शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 26
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
छब्बीसवाँ अध्याय
विष्णुजी के मोहभंग के लिये शंकरजी की प्रेरणा से देवों द्वारा मूलप्रकृति की स्तुति, मूलप्रकृति द्वारा आकाशवाणी के रूप में देवों को आश्वासन, देवताओं द्वारा त्रिगुणात्मिका देवियों का स्तवन, विष्णु का मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसी की उत्पत्ति का आख्यान

व्यासजी बोले — हे ब्रह्मपुत्र ! आपको नमस्कार है । हे श्रेष्ठ शिवभक्त ! आप धन्य हैं, जो आपने शंकरजी की यह महादिव्य शुभ कथा सुनायी । हे मुने ! अब आप प्रेमपूर्वक श्रीविष्णुजी के चरित्र को सुनाइये, उन्होंने वृन्दा को मोहितकर क्या किया और वे कहाँ गये ? ॥ १-२ ॥

शिवमहापुराण

सनत्कुमार बोले — हे महाप्राज्ञ ! हे शिवभक्तों में श्रेष्ठ व्यासजी ! अब आप शिवचरित्र से परिपूर्ण तथा निर्मल विष्णुचरित्र को सुनिये । जब ब्रह्मादिक देवता [स्तुतिकर] मौन हो गये, तब शरणागतवत्सल शंकर अति प्रसन्न होकर कहने लगे — ॥ ३-४ ॥

शम्भु बोले — हे ब्रह्मन् ! हे सभी श्रेष्ठ देवगण ! मैं यह सत्य-सत्य कह रहा हूँ कि यद्यपि जलन्धर मेरा ही अंश था, फिर भी मैंने आपलोगों के लिये उसका वध किया । हे तात ! हे देवतागण ! आपलोग सच-सच बताइये कि आपलोगों को सुख प्राप्त हुआ अथवा नहीं । सर्वदा मुझ निर्विकार की लीला आपलोगों के निमित्त ही हुआ करती है ॥ ५-६ ॥

सनत्कुमार बोले — तदनन्तर देवताओं के नेत्र हर्ष से खिल उठे और वे शंकरजी को प्रणामकर विष्णु का वृत्तान्त निवेदन करने लगे ॥ ७ ॥

देवता बोले — हे महादेव ! हे देव ! आपने शत्रुओं के भय से हमारी रक्षा की, किंतु एक बात और हुई है, उसमें हम क्या करें ? ॥ ८ ॥ हे नाथ ! विष्णु ने बड़े प्रयत्न के साथ वृन्दा को मोहित किया और वह शीघ्र ही अग्नि में भस्म होकर परम गति को प्राप्त हुई है, किंतु इस समय वृन्दा के लावण्य पर आसक्त हुए विष्णु मोहित होकर उसकी चिता का भस्म धारण करते हैं, वे आपकी माया से विमोहित हो गये हैं ॥ ९-१० ॥

सिद्धों, मुनियों तथा हमलोगों ने उन्हें बड़े आदर के साथ समझाया, किंतु वे हरि आपकी माया से मोहित होने के कारण कुछ भी नहीं समझ रहे हैं ॥ ११ ॥ अतः हे महेशान ! आप कृपा कीजिये और विष्णु को समझाइये; यह प्राकृत सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके ही अधीन है ॥ १२ ॥

सनत्कुमार बोले — देवगणों के इस वचन को सुनकर महालीला करनेवाले तथा स्वतन्त्र [भगवान्] शंकर हाथ जोड़े हुए उन देवगणों से कहने लगे — ॥ १३ ॥

महेश बोले — हे ब्रह्मन् ! हे देवो ! आपलोग श्रद्धापूर्वक मेरे वचन को सुनें । सम्पूर्ण लोकों को मोहित करनेवाली मेरी माया दुस्तर है । देवता, असुर एवं मनुष्यों के सहित सारा जगत् उसी के अधीन है । उसी माया से मोहित होने के कारण विष्णु काम के अधीन हो गये हैं ॥ १४-१५ ॥

वह माया ही उमा नाम से विख्यात है, जो इन तीनों देवताओं की जननी है । वही मूलप्रकृति तथा परम मनोहर गिरिजा के नाम से विख्यात है । हे देवताओ ! आपलोग विष्णु का मोह दूर करने के लिये शीघ्र ही शरणदायिनी, मोहिनी तथा सभी कामनाएँ पूर्ण करनेवाली शिवा नामक माया की शरण में जाइये और उस मेरी शक्ति को सन्तुष्ट करनेवाली स्तुति कीजिये, यदि वे प्रसन्न हो जायँगी तो [आपलोगों का] सारा कार्य पूर्ण करेंगी ॥ १६–१८ ॥

सनत्कुमार बोले — हे व्यास ! पंचमुख भगवान् शंकर हर उन देवताओं से ऐसा कहकर अपने सभी गणों के साथ अन्तर्धान हो गये और शंकर की आज्ञा के अनुसार इन्द्रसहित ब्रह्मादिक देवता मन से भक्तवत्सला मूलप्रकृति की स्तुति करने लगे ॥ १९-२० ॥

