September 21, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 23 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः तेईसवाँ अध्याय विष्णु द्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दा को स्वप्न के माध्यम से मोहित करना और स्वयं जलन्धर का रूप धारणकर वृन्दा के पातिव्रत का हरण करना, वृन्दा द्वारा विष्णु को शाप देना तथा वृन्दा के तेज का पार्वती में विलीन होना व्यासजी बोले — हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! हे वक्ताओं में श्रेष्ठ ! अब आप बताइये कि विष्णु ने वहाँ जाकर क्या किया और उस [स्त्री]-ने अपने धर्म को कैसे छोड़ा ? ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले — दैत्य जलन्धर के नगर में जाकर विष्णु वृन्दा के पातिव्रतधर्म को नष्ट करने का विचार करने लगे । मायावियों में श्रेष्ठ उन्होंने वृन्दा को स्वप्न दिखाया और स्वयं अद्भुत रूप धारण करके उसके नगर के उद्यान में स्थित हो गये । तब उसकी पतिव्रता पत्नी देवी वृन्दा ने विष्णु की माया के प्रभाव से रात्रि में दुःस्वप्न देखा ॥ २-४ ॥ शिवमहापुराण उसने विष्णु की माया से स्वप्न में देखा कि उसका पति भैंसे पर आरूढ़ होकर शरीर में तेल लगाये हुए नग्न होकर काले पुष्पों से विभूषित हो राक्षसों के साथ दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है, उसका सिर मुंड़ा हुआ है और वह अन्धकार से ढका हुआ है ॥ ५-६ ॥ इसी तरह उसने अपने को और अपने नगर को समुद्र में डूबते हुए देखा । इस प्रकार उसने रात्रि के शेष भाग में बहुत प्रकार के दुःस्वप्नों को देखा ॥ ७ ॥ इसके बाद वह बाला जगकर देखे गये अपने स्वप्नों पर विचार कर ही रही थी कि उसने उदित होते हुए सूर्य को छिद्रयुक्त और निष्प्रभ देखा ॥ ८ ॥ इन घटनाओं को अनिष्टकारी जानकर वह भय से विह्वल हो गयी और रोने लगी, उसे द्वार, अट्टालिका आदि कहीं भी शान्ति नहीं मिली ॥ ९ ॥ तदनन्तर वह अपनी दो सखियों के साथ नगर के बगीचे में आयी, परंतु उस बाला को वहाँ भी कुछ शान्ति नहीं मिली ॥ १० ॥ इसके बाद वह जलन्धर की स्त्री दुःखित होकर घबराती हुई एक वन से दूसरे वन में गयी, किंतु वह अपने विषय में कुछ नहीं समझ पायी ॥ ११ ॥ घूमती हुई उस बाला ने सिंह के समान मुखवाले, चमकते हुए दाढ़ और दाँतवाले भयंकर दो राक्षसों को देखा ॥ १२ ॥ उन दोनों को देखकर भय से विह्वल वह ज्यों ही भागने लगी, त्यों ही उसने शिष्य के साथ मौन बैठे हुए शान्त एक तपस्वी को देखा ॥ १३ ॥ तदनन्तर भयभीत उसने उन तपस्वी के गले में भुजारूपी लता को डालकर कहा — हे मुने ! मेरी रक्षा कीजिये, मैं आपकी शरण में आयी हूँ ॥ १४ ॥ दो राक्षसों द्वारा पीछा की जाती हुई तथा भय से विह्वल उसको देखकर मुनि ने ‘हूँ’ शब्द से ही उन दोनों राक्षसों को शीघ्र भगा दिया ॥ १५ ॥ हे मुने ! उनके हुंकारमात्र से भयभीत होकर भागते हुए उन दोनों राक्षसों को देखकर वह दैत्येन्द्रपत्नी वृन्दा अपने मन में बहुत अधिक विस्मित हो गयी ॥ १६ ॥ तदनन्तर भयमुक्त वृन्दा ने उन मुनिनाथ को हाथ जोड़कर दण्डवत् भूमि पर प्रणामकर यह वचन कहा — ॥ १७ ॥ वृन्दा बोली — हे दया के सागर ! हे मुनिनाथ ! हे दूसरों की पीड़ा को दूर करनेवाले ! इन दुष्टों के घोर भय से आपने मेरी रक्षा की है ॥ १८ ॥ हे कृपा के सागर ! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं, सर्वथा समर्थ हैं, तथापि मैं आपसे कुछ निवेदन करना चाहती हूँ, कृपया आप उसे सुनें ॥ १९ ॥ हे प्रभो ! मेरे स्वामी जलन्धर रुद्र से युद्ध करने के लिये गये हैं । वे वहाँ युद्ध में कैसे हैं ? हे सुव्रत ! आप उसे मुझसे कहिये ॥ २० ॥ सनत्कुमार बोले — उसके वाक्य को सुनकर कपट करके मौन बैठा हुआ तथा स्वार्थ को सिद्ध करने में कुशल वह मुनि कृपा करके ऊपर की ओर देखने लगा ॥ २१ ॥ उसी समय दो बन्दर आये और उसको प्रणामकर सामने खड़े हो गये । इसके बाद उनकी भौंहों के इशारे से नियुक्त होकर वे आकाश की ओर चले गये ॥ २२ ॥ हे मुनीश्वर ! आधे क्षण में ही लौटकर जलन्धर के मस्तक, धड़ और दोनों हाथों को लेकर वे उसके सामने खड़े हो गये ॥ २३ ॥ वह वृन्दा सिन्धुनन्दन जलन्धर के सिर, धड़ और दोनों हाथों को देखकर पति के दुःख से दुखित तथा मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी [और विलाप करने लगी] ॥ २४ ॥ वृन्दा बोली — हे प्रभो ! जो आप पहले सुख की बात सुनाकर मुझे प्रसन्न किया करते थे, वही आज आप अपनी निरपराध पत्नी से बोलते क्यों नहीं हैं ? ॥ २५ ॥ अहो ! जिन्होंने पहले गन्धर्वों के साथ विष्णु और देवताओं को भी पराजित कर दिया था, वे ही त्रैलोक्यविजयी आज एक तपस्वी से कैसे मारे गये हैं ? ॥ २६ ॥ हे दैत्यश्रेष्ठ ! मैंने आपसे पूर्व में कहा था कि शिव परब्रह्म हैं, परंतु आपने रुद्र के तत्त्व को न जानकर मेरे उस वाक्य को स्वीकार नहीं किया ॥ २७ ॥ आपकी सेवा के प्रभाव से मैंने जान लिया था कि आप कुसंग के वशीभूत होकर गर्व के कारण मेरी बात नहीं मान रहे हैं ॥ २८ ॥ अपने धर्म में परायण जलन्धर की पत्नी इस प्रकार कह-कहकर दुखित हृदय से अनेक प्रकार से विलाप करने लगी ॥ २९ ॥ तदनन्तर दुःख से उच्छ्वास छोड़ती हुई तथा धैर्य धारणकर वह वृन्दा उन मुनिश्रेष्ठ को प्रणामकर हाथ जोड़कर बोली — ॥ ३० ॥ हे कृपानिधे ! हे मुनिश्रेष्ठ ! दूसरे का उपकार करने में ही आपका आदर है । इसलिये मुझपर कृपा करके हे साधो ! मेरे इस स्वामी को आप जीवित कर दें ॥ ३१ ॥ हे मुनीश्वर ! मैं समझती हूँ कि आप पुनः इनको जीवित करने में समर्थ हैं, इसलिये मेरे प्राणनाथ को आप जीवित कर दें ॥ ३२ ॥ सनत्कुमार बोले — इस प्रकार कहकर पातिव्रतधर्म में तत्पर वह दैत्यपत्नी दुःख से श्वास छोड़ती हुई उनके पैरों पर गिर पड़ी ॥ ३३ ॥ मुनि बोले — यह युद्ध में रुद्र के द्वारा मारा गया है, इसलिये इसको जिलाने में मैं समर्थ नहीं हूँ; क्योंकि रुद्र के द्वारा युद्ध में मारा गया व्यक्ति कभी जीवित नहीं होता ॥ ३४ ॥ तथापि शरणागत की रक्षा करनी चाहिये, इस शाश्वत धर्म को जानता हुआ मैं कृपा से युक्त होकर इसे जीवित कर देता हूँ ॥ ३५ ॥ सनत्कुमार बोले — हे मुने ! सभी मायावियों में श्रेष्ठ वे मुनिरूपी विष्णु ऐसा कहकर उसके पति को जीवित करके वहाँ से अन्तर्धान हो गये ॥ ३६ ॥ उनके द्वारा जीवित समुद्रपुत्र जलन्धर भी शीघ्र उठकर प्रसन्नमन से वृन्दा का आलिंगनकर उसके मुख का स्पर्श करने लगा ॥ ३७ ॥ पति को देखकर वृन्दा ने हर्षित मन से सभी प्रकार के शोक का परित्याग कर दिया और इस घटना को स्वप्न के समान समझा ॥ ३८ ॥ वह प्रसन्नचित्त से काम का उदय होने पर उस वन के मध्य में ही उसके साथ बहुत दिनों तक विहार करती रही ॥ ३९ ॥ एक बार सहवास के अन्त में उसको विष्णु के रूप में जानकर क्रोध से युक्त होकर फटकारती हुई वृन्दा यह वचन बोली — ॥ ४० ॥ वृन्दा बोली — अरे परस्त्रीगामी हरि ! तुम्हारे इस प्रकार के चरित्र को धिक्कार है । मैंने तुमको अच्छी प्रकार से जान लिया है । तुमने ही माया का आश्रय लेकर तपस्वी का वेष धारण किया था ॥ ४१ ॥ सनत्कुमार बोले — हे व्यास ! पातिव्रतपरायण उस वृन्दा ने ऐसा कहकर क्रोधयुक्त होकर अपने तेज को दिखाते हुए विष्णु को शाप दे दिया — ॥ ४२ ॥ रे महाधम ! दैत्यशत्रु ! तुम दूसरे के धर्म को दूषित करनेवाले हो, इसलिये अरे शठ ! सभी प्रकार के विषों से तीव्र मेरे द्वारा दिये गये शाप को ग्रहण करो ॥ ४३ ॥ तुमने अपनी माया से जिन दो पुरुषों को दिखाया था, वे ही दोनों राक्षस बनकर तुम्हारी पत्नी का हरण करेंगे ॥ ४४ ॥ तुम भी पत्नी के दुःख से दुखित होकर वानरों की सहायता लेकर वन में भटकते हुए घूमो और यह जो सर्पों का स्वामी (शेषनाग) तुम्हारा शिष्य बना था, यह भी तुम्हारे साथ भ्रमण करे ॥ ४५ ॥ ऐसा कहकर वह वृन्दा उस समय विष्णु के द्वारा रोके जाने पर भी अपने पति जलन्धर का मन में ध्यान करते हुए अग्नि में प्रवेश कर गयी ॥ ४६ ॥ हे मुने ! उस समय उसकी उत्तम गति को देखने की इच्छावाले ब्रह्मा आदि सभी देवता अपनी भार्याओं के साथ आकाशमण्डल में स्थित हो गये ॥ ४७ ॥ उस समय दैत्येन्द्रपत्नी की वह परम ज्योति देवताओं के देखते-देखते ही शीघ्र अदृष्ट हो गयी और शिवा पार्वती के शरीर में उस वृन्दा का तेज विलीन हो गया । उस समय आकाश में स्थित देवताओं ने जय-जय की ध्वनि की ॥ ४८-४९ ॥ हे मुने ! इस प्रकार कालनेमि की श्रेष्ठ पुत्री महारानी वृन्दा ने पातिव्रत के प्रभाव से परा मुक्ति को प्राप्त किया ॥ ५० ॥ उस समय हरि ने उसका स्मरणकर उसकी चिता की भस्मधूलि को धारण कर लिया, देवता और सिद्धों के ज्ञान देने पर भी उनको कुछ शान्ति नहीं मिली और वे वहीं पर स्थित हो गये ॥ ५१ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में जलन्धरवधोपाख्यान के अन्तर्गत वृन्दापातिव्रतभंग और देहत्यागवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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