शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 18
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
अठारहवाँ अध्याय
जलन्धर के आधिपत्य में रहनेवाले दुखी देवताओं द्वारा शंकर की स्तुति, शंकरजी का देवर्षि नारद को जलन्धर के पास भेजना, वहाँ देवों को आश्वस्त करके नारदजी का जलन्धर की सभा में जाना, उसके ऐश्वर्य को देखना तथा पार्वती के सौन्दर्य का वर्णनकर उसे प्राप्त करने के लिये जलन्धर को परामर्श देना

सनत्कुमार बोले — हे मुनीश्वर ! इस प्रकार उस महान् असुर के धर्मपूर्वक पृथ्वी का शासन करते रहने पर उसके स्वामित्व में रहने के कारण देवता दुखी हुए ॥ १ ॥ वे सभी दुखित देवता मन-ही-मन देवाधिदेव सर्वप्रभु भगवान् सदाशिव की शरण में आये और अपने दुःख को दूर करने के लिये सब कुछ देनेवाले भक्तवत्सल भगवान् महेश्वर की मनोहर वाणी से स्तुति करने लगे ॥ २-३ ॥

शिवमहापुराण

तब भक्तजनों के सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाले महादेव ने देवकार्य करने की इच्छा से नारद को बुलाकर [वहाँ जाने हेतु] प्रेरित किया । इसके बाद ज्ञानी, शिवजी के भक्त तथा सज्जनों का उद्धार करनेवाले देवर्षि नारद शिवजी की आज्ञा से देवताओं के पास दैत्यपुरी में गये ॥ ४-५ ॥

उस समय व्याकुल इन्द्रादि सभी देवता मुनि नारद को आते देखकर शीघ्रता से उठ गये । उत्कण्ठापूर्ण मुखवाले इन्द्र आदि देवताओं ने नारदमुनि को नमस्कार करके प्रीतिपूर्वक उन्हें आसन प्रदान किया । तदनन्तर सुखपूर्वक आसन पर बैठे हुए उन मुनि को पुनः प्रणाम करके इन्द्रादि दुखित देवताओं ने मुनीश्वर से कहा — ॥ ६-८ ॥

देवता बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! हे कृपाकर ! [हमलोगों के] दुःख को सुनिये और सुनकर उसे शीघ्र दूर कीजिये, आप प्रभु हैं तथा शंकरप्रिय हैं । दैत्य जलन्धर ने देवताओं को [पराजित कर] उन्हें अपने स्थान से हटा दिया है । इस समय उसके स्वामित्व में रहने के कारण हमलोग दुखी तथा व्याकुल हैं । उसके द्वारा सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, धर्मराज, लोकपाल तथा अन्य देवता भी अपने स्थानों से हटा दिये गये हैं । उस महाबलवान् दैत्य ने हम सभी देवताओं को बहुत पीड़ित किया है, अतः हम सभी अत्यन्त दुखी होकर आपकी शरण में आये हैं । सभी देवताओं का मर्दन करनेवाले उस बलवान् महादैत्य जलन्धर ने संग्राम में विष्णु को भी अपने वश में कर लिया है ॥ ९-१३ ॥

हमलोगों के समस्त कार्य को सिद्ध करनेवाले विष्णु वर देने के कारण उसके वश में होकर लक्ष्मीसहित उसके घर में निवास कर रहे हैं । हे महामते ! आप सदा सर्वार्थसाधक हैं, हमलोगों के भाग्य से ही आप यहाँ आये हैं, अतः जलन्धर के विनाश के लिये कोई उपाय कीजिये ॥ १४-१५ ॥

सनत्कुमार बोले — उन देवताओं की यह बात सुनकर कृपा करनेवाले वे मुनिश्रेष्ठ नारदजी उन्हें आश्वस्त करके कहने लगे — ॥ १६ ॥

नारदजी बोले — हे देवताओ ! मैं जानता हूँ कि आपलोग दैत्यराज जलन्धर से पराजित हो गये हैं और अपने-अपने स्थानों से हटा दिये गये हैं, अतः आपलोग दुखित तथा पीड़ित हैं । मैं अपनी शक्ति के अनुसार आपलोगों का कार्य सिद्ध करूँगा, इसमें कोई संशय नहीं है । आपलोगों ने बड़ा दुःख उठाया है, मैं आपलोगों के अनुकूल हूँ ॥ १७-१८ ॥