देवता बोले — जिस मूलप्रकृति से उत्पन्न हुए सत्त्व, रज और तम — ये गुण इस सृष्टि का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं और जिसकी इच्छा से इस विश्व का आविर्भाव तथा तिरोभाव होता है, उस मूलप्रकृति को हम नमस्कार करते हैं । जो परा शक्ति शब्द आदि तेईस गुणों से समन्वित हो इस जगत् में व्याप्त है, जिसके रूप और कर्म को वे तीनों लोक नहीं जानते, उस मूलप्रकृति को हम नमस्कार करते हैं ॥ २१-२२ ॥

जिनकी भक्ति से युक्त पुरुष दारिद्र्य, मोह, उत्पत्ति तथा विनाश आदि को नहीं प्राप्त करते हैं, उन भक्तवत्सला मूलप्रकृति को हम नमस्कार करते हैं ॥ २३ ॥ हे महादेवि ! हे परमेश्वरि ! हम देवताओं का कार्य कीजिये । हे शिवे ! विष्णु के मोह को दूर कीजिये । हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है ॥ २४ ॥

हे देवि ! कैलासवासी शंकर एवं जलन्धर के युद्ध में उसका वध करने के लिये शिव के प्रवृत्त होने पर गौरी के आदेश से ही विष्णु ने बड़े प्रयत्न के साथ वृन्दा को मोहित किया और उसका सतीत्व नष्ट किया । तब वह अग्नि में भस्म हो गयी और उत्तम गति को प्राप्त हुई ॥ २५-२६ ॥

तब भक्तों पर अनुग्रह करनेवाले शंकर ने हमलोगों पर कृपा करके जलन्धर का वध कर दिया और हम सभी को उसके भय से मुक्त भी कर दिया है ॥ २७ ॥ हे देवि ! हम सभी उन शंकर की आज्ञा से आपकी शरण में आये हैं; क्योंकि आप और शंकर दोनों ही अपने भक्तों का उद्धार करने में निरत रहते हैं ॥ २८ ॥

[हे भगवति!] वृन्दा के लावण्य से भ्रमित हुए विष्णु इस समय ज्ञान से भ्रष्ट तथा विमोहित होकर उसकी चिता का भस्म धारणकर वहीं स्थित हैं ॥ २९ ॥ हे महेश्वरि ! आपकी माया से मोहित होने के कारण सिद्धों तथा देवताओं के द्वारा समझाये जाने पर भी वे विष्णु नहीं समझ रहे हैं । हे महादेवि ! कृपा कीजिये और विष्णु को समझाइये, जिससे देवताओं का कार्य करनेवाले वे विष्णु स्वस्थचित्त होकर अपने लोक की रक्षा करें ॥ ३०-३१ ॥

इस प्रकार की स्तुति करते हुए देवताओं ने अपनी कान्ति से समस्त दिशाओं को व्याप्त किये हुए एक तेजोमण्डल को आकाश में स्थित देखा । हे व्यास ! इन्द्रसहित ब्रह्मा आदि सभी देवताओंने मनोरथोंको देनेवाली आकाशवाणी उस [तेजोमण्डल]-के मध्य से सुनी ॥ ३२-३३ ॥

आकाशवाणी बोली — हे देवताओ ! मैं ही तीन प्रकार के गुणों के द्वारा अलग-अलग तीन रूपों में स्थित हूँ; रजोगुणरूप से गौरी, सत्त्वगुण से लक्ष्मी तथा तमोगुण से सुराज्योति के रूप में स्थित हूँ । अतः आपलोग मेरी आज्ञा से उन देवियों के समीप आदरपूर्वक जाइये, वे प्रसन्न होकर उस मनोरथ को पूर्ण करेंगी ॥ ३४-३५ ॥

सनत्कुमार बोले — हे मुने ! विस्मय से उत्फुल्ल नेत्रोंवाले देवताओं द्वारा उस वाणी को सुनते ही वह तेज अन्तर्धान हो गया । तत्पश्चात् सभी देवगण उस आकाशवाणी को सुनकर तथा उस वाक्य से प्रेरित होकर गौरी, लक्ष्मी तथा सुरादेवी को प्रणाम करने लगे ॥ ३६-३७ ॥

ब्रह्मादि सभी देवताओं ने नतमस्तक होकर विविध स्तुतियों से परम भक्तिपूर्वक उन देवियों की स्तुति की ॥ ३८ ॥ हे व्यासजी ! तब वे देवियाँ अपने अद्भुत तेज से सभी दिशाओं को प्रकाशित करती हुईं शीघ्र ही उनके समक्ष प्रकट हो गयीं । तब देवताओं ने उन देवियों को देखकर अत्यन्त प्रसन्नमन से उन्हें प्रणाम करके भक्ति से उनकी स्तुति की और अपना कार्य निवेदित किया ॥ ३९-४० ॥

