शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 28
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
अट्ठाईसवाँ अध्याय
शंखचूड की पुष्कर-क्षेत्र में तपस्या, ब्रह्मा द्वारा उसे वर की प्राप्ति, ब्रह्मा की प्रेरणा से शंखचूड का तुलसी से विवाह

सनत्कुमार बोले — इसके बाद उस शंखचूड ने जैगीषव्य महर्षि के उपदेश से ब्रह्माजी के पुष्कर-क्षेत्र में प्रीतिपूर्वक बहुत कालपर्यन्त तप किया । उसने एकाग्रमन होकर इन्द्रियों तथा उनके विषयों को जीतकर गुरु के द्वारा दी गयी ब्रह्मविद्या का जप करना प्रारम्भ किया ॥ १-२ ॥

शिवमहापुराण

इस प्रकार पुष्कर में तप करते हुए उस शंखचूड दानव को वर देने के लिये लोकगुरु विभु ब्रह्मा शीघ्र वहाँ गये ॥ ३ ॥ ब्रह्मा ने जब उस दानवेन्द्र से कहा — ‘वर माँगो’ तब वह उन्हें देखकर अत्यधिक विनम्र होकर श्रेष्ठ वाणी से उनकी स्तुति करने लगा । उसके बाद उसने ब्रह्मा से वर माँगा कि देवगण मुझे जीत न सकें । तब ब्रह्माजी ने प्रसन्न मन से उससे कहा कि ऐसा ही होगा ॥ ४-५ ॥

उन्होंने उस शंखचूड को जगत् के मंगल को भी मंगल बनानेवाला (‘जगन्मंगलमंगल’ नामक) और सर्वत्र विजय प्रदान करनेवाला दिव्य श्रीकृष्णकवच प्रदान किया ॥ ६ ॥ ‘तुम बदरिकाश्रम चले जाओ और वहाँ तुलसी के साथ विवाह करो । वह पति की कामना से वहीं पर तप कर रही है । वह धर्मध्वज की कन्या है’ — इस प्रकार ब्रह्माजी ने उससे कहा और उसके देखते-देखते शीघ्र ही उसी क्षण अन्तर्धान हो गये ॥ ७-८ ॥

तदनन्तर तपस्या से सिद्धि प्राप्तकर उस शंखचूड ने वहीं पुष्कर में ही जगत् के परम कल्याणकारी उस कवच को गले में बाँध लिया । इसके बाद तपस्या से सिद्ध मनोरथवाला प्रसन्नमुख वह शंखचूड ब्रह्मा की आज्ञा से शीघ्र ही बदरिकाश्रम में आया ॥ ९-१० ॥ वह दानव शंखचूड अपनी इच्छा से घूमते हुए वहाँ आ गया, जहाँ धर्मध्वज की कन्या तुलसी तप कर रही थी । सुन्दर रूपवाली, मन्द-मन्द मुसकानवाली, सूक्ष्म कटिप्रदेशवाली तथा शुभ भूषणों से भूषित उसने उस श्रेष्ठ पुरुष को कटाक्षपूर्ण दृष्टि से देखा ॥ ११-१२ ॥ तब शंखचूड भी उस मनोहर, रम्य, सुशील, सुन्दरी एवं सती को देखकर उसके समीप स्थित हो गया और मधुर वाणी में उससे कहने लगा — ॥ १३ ॥

शंखचूड बोला — [हे देवि!] तुम कौन हो, किसकी कन्या हो, तुम यहाँ क्या कर रही हो और मौन होकर यहाँ क्यों बैठी हो ? तुम मुझे अपना दास समझकर सम्भाषण करो ॥ १४ ॥

सनत्कुमार बोले — इस प्रकार का वचन सुनकर उस तुलसी ने सकामभाव से उससे कहा — ॥ १५ ॥

तुलसी बोली — मैं धर्मध्वज की कन्या हूँ और इस तपोवन में तपस्या करती हूँ । तुम कौन हो ? सुखपूर्वक यहाँ से चले जाओ ॥ १६ ॥ नारी जाति ब्रह्मा आदि को भी मोह लेनेवाली, विष के समान, निन्दनीय, दूषित करनेवाली, मायारूपिणी तथा ज्ञानियों के लिये श्रृंखला के समान होती है ॥ १७ ॥

सनत्कुमार बोले — इस प्रकार उससे मधुर वचन बोलकर तुलसी चुप हो गयी । तब मन्द-मन्द मुसकानवाली उस तुलसी की ओर देखकर वह भी कहने लगा — ॥ १८ ॥

