तुति किये जाने पर लोककल्याणकर्ता शंकरजी ने प्रसन्नचित्त होकर कहा — ॥ ३४ ॥ शंकर बोले — हे विधे ! हे विष्णो ! हे देवताओ ! मैं विशेषरूप से प्रसन्न हूँ । आपलोग अच्छी तरह विचारकर अपने मनोवांछित वर को बतलायें ॥ ३५ ॥ सनत्कुमार बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! शिवजी के द्वारा कहे गये वचन को सुनकर सभी देवता प्रसन्नमन से कहने लगे — ॥ ३६ ॥ सभी देवता बोले — हे भगवन् ! हे देवदेवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि आपको हमें वर देना ही है, तो हम देवताओं को अपना दास समझकर यह वर दीजिये कि हे देवश्रेष्ठ ! जब-जब देवताओं पर विपत्ति पड़े, तब-तब आप प्रकट होकर सदा दुःख का निवारण करें ॥ ३७-३८ ॥ सनत्कुमार बोले — जब ब्रह्मा, विष्णु तथा देवताओं ने भगवान् शंकर से इस प्रकार कहा, तब उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर एक ही बार सभी देवताओं से कहा — ऐसा ही होगा । हे देवगणो ! मैं इन स्तोत्रों से प्रसन्न हूँ । इनका पाठ करनेवालों तथा सुननेवालों को मैं निश्चित रूप से सर्वदा लोक में परम अभीष्ट वर देता रहूँगा ॥ ३९-४० ॥ इस प्रकार कहकर देवताओं के दुःख का सदा निवारण करनेवाले शंकरजी ने प्रसन्न होकर जो भी समस्त देवताओं को प्रिय था, वह सब उन्हें प्रदान किया ॥ ४१ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में देवस्तुतिवर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe