September 21, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 21 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः इक्कीसवाँ अध्याय नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणों का कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धर का युद्ध, भयाकुल शिवगणों का शिवजी को सारा वृत्तान्त बताना सनत्कुमार बोले — तब नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि गणाधिपतियों को देखकर वे दानव द्वन्द्वयुद्ध करने के लिये क्रोधपूर्वक दौड़े ॥ १ ॥ कालनेमि नन्दी की ओर, शुम्भ गणेश की ओर और निशुम्भ कार्तिकेय की ओर शंकित होकर दौड़ा ॥ २ ॥ शिवमहापुराण निशुम्भ ने कार्तिकेय के मयूर के हृदय में पाँच बाणों से वेगपूर्वक प्रहार किया, जिससे वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा । तब कुमार ने क्रोधित हो पाँच बाणों से उसके रथ, घोड़ों और सारथी पर प्रहार किया ॥ ३-४ ॥ इसके बाद रणदुर्मद उन वीर कार्तिकेय ने अपने दूसरे तीक्ष्ण बाण से देवशत्रु निशुम्भ पर बड़े वेग से प्रहार किया और घोर गर्जना की ॥ ५ ॥ महाबली निशुम्भ नामक असुर ने भी युद्ध में गर्जना करते हुए उन कार्तिकेय पर अपने बाण से प्रहार किया ॥ ६ ॥ तब कार्तिकेय ने जबतक क्रोध से अपना शक्ति नामक आयुध लिया, इतने में निशुम्भ ने वेगपूर्वक अपनी शक्ति से उन्हें गिरा दिया ॥ ७ ॥ हे व्यास ! इस प्रकार वीरध्वनि करके गरजते हुए कार्तिकेय एवं निशुम्भ का वहीं पर घोर युद्ध होने लगा ॥ ८ ॥ नन्दीश्वर ने भी अपने बाणों से कालनेमि को बेध दिया । उन्होंने अपने सात बाणों से कालनेमि के घोड़े, सारथी, रथ तथा ध्वजा का छेदन कर दिया ॥ ९ ॥ तब कालनेमि ने क्रुद्ध होकर अपने धनुष से छूटे हुए अत्यन्त तीखे बाणों से नन्दी का धनुष काट दिया ॥ १० ॥ उसके बाद नन्दीश्वर ने उस धनुष को त्यागकर शूल से महादैत्य कालनेमि के वक्षःस्थल पर जोर से प्रहार किया । इस प्रकार घोड़े और सारथि के नष्ट हो जाने पर एवं त्रिशूल से वक्षःस्थल के फट जाने पर उसने पर्वत का शिखर उखाड़कर नन्दीश्वर पर प्रहार किया ॥ ११-१२ ॥ उस समय रथ पर सवार शुम्भ एवं मूषक पर सवार श्रीगणेशजी युद्ध करते हुए एक-दूसरे को बाणसमूहों से बेधने लगे । उसके बाद गणेशजी ने शुम्भ के हृदय में बाण से प्रहार किया और तीन बाणों से सारथि पर प्रहार करके उसे पृथ्वी पर गिरा दिया । तब अत्यन्त कुपित शुम्भ भी बाणवृष्टि से गणेशजी को तथा तीन बाणों से मूषक को बेधकर मेघ के समान गर्जन करने लगा ॥ १३–१५ ॥ बाणों से छिन्न अंगवाला मूषक अत्यन्त पीड़ित होकर भाग चला, जिसके कारण गणेशजी गिर पड़े और वे पैदल ही युद्ध करने लगे । फिर तो उन लम्बोदर ने परशु से शुम्भ के वक्षःस्थल पर प्रहार करके उसे पृथ्वी पर गिरा दिया तदनन्तर वे पुनः मूषक पर सवार हो गये ॥ १६-१७ ॥ गणेशजी समर के लिये पुनः उद्यत हो गये और उन्होंने हँसकर क्रोध से शुम्भ पर इस प्रकार प्रहार किया. जैसे अंकुश से हाथी पर प्रहार होता हो ॥ १८ ॥ तब कालनेमि एवं निशुम्भ दोनों ही क्रोधपूर्वक एक साथ सर्प के समान [तीक्ष्ण] बाणों से शीघ्रता से गणेश पर प्रहार करने लगे । तब महाबली वीरभद्र उन्हें इस प्रकार पीड़ित किया जाता हुआ देखकर बड़े वेग से करोड़ों भूतों को साथ लेकर दौड़े ॥ १९-२० ॥ उनके साथ कूष्माण्ड, भैरव, वेताल, योगिनियाँ, पिशाच, डाकिनियाँ एवं गण भी चले ॥ २१ ॥ उस समय उन लोगोंके किलकिला शब्द, सिंहनाद, घर्घर एवं डमरू के शब्द से पृथ्वी निनादित होकर काँप उठी । उस समय समरभूमि में भूतगण दौड़-दौड़कर दानवों का भक्षण करने लगे और उनके ऊपर चढ़कर उन्हें गिराने लगे और नाचने लगे ॥ २२-२३ ॥ हे व्यास ! इसी बीच नन्दी और कार्तिकेय को चेतना आ गयी और वे उठ गये तथा रणभूमि में गरजने लगे ॥ २४ ॥ वे नन्दीश्वर एवं कार्तिकेय शीघ्र रणभूमि में आ गये और अपने बाणों द्वारा दैत्यों पर निरन्तर प्रहार करने लगे ॥ २५ ॥ तब छिन्न-भिन्न हुए दैत्यगण पृथ्वी पर गिरने लगे और उन गिरे हुए दैत्यों को भूतगण खाने लगे, इससे दैत्यों की सेना विषादग्रस्त तथा व्याकुल हो गयी ॥ २६ ॥ इस प्रकार प्रतापी नन्दी, कार्तिकेय, गणेशजी, वीरभद्र तथा अन्य गण युद्धभूमि में जोर-जोर से गरजने लगे ॥ २७ ॥ जलन्धर के वे दोनों सेनापति शुम्भ-निशुम्भ, महादैत्य कालनेमि एवं अन्य असुर पराजित हो गये ॥ २८ ॥ तब अपनी सेना को विध्वस्त हुआ देखकर बलवान् जलन्धर ऊँची पताकावाले रथ पर सवार हो गणों के समक्ष आ गया ॥ २९ ॥ हे व्यासजी ! तब पराजित हुए दैत्य भी महान् उत्साह से भर गये और युद्ध के लिये तैयार होकर गरजने लगे ॥ ३० ॥ हे मुने ! विजयशील शिव के गण नन्दी, कार्तिकेय, गजानन, वीरभद्र आदि भी गर्जना करने लगे ॥ ३१ ॥ उस समय दोनों सेनाओं में हाथियों, घोड़ों तथा रथों के शब्द, शंख एवं भेरियों की ध्वनि एवं सिंहनाद होने लगे ॥ ३२ ॥ जलन्धर के बाणसमूहों से द्युलोक तथा भूलोक के बीच का स्थान उसी प्रकार आच्छादित हुआ, जैसे कुहरे से आकाश आच्छन्न हो जाता है । वह नन्दी पर पाँच, गणेश पर पाँच और वीरभद्र पर बीस बाणों से प्रहार करके मेघ के समान गर्जन करने लगा । तब रुद्रपुत्र महावीर कार्तिकेय ने बड़ी शीघ्रता से अपनी शक्ति द्वारा उस दैत्य जलन्धर पर प्रहार किया और वे गर्जन करने लगे ॥ ३३-३५ ॥ शक्ति से विदीर्ण देहवाला वह महाबली दैत्य आँखों को घुमाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा, किंतु बड़ी शीघ्रता से उठ गया । इसके बाद उस दैत्यश्रेष्ठ जलन्धर ने बड़े क्रोध से कार्तिकेय के हृदय में गदा से प्रहार किया ॥ ३६-३७ ॥ हे व्यासजी ! तब वे शंकरपुत्र कार्तिकेय ब्रह्मा के द्वारा दिये गये वरदान के कारण उस गदा के प्रहार को सफल प्रदर्शित करते हुए शीघ्र पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ ३८ ॥ इसी प्रकार शत्रुहन्ता एवं महावीर नन्दी भी गदा के प्रहार से घायल होकर कुछ व्याकुलमन हो पृथ्वी पर गिर पड़े । उसके बाद महाबली गणेशजी ने अत्यन्त क्रुद्ध हो शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके बड़े वेग से दौड़कर अपने परशु से दैत्य की गदा को काट दिया ॥ ३९-४० ॥ वीरभद्र ने तीन बाणों से उस दानव के वक्षःस्थल पर प्रहार किया तथा सात बाणों से उसके घोड़ों, ध्वजा, धनुष एवं छत्र को काट डाला ॥ ४१ ॥ तब दैत्येन्द्र ने अत्यधिक कुपित होकर अपनी दारुण शक्ति को उठाकर उसके प्रहार से गणेश को [पृथ्वी पर] गिरा दिया और स्वयं दूसरे रथ पर सवार हो गया ॥ ४२ ॥ इसके बाद वह दैत्येन्द्र क्रोधित होकर अपने मन में उन वीरभद्र को कुछ न समझकर वेगपूर्वक उनकी ओर दौड़ा । दैत्यराज महावीर जलन्धर ने तीखे बाण से शीघ्रतापूर्वक उन वीरभद्र पर प्रहार किया और गर्जना की ॥ ४३-४४ ॥ तब वीरभद्र ने भी अति क्रुद्ध होकर तीक्ष्ण धारवाले बाण से उसके बाण को काट दिया और अपने महान् बाण से उसपर प्रहार किया । इस प्रकार सूर्य के समान अत्यन्त तेजस्वी तथा वीरवरों में श्रेष्ठ वे दोनों अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से बहुत समय तक परस्पर युद्ध करते रहे । वीरभद्र ने अपने बाणों से उस रथी दैत्य के घोड़ों को अनेक बाणों से मार गिराया और उसके धनुष तथा ध्वज को भी वेगपूर्वक काट दिया ॥ ४५-४७ ॥ इसके बाद वह महाबली दैत्यराज परिघ-अस्त्र लेकर दौड़ा और वीरभद्र के पास शीघ्र जा पहुँचा ॥ ४८ ॥ उस महाबली वीर समुद्रपुत्र जलन्धर ने उस विशाल परिघ से वीरभद्र के सिर पर प्रहार किया और गर्जना की ॥ ४९ ॥ उस महान् परिघ से गणेश्वर वीरभद्र का सिर फट गया और वे पृथ्वी पर गिर पड़े, [उनके सिर से] बहुत रक्त बहने लगा ॥ ५० ॥ वीरभद्र को पृथ्वी पर गिरा हुआ देखकर रुद्रगण भय से शंकरजी को पुकारते हुए रणभूमि छोड़कर भागने लगे ॥ ५१ ॥ तब शिवजी ने गणों का कोलाहल सुनकर अपने समीप में स्थित महाबली गणों से पूछा ॥ ५२ ॥ शिवजी बोले — हे महावीरो ! मेरे गणों का यह महान् कोलाहल क्यों हो रहा है, तुमलोग पता लगाओ । मैं इसे शीघ्र ही शान्त करूँगा ॥ ५३ ॥ वे देवेश अभी गणों से आदरपूर्वक पूछ ही रहे थे, तभी वे श्रेष्ठ गण प्रभु शिव के पास पहँच गये ॥ ५४ ॥ उन्हें विकल देखकर प्रभु शंकरजी उनका कुशल पूछने लगे, तब उन गणों ने विस्तारपूर्वक सारा वृत्तान्त यथावत् कह दिया । तब महान् लीला करनेवाले प्रभु भगवान् रुद्र ने उसे सुनकर महान् उत्साह बढ़ाते हुए उन्हें अभय प्रदान किया ॥ ५५-५६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में जलन्धरवधोपाख्यान में विशेष युद्धवर्णन नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥ Related