September 19, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 14 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः चौदहवाँ अध्याय क्षारसमुद्र में प्रक्षिप्त भगवान् शंकर की नेत्राग्नि से समुद्र के पुत्र के रूप में जलन्धर का प्राकट्य, कालनेमि की पुत्री वृन्दा के साथ उसका विवाह व्यासजी बोले — हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! हे ब्रह्मपुत्र ! आपको नमस्कार है, मैंने आज महात्मा शंकर की यह अद्भुत कथा सुनी । हे ब्रह्मन् ! शिवजी के द्वारा भालनेत्र से उत्पन्न हुए अपने तेज को क्षारसमुद्र में फेंक दिये जाने पर क्या हुआ ? हे तात ! उसे शीघ्र कहिये ॥ १-२ ॥ शिवमहापुराण सनत्कुमार बोले — हे तात ! हे महाप्राज्ञ ! अब आप शिव की परम अद्भुत लीला को सुनिये, जिसे श्रद्धा से सुनकर भक्त योगियों की गति प्राप्त करते हैं । शिवजी के तीसरे नेत्र से उत्पन्न वह तेज, जो खारे समुद्र में फेंक दिया गया था, शीघ्र ही बालकरूप हो गया ॥ ३-४ ॥ सभी लोकों को भय देनेवाला वह बालक वहाँ गंगासागर के संगम पर स्थित हो बड़े ऊँचे स्वर में रोने लगा ॥ ५ ॥ उस रोते हुए बालक के शब्द से पृथ्वी बारंबार कम्पित हो उठी और स्वर्ग तथा सत्यलोक उसके स्वर से बहरे हो गये । उस बालक के रुदन से सभी लोक भयभीत हो उठे और समस्त लोकपाल व्याकुलचित्त हो गये ॥ ६-७ ॥ हे विप्रेन्द्र ! हे तात ! हे विभो ! अधिक कहने से क्या प्रयोजन, उस शिशु के रुदन से चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् चलायमान हो उठा ॥ ८ ॥ उसके बाद मुनियों के सहित व्याकुल समस्त देवता लोकगुरु पितामह ब्रह्मा की शरण में गये । वहाँ जाकर इन्द्रसहित सभी देवताओं तथा मुनियों ने ब्रह्मा को प्रणामकर तथा उनकी स्तुति कर उनसे कहा — ॥ ९-१० ॥ देवता बोले — हे लोकाधीश ! हे सुराधीश ! हमलोगों के समक्ष भय उपस्थित हो गया है । हे महायोगिन् ! उसका विनाश कीजिये, यह अद्भुत ध्वनि उत्पन्न हुई है ॥ ११ ॥ सनत्कुमार बोले — तब उनका यह वचन सुनकर लोकपितामह ब्रह्माजी आश्चर्यचकित हो उठे कि ‘यह क्या है’ और वहाँ जाने की इच्छा करने लगे ॥ १२ ॥ हे तात ! तब ब्रह्माजी देवताओं के साथ सत्यलोक से पृथ्वी पर उतरे और उसका पता लगाते हुए समुद्र के किनारे गये । सभी लोकों के पितामह ब्रह्मा ज्यों ही वहाँ आये, त्यों ही उन्होंने समुद्र की गोद में उस बालक को देखा । ब्रह्मा को आया हुआ देखकर देवरूप धारणकर सागर ने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके उस बालक को उनकी गोद में डाल दिया । तदनन्तर विस्मय में पड़े हुए ब्रह्माजी ने समुद्र से यह वचन कहा — हे जलराशे ! शीघ्र बताओ कि यह अद्भुत बालक किसका पुत्र है ? ॥ १३–१६ ॥ सनत्कुमार बोले — तब ब्रह्माजी का वचन सुनकर समुद्र बड़ा प्रसन्न हुआ और वह हाथ जोड़कर नमस्कार कर स्तुति करने के उपरान्त ब्रह्माजी से कहने लगा — ॥ १७ ॥ समुद्र बोला — हे ब्रह्मन् ! हे सर्वलोकस्वामिन् ! मुझे गंगासागर के संगम पर यह बालक अकस्मात् प्राप्त हुआ है और मैं नहीं जानता कि यह किसका बालक है ॥ १८ ॥ हे जगद्गुरो ! आप इसका जातकर्मादि संस्कार कीजिये और हे विधाता ! इसके जातकसम्बन्धी समस्त फलों को बताइये ॥ १९ ॥ सनत्कुमार बोले — जब समुद्र ब्रह्माजी से इस बात को कह रहा था, तभी उस बालक ने ब्रह्मा का कण्ठ पकड़ लिया, यद्यपि वे अपना गला बारंबार उससे छुड़ा रहे थे । हे व्यासजी ! ब्रह्माजी गला छुड़ाने का बहुत प्रयत्न कर रहे थे, किंतु उस बालक ने इतने जोर से उनका कण्ठ दबाया कि पीड़ित ब्रह्मा के नेत्रों से जल टपकने लगा ॥ २०-२१ ॥ तब ब्रह्माजी ने किसी प्रकार उस महातेजस्वी समुद्रपुत्र के दोनों हाथों से अपना गला छुड़ाया और वे आदरपूर्वक समुद्र से कहने लगे — ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे सागर ! सुनो, मैं तुम्हारे इस पत्र का समस्त जातकोक्त फल विचारकर कहता हूँ ॥ २३ ॥ इसने मेरे नेत्रों से निकले हुए जल को धारण किया है, इसलिये यह जलन्धर — इस नाम से प्रसिद्ध होगा ॥ २४ ॥ यह इसी समय तरुण, सर्वशास्त्रार्थवेत्ता, महापराक्रमी, धैर्यवान् तथा रणदुर्मद योद्धा है । तुम्हारे तथा कार्तिकेय के समान यह युद्ध में गम्भीर होगा, यह संग्राम में सबको जीत लेगा तथा समस्त ऐश्वर्य से परिपूर्ण होगा ॥ २५-२६ ॥ यह बालक समस्त दैत्यों का अधिपति होगा तथा विष्णु को भी जीतनेवाला होगा, इसका पराभव कभी नहीं होगा । रुद्र को छोड़कर यह सभी प्राणियों से अवध्य होगा । जहाँ से इसकी उत्पत्ति हुई है, अन्त में यह वहीं जायगा । इसकी पत्नी महापतिव्रता, सौभाग्य को बढ़ानेवाली, सर्वांगसुन्दरी, मनोहर, प्रिय वचन बोलनेवाली तथा शील का सागर होगी ॥ २७-२९ ॥ सनत्कुमार बोले — ऐसा कहकर [दैत्यगुरु] शुक्र को बुलाकर ब्रह्माजी ने उस बालक को राज्यपर अभिषिक्त करवाया और समुद्र से आज्ञा लेकर वे अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर उसके दर्शन से प्रफुल्लित नेत्रवाला समुद्र उस पुत्र को लेकर प्रसन्नता से अपने घर चला गया और प्रसन्नचित्त होकर अनेक उपायों द्वारा सर्वांगसुन्दर, मनोहर, अत्यन्त अद्भुत एवं परम तेजस्वी अपने पुत्र का पालनपोषण करने लगा ॥ ३०-३२ ॥ उसके बाद सागर ने महान् असुर कालनेमि को बुलाकर उसकी वृन्दा नामक पुत्री को उसकी भार्या के निमित्त माँगा । हे मुने ! वीर असुरों में श्रेष्ठ, बुद्धिमान् तथा अपने कार्यसाधन में कुशल असुर कालनेमि ने समुद्र की याचना स्वीकार कर ली और ब्राह्म-विवाह की विधि से समुद्रपुत्र वीर जलन्धर को अपनी प्राणप्रिय पुत्री प्रदान कर दी ॥ ३३-३५ ॥ उस समय उन दोनों के विवाह में महान् उत्सव हुआ । हे मुने ! समस्त नदों, नदियों एवं असुरों को सुख प्राप्त हुआ । स्त्रीसहित पुत्र को देखकर समुद्र को भी अत्यधिक सुख की प्राप्ति हुई और उसने ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों को यथाविधि दान दिया । तब पाताल में रहनेवाले दैत्य, जो देवताओं के द्वारा पहले जीत लिये गये थे, वे पृथ्वी पर चले गये और निडर होकर उसके आश्रय में रहने लगे ॥ ३६-३८ ॥ [उस समय] कालनेमि आदि वे असुर उस समुद्रपुत्र को कन्या देकर परम प्रसन्न हुए और देवताओं को जीतने के लिये उसके आश्रित हो गये ॥ ३९ ॥ असुरवीरों में मुख्य वीर वह समुद्रपुत्र जितेन्द्रिय जलन्धर अति सुन्दरी भार्या को प्राप्तकर शुक्राचार्य के प्रभाव से राज्य करने लगा ॥ ४० ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में जलन्धरवधोपाख्यान के अन्तर्गत जलन्धरोत्पत्तिविवाहवर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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