शंखचूड बोला — हे देवि ! तुमने जो कहा है, वह सब झूठ नहीं है, उसमें कुछ सत्य है और कुछ झूठ भी है, अब कुछ मुझसे सुनो ॥ १९ ॥ संसार में जितनी भी पतिव्रता स्त्रियाँ हैं, उनमें तुम अग्रगण्य हो । मैं पापदृष्टिवाला और कामी नहीं हूँ, उसी प्रकार तुम भी वैसी नहीं हो, मेरी तो ऐसी ही बुद्धि है ॥ २० ॥ हे शोभने ! मैं इस समय ब्रह्माजी की आज्ञा से तुम्हारे पास आया हूँ और गान्धर्व विवाह के द्वारा तुम्हें ग्रहण करूँगा । हे देवि ! मैं देवताओं को भगा देनेवाला शंखचूड नामक दैत्य हूँ । हे भद्रे ! क्या तुम मुझे नहीं जानती और क्या तुमने मेरा नाम कभी नहीं सुना है ? ॥ २१-२२ ॥

मैं विशेष करके दनु के वंश में उत्पन्न हुआ हूँ और दम्भ का पुत्र शंखचूड नामक दानव हूँ । मैं पूर्व समय में श्रीकृष्ण का पार्षद सुदामा नामक गोप था ॥ २३ ॥ राधिका के शाप से मैं इस समय दैत्यराज हूँ । मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण है, मैं श्रीकृष्ण के प्रभाव से सब कुछ जानता हूँ ॥ २४ ॥

सनत्कुमार बोले — इस प्रकार कहकर शंखचूड चुप हो गया । तब दानवेन्द्र के द्वारा आदरपूर्वक सत्य वचन कहे जानेपर वह तुलसी सन्तुष्ट हो गयी और मन्द-मन्द मुसकराती हुई कहने लगी — ॥ २५ ॥

तुलसी बोली — आपने अपने सात्त्विक विचार से इस समय मुझे पराजित कर दिया है । संसार में वह पुरुष धन्य है, जो स्त्री से पराजित नहीं होता ॥ २६ ॥ जिस पुरुष को स्त्री ने जीत लिया, वह सत्कर्म में निरत होने पर भी नित्य अपवित्र है, देवता, पितर तथा मनुष्य सभी लोग उसकी निन्दा करते हैं ॥ २७ ॥ जनन एवं मरण के सूतक में ब्राह्मण दस दिन में शुद्ध होता है, क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पन्द्रह दिन में और शूद्र एक महीने में शुद्ध होता है — ऐसी वेद की आज्ञा है, परंतु स्त्री के द्वारा विजित पुरुष बिना चितादाह हुए कभी भी शुद्ध नहीं होता ॥ २८-२९ ॥

उसके तर्पण का जल एवं पिण्ड भी पितरलोग इच्छापूर्वक ग्रहण नहीं करते और देवता उसके द्वारा दिये गये पुष्प, फल आदि को ग्रहण नहीं करते हैं । उसके ज्ञान, श्रेष्ठ तप, जप, होम, पूजन, विद्या एवं दान से क्या लाभ है, जिसके मन को स्त्रियों ने हर लिया हो ? ॥ ३०-३१ ॥ मैंने आपकी विद्या का प्रभाव जानने के लिये ही आपकी परीक्षा ली है; क्योंकि स्वामी की परीक्षा करके ही स्त्री को अपने पति का वरण करना चाहिये ॥ ३२ ॥

सनत्कुमार बोले — अभी तुलसी इस प्रकार कह ही रही थी कि जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी वहाँ आ गये और यह वचन कहने लगे — ॥ ३३ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे शंखचूड ! तुम इसके साथ क्या संवाद कर रहे हो ? गान्धर्व-विवाह के द्वारा तुम इसको ग्रहण करो ॥ ३४ ॥ तुम पुरुषों में रत्न हो और यह सती भी स्त्रियों में रत्न है । चतुरों के साथ चतुर का संगम गुणयुक्त होता है ॥ ३५ ॥ हे राजन् ! यदि विरोध के बिना ही दुर्लभ सुख प्राप्त होता हो तो ऐसा कौन है, जो उसका त्याग करेगा ? जो निर्विरोध सुख का त्याग करनेवाला है, वह पशु है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३६ ॥

हे सति ! तुम देवताओं, असुरों तथा दानवों का मर्दन करनेवाले इस प्रकार के गुणवान् पति की परीक्षा क्यों करती हो ? ॥ ३७ ॥ हे सुन्दरि ! तुम इसके साथ सभी लोकों में स्थान-स्थान पर चिरकाल तक सर्वदा अपनी इच्छा के अनुसार विहार करो ॥ ३८ ॥ अन्त में वह गोलोक में श्रीकृष्ण को पुनः प्राप्त करेगा और उसके मर जाने पर तुम भी वैकुण्ठ में चतुर्भुज श्रीकृष्ण को प्राप्त करोगी ॥ ३९ ॥

सनत्कुमार बोले — इस प्रकार यह आशीर्वाद देकर ब्रह्मा अपने लोक को चले गये और उस दानव ने गान्धर्व-विवाह के द्वारा उसे ग्रहण किया ॥ ४० ॥ इस प्रकार तुलसी से विवाहकर वह अपने पिता के घर चला गया और अपने मनोहर भवन में उस सुन्दरी के साथ रमण करने लगा ॥ ४१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में शंखचूड की तपस्या तथा विवाह का वर्णन नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥

 

 

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