सनत्कुमार बोले — ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी सभी देवताओं को आश्वस्त करके उस दानवप्रिय जलन्धर को देखने के लिये उसकी सभा में गये ॥ १९ ॥ तदनन्तर दैत्य जलन्धर ने मुनिश्रेष्ठ नारद को आया हुआ देखकर बड़ी भक्ति के साथ उठकर उन्हें श्रेष्ठ तथा उत्तम आसन प्रदान किया । तत्पश्चात् विधिपूर्वक उनकी पूजाकर वह दानवेन्द्र बहुत आश्चर्य में पड़ गया और हँस करके मुनिवर से यह वचन कहने लगा — ॥ २०-२१ ॥

जलन्धर बोला — हे ब्रह्मन् ! आपका आगमन कहाँ से हो रहा है, आपने कहीं पर कुछ देखा है क्या ! हे मुने ! आप यहाँ जिस लिये आये हैं, उसे मुझको बताइये ॥ २२ ॥

सनत्कुमार बोले — उस दैत्येन्द्र का यह वचन सुनकर महामुनि नारदजी प्रसन्नचित्त होकर जलन्धर से कहने लगे — ॥ २३ ॥

नारदजी बोले — सम्पूर्ण दैत्यों तथा दानवों के अधिपति हे जलन्धर ! तुम धन्य हो, हे सर्वलोकेश ! तुम्ही सारे रत्नों का उपभोग करने योग्य हो ॥ २४ ॥ हे दैत्येन्द्रसत्तम ! मेरे आने का कारण सुनो, मैं जिस निमित्त से यहाँ आया हूँ, मैं वह सब कह रहा हूँ ॥ २५ ॥

हे दैत्येन्द्र ! मैं अपनी इच्छा से कैलासपर्वत पर गया था, जो दस हजार योजन विस्तारवाला, कल्पवृक्ष के महान् वन से युक्त, सैकड़ों कामधेनुओं से समन्वित, चिन्तामणि से प्रकाशित, सम्पूर्णरूप से सुवर्णमय, दिव्य तथा सभी प्रकार की अद्भुत वस्तुओं से सुशोभित हो रहा है ॥ २६-२७ ॥ वहाँ पर मैंने पार्वती के साथ बैठे हुए गौरवर्ण, सर्वांगसुन्दर, त्रिनेत्र एवं चन्द्रमा को मस्तक पर धारण किये हुए भगवान् शंकर को देखा ॥ २८ ॥

महान् आश्चर्य से परिपूर्ण उस कैलास को देखकर मैंने अपने मन में विचार किया कि त्रिलोकी में कहीं कोई ऐसी समृद्धि है अथवा नहीं । हे दैत्येन्द्र ! उसी समय मुझे तुम्हारी समृद्धि का स्मरण हुआ और उसी को देखने की इच्छा से मैं तुम्हारे पास यहाँ आया हूँ ॥ २९-३० ॥

सनत्कुमार बोले — नारदजी से ऐसा सुनकर उस दैत्यपति जलन्धर ने बड़े आदर के साथ उन्हें अपनी सारी समृद्धि दिखायी । तब देवगणों का कार्य सिद्ध करनेवाले वे ज्ञानी नारदजी उसे देखकर शंकरजी की प्रेरणा से उस दैत्येन्द्र जलन्धर से कहने लगे — ॥ ३१-३२ ॥