इसके बाद भक्तवत्सला उन देवियों ने प्रणाम करते हुए देवताओं को देखकर उन्हें अपना-अपना बीज दिया और आदरपूर्वक उनसे यह वचन कहा — ॥ ४१ ॥

देवियाँ बोलीं — [हे देवगणो!] जहाँ विष्णु स्थित हैं, वहाँ इन बीजों को बो देना, इससे आपलोगों का कार्य सिद्ध हो जायगा ॥ ४२ ॥

सनत्कुमार बोले — हे मुने ! इस प्रकार कहकर वे देवियाँ अन्तर्धान हो गयीं । वे ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र की त्रिगुणात्मक शक्तियाँ थीं । तब इन्द्रसहित ब्रह्मा आदि सभी देवता प्रसन्न हो गये और उन बीजों को लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान् विष्णु स्थित थे ॥ ४३-४४ ॥ हे मुने ! उन देवताओं ने वृन्दा की चिता के नीचे भूतल पर उन बीजों को डाल दिया और उन शिवशक्तियों का स्मरण करके वे वहीं पर स्थित हो गये ॥ ४५ ॥

हे मुनीश्वर ! उन डाले गये बीजों से धात्री, मालती तथा तुलसी नामक तीन वनस्पतियाँ उत्पन्न हो गयीं । धात्री के अंश से धात्री, महालक्ष्मी के अंश से मालती तथा गौरी के अंश से तुलसी हुई, जो तम, सत्त्व तथा रजोगुण से युक्त थीं ॥ ४६-४७ ॥ हे मुने ! तब स्त्रीरूपिणी उन वनस्पतियों को देखकर उनके प्रति विशेष रागविलास के विभ्रम से युक्त होकर विष्णुजी उठ बैठे । उन्हें देखकर मोह के कारण कामासक्त चित्त से वे उनके प्रेम की याचना करने लगे । तुलसी एवं धात्री ने भी रागपूर्वक उनका अवलोकन किया ॥ ४८-४९ ॥

सर्वप्रथम लक्ष्मी ने जिस बीज को माया से देवताओं को दिया था, उससे उत्पन्न हुई स्त्री मालती उनसे ईर्ष्या करने लगी । इसलिये वह बर्बरी — इस गर्हित नाम से पृथ्वी पर विख्यात हुई और धात्री तथा तुलसी राग के कारण उन विष्णु के लिये सदा प्रीतिप्रद हुईं ॥ ५०-५१ ॥ तब विष्णु का दुःख दूर हो गया और वे सभी देवताओं से नमस्कृत होते हुए प्रसन्न होकर उन दोनों के साथ वैकुण्ठलोक को चले गये । हे विप्रेन्द्र ! कार्तिक के महीने में धात्री और तुलसी को सभी देवताओं के लिये प्रिय जानना चाहिये और विशेष करके ये विष्णु को अत्यन्त प्रिय हैं । हे महामुने ! उन दोनों में भी तुलसी अत्यन्त श्रेष्ठ तथा धन्य है । यह गणेश को छोड़कर सभी देवताओं को प्रिय है तथा सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है ॥ ५२-५४ ॥

इस प्रकार ब्रह्मा, इन्द्र आदि वे देवता विष्णु को वैकुण्ठ में स्थित देखकर उनको नमस्कारकर तथा उनकी स्तुति कर अपने-अपने स्थान को चले गये ॥ ५५ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! मोह भंग हो जाने से विष्णुजी ज्ञान प्राप्तकर शिवजी का स्मरण करते हुए अपने वैकुण्ठलोक में सुखपूर्वक निवास करने लगे । यह आख्यान मनुष्यों के सभी पापों को दूर करनेवाला, मनुष्यों की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करनेवाला, समस्त कामविकारों को नष्ट करनेवाला तथा सभी प्रकार के विज्ञान को बढ़ानेवाला है ॥ ५६-५७ ॥

जो भक्ति से युक्त होकर इस आख्यान को नित्य पढ़ता, पढ़ाता है, सुनता अथवा सुनाता है, वह परम गति को प्राप्त करता है । जो बुद्धिमान् वीर इस अत्युत्तम आख्यान को पढ़कर संग्राम में जाता है, वह विजयी होता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५८-५९ ॥

यह [आख्यान] ब्राह्मणों को ब्रह्मविद्या देनेवाला, क्षत्रियों को जय प्रदान करनेवाला, वैश्यों को अनेक प्रकारका धन देनेवाला तथा शूद्रों को सुख देनेवाला है ॥ ६० ॥ हे व्यासजी ! यह शिवजी में भक्ति प्रदान करनेवाला, सभी के पापों का नाश करनेवाला और इस लोक तथा परलोक में उत्तम गति देनेवाला है ॥ ६१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में जलन्धर के वध के पश्चात् देवीस्तुति विष्णुमोहविध्वंसवर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥

 

 

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