नारदजी बोले — हे श्रेष्ठ वीर ! तुम्हारे पास इस समय निःसन्देह सारी सम्पत्ति है, तुम त्रिलोकी के पति भी हो । अतः इसमें आश्चर्य क्या हो सकता है । मणि, रत्नों की राशियाँ, घोड़े, हाथी आदि समृद्धियाँ तथा जो अन्य रत्न हैं, वे सब तुम्हारे घर में सुशोभित हो रहे हैं ॥ ३३-३४ ॥ हे महावीर ! तुमने इन्द्र के हाथियों में रत्नभूत ऐरावत को ले लिया है तथा सूर्य का अश्वरत्न उच्चैःश्रवा घोड़ा भी ले लिया है । तुम कल्पवृक्ष भी ले आये हो तथा कुबेर की सारी निधियाँ भी तुम्हारे पास हैं । तुम ब्रह्माजी का हंसयुक्त विमान भी ले आये हो । इस प्रकार हे दैत्येन्द्र ! पृथ्वी, पाताल तथा स्वर्गलोक में जो भी उत्तम रत्न हैं, वे सब तुम्हारे घर में सुशोभित हो रहे हैं ॥ ३५-३७ ॥

हे महावीर ! गज, अश्वादि से सुशोभित तुम्हारी इस सम्पूर्ण समृद्धि को देखता हुआ मैं प्रसन्न हूँ ॥ ३८ ॥ किंतु हे जलन्धर ! तुम्हारे घर में सर्वश्रेष्ठ स्त्रीरत्न नहीं है, इसलिये तुम विशेषरूप से स्त्रीरत्न को लाने का प्रयत्न करो । हे जलन्धर ! जिसके घर में सभी सुन्दर रत्न हों, किंतु यदि स्त्रीरत्न न हो, तो वे सब शोभित नहीं होते हैं और निश्चय ही वे सभी रत्न व्यर्थ हो जाते हैं ॥ ३९-४० ॥

सनत्कुमार बोले — महात्मा नारद की इस बात को सुनकर दैत्यराज काम से व्याकुलचित्त होकर कहने लगा — ॥ ४१ ॥

जलन्धर बोला — हे देवर्षे ! हे नारद ! आपको नमस्कार है । हे महाप्रभो ! इस समय वह श्रेष्ठ स्त्रीरत्न कहाँ है ? मुझे बताइये । हे ब्रह्मन् ! इस ब्रह्माण्ड में जहाँ कहीं भी वह स्त्रीरत्न है, तो मैं उसे वहाँ से लाऊँगा, यह सत्य है. सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ४२-४३ ॥

नारदजी बोले — अत्यन्त मनोहर सर्वसमृद्धि-सम्पन्न कैलास पर्वत पर योगी का रूप धारण किये हुए दिगम्बर शम्भु रहते हैं । सुरम्य, सभी लक्षणों से सम्पन्न, सर्वांगसुन्दरी तथा मनोहर पार्वती नामक उनकी भार्या है ॥ ४४-४५ ॥ हाव-भाव से पूर्ण ऐसा मनोहर रूप अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता । वह अत्यन्त अद्भुत रूप परम योगियों को भी मोहित करनेवाला, दर्शन के योग्य और सम्पूर्ण समृद्धियों को प्रदान करनेवाला है ॥ ४६ ॥

हे वीर ! हे जलन्धर ! मैं अपने मन में अनुमान करता हूँ कि स्त्रीरत्न से युक्त शिवजी से बढ़कर अन्य कोई भी इस समय तीनों लोकों में समृद्धिशाली नहीं है ॥ ४७ ॥ पूर्वकाल में जिसके लावण्य-समुद्र में डूबकर ब्रह्माजी ने अपना धैर्य खो दिया था, उससे किसी दूसरी स्त्री की उपमा कैसे की जा सकती है । जिसने अपनी लीला से काम के शत्रु, रागरहित तथा स्वतन्त्र शंकर को भी अपने वश में कर लिया है । हे दैत्येन्द्र ! उस स्त्रीरत्न का सेवन करनेवाले शिव की जैसी समृद्धि है, वैसी समृद्धि सम्पूर्ण रत्नों के अधिपति होने पर भी तुम्हारे पास नहीं है ॥ ४८-५० ॥

सनत्कुमार बोले — ऐसा कहकर देवताओं का उपकार करने के लिये उद्यत लोकविख्यात वे देवर्षि नारद आकाशमार्ग से चले गये ॥ ५१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में जलन्धरवधोपाख्यान में देवर्षि जलन्धरसंवादवर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

 

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