September 22, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 29 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः उनतीसवाँ अध्याय शंखचूड का राज्यपद पर अभिषेक, उसके द्वारा देवों पर विजय, दुखी देवों का ब्रह्माजी के साथ वैकुण्ठगमन, विष्णु द्वारा शंखचूड के पूर्वजन्म का वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्मा का शिवलोक-गमन सनत्कुमार बोले — [हे व्यास!] तपस्या करके वर प्राप्त करने के उपरान्त विवाह किये हुए उस शंखचूड के घर आने पर दानव आदि अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ १ ॥ अपने लोक से शीघ्र निकलकर सभी असुर एकत्रित हो अपने गुरु शुक्राचार्य को साथ लेकर उसके पास आये और विनयपूर्वक उसे प्रणाम करके आदरपूर्वक उसकी स्तुति करते हुए उसको समर्थ एवं तेजस्वी मानकर प्रसन्नतापूर्वक वहीं पर स्थित हो गये । दम्भ के पुत्र शंखचूड ने भी अपने घर आये हुए उन कुलगुरु को देखकर बड़े आदर से महाभक्तिपूर्वक उन्हें साष्टांग प्रणाम किया ॥ २-४ ॥ शिवमहापुराण तत्पश्चात् दैत्यों के कुलाचार्य शुक्र ने उसे देखकर उत्तम आशीर्वाद प्रदान किया और देवताओं तथा दानवों का वृत्तान्त उससे कहा । उन्होंने देव-दानव के स्वाभाविक वैर, देवताओं की विजय, असुरों की पराजय तथा बृहस्पति के द्वारा देवताओं की सहायता का वर्णन किया ॥ ५-६ ॥ इसके बाद गुरु शुक्राचार्य ने सभी दैत्यों की सम्मति लेकर दानवों एवं असुरों का अधिपति बनाकर उसे राज्यपद पर अभिषिक्त किया । उस समय प्रसन्न मनवाले असुरों का महान् उत्सव हुआ । उन सभी ने प्रेमपूर्वक उस शंखचूड को नाना प्रकार की भेंट अर्पण की ॥ ७-८ ॥ वह वीर तथा महाप्रतापी दम्भपुत्र शंखचूड राज्यपद पर अभिषिक्त होकर अत्यन्त शोभित होने लगा । वह दैत्यों, दानवों एवं राक्षसों की बहुत बड़ी सेना लेकर रथ पर आरूढ़ होकर इन्द्रपुरी को जीतने के लिये वेगपूर्वक चल पड़ा । उस समय [विजययात्रा के लिये] जाता हुआ वह दानवेन्द्र उन दैत्यों के बीच ताराओं के मध्य में चन्द्रमा की भाँति तथा ग्रहों के मध्य में ग्रहराज सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था । शंखचूड को आता हुआ सुनकर उससे युद्ध करने के लिये देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के साथ उद्यत हो गये ॥ ९-१२ ॥ उस समय देवता और असुरों में रोमांचकारी घोर युद्ध . छिड़ गया, जो वीरों को आनन्द देनेवाला तथा कायरों को भय देनेवाला था । उस युद्ध में गरजते हुए वीरों का महान् कोलाहल उत्पन्न हुआ और वीरता को बढ़ानेवाली वाद्यध्वनि होने लगी । अति बलवान् देवगण क्रुद्ध होकर असुरों के साथ युद्ध करने लगे । असुर पराजित हुए और भय के कारण भागने लगे । उन्हें भागते देखकर दैत्यराज शंखचूड सिंहनाद के समान गर्जना करके देवताओं के साथ स्वयं युद्ध करने लगा ॥ १३-१६ ॥ वह बड़े वेग से सहसा देवताओं को नष्ट करने लगा, कोई भी देवता उसके तेज को न सह सके और भागने लगे । वे दीन होकर पर्वतों की कन्दराओं में जहाँ-तहाँ छिप गये और कुछ देवताओं ने स्वतन्त्र न रहकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली तथा सगरपुत्रों के समान प्रभाहीन हो गये ॥ १७-१८ ॥ इस प्रकार वीर तथा प्रतापशाली दम्भपुत्र दानवेन्द्र शंखचूड ने सारे लोकों को जीतकर समस्त देवताओं का अधिकार हरण कर लिया । उसने तीनों लोकों को तथा सम्पूर्ण यज्ञभागों को अपने वश में कर लिया, वह स्वयं इन्द्र बन गया और सारे जगत् पर शासन करने लगा ॥ १९-२० ॥ उसने अपनी शक्ति से कुबेर, चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि, यम तथा वायु का अधिकार छीन लिया । वह महान् वीर तथा महाबली शंखचूड देव, असुर, दानव, राक्षस, गन्धर्व, नाग, किन्नर, मनुष्य तथा अन्य सभी लोगों तथा तीनों लोकों का अधिपति बन गया ॥ २१-२३ ॥ इस प्रकार राजाओं के भी राजा उस महान् शंखचूड ने बहुत वर्षपर्यन्त सभी भुवनों पर राज्य किया ॥ २४ ॥ उसके राज्य में दुर्भिक्ष, महामारी, अशुभ ग्रह, आधि, व्याधि — ये नहीं थे, सभी प्रजाएँ सर्वदा सुखी रहती थीं । पृथ्वी बिना जोते ही नाना प्रकार के धान्य उत्पन्न करती थी । फलों तथा रसों से युक्त नाना प्रकार की औषधियाँ सर्वदा उत्पन्न होती थीं । खानों से मणियाँ तथा समुद्र से रत्न निरन्तर निकलते थे । वृक्ष सदैव फल-फूलसे हरे-भरे रहते थे और नदियाँ मधुर जल बहाती रहती थीं ॥ २५–२७ ॥ [उस समय] देवताओं को छोड़कर सारे जीव सुखी तथा विकाररहित थे । चारों वर्ण एवं आश्रम के सभी लोग अपने-अपने धर्म में स्थित थे ॥ २८ ॥ इस प्रकार उसके शासनकाल में कोई भी दुखी नहीं था, भ्रातृ-वैर को लेकर केवल देवता ही दुखी थे ॥ २९ ॥ वह महाबली शंखचूड गोलोकवासी श्रीकृष्ण का परम सखा था, साधुस्वभाववाला वह श्रीकृष्ण की भक्ति में सदा निरत रहता था । हे मुने ! वह तो पूर्वजन्म के शाप के प्रभाव से दानवयोनि को प्राप्त हुआ था, दानवकुल में जन्म होनेपर भी वह दानवों की-सी बुद्धिवाला नहीं था ॥ ३०-३१ ॥ हे तात ! तत्पश्चात् राज्य से वंचित तथा पराजित सभी देवता आपस में मन्त्रणाकर और ऋषियों को साथ लेकर ब्रह्मा की सभा में गये । उन्होंने वहाँ ब्रह्माजी को देखकर उन्हें प्रणामकर तथा विशेषरूप से उनकी स्तुति करके व्याकुल होकर ब्रह्माजी से सारा वृत्तान्त निवेदन किया ॥ ३२-३३ ॥ तदनन्तर ब्रह्मा उन सभी देवताओं एवं मुनियों को सान्त्वना देकर उनके साथ सज्जनों को सुख देनेवाले वैकुण्ठलोक गये । ब्रह्मा ने देवगणों के साथ वहाँ जाकर किरीट-कुण्डलधारी, वनमाला से विभूषित, शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये हुए, चतुर्भुज, पीतवस्त्रधारी तथा सनन्दन आदि सिद्धों से सेवित लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु को देखा । मुनीश्वरोंसहित ब्रह्मा आदि सभी देवता विभु विष्णु को देखकर उन्हें प्रणाम करके भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे — ॥ ३४-३७ ॥ ॥ देवा ऊचु ॥ देवदेव जगन्नाथ वैकुंठाधिपते प्रभो । रक्षास्माञ्शरणापन्नाञ्छ्रीहरे त्रिजगद्गुरो ॥ ३८ ॥ त्वमेव जगतां पाता त्रिलोकेशाच्युत प्रभो । लक्ष्मीनिवास गोविन्द भक्तप्राण नमोऽस्तु ते ॥ ३९ ॥ देवता बोले — हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे वैकुण्ठाधिपति ! हे प्रभो ! हे त्रिजगद्गुरो ! हे श्रीहरे ! हम शरणागतों की रक्षा कीजिये । हे त्रिलोकेश ! हे अच्युत ! हे प्रभो ! हे लक्ष्मीनिवास ! हे गोविन्द ! आप ही संसार के रक्षक हैं । हे भक्तप्राण ! आपको नमस्कार है ॥ ३८-३९ ॥ इस प्रकार स्तुतिकर सभी देवता नारायण के आगे रुदन करने लगे । यह सुनकर भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा से यह कहा — ॥ ४० ॥ विष्णु बोले — [हे ब्रह्मन्!] योगियों के लिये भी दुर्लभ इस वैकुण्ठ में आप किस उद्देश्य से आये हैं, आपको कौन-सा कष्ट आ पड़ा है ? उसे आप मेरे सामने कहिये ॥ ४१ ॥ सनत्कुमार बोले — नारायण का यह वचन सुनकर ब्रह्माजी ने बारंबार उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर बड़े विनय के साथ सिर झुकाकर शंखचूड के द्वारा देवताओं को दिये गये दुःख से सम्बन्धित सारा वृत्तान्त परमात्मा विष्णु के सामने कह सुनाया ॥ ४२-४३ ॥ तब सब प्रकार से सबके भावों को जाननेवाले भगवान् विष्णु उनका वचन सुनकर हँस करके ब्रह्माजी से उसका रहस्य इस प्रकार कहने लगे — ॥ ४४ ॥ श्रीभगवान् बोले — हे ब्रह्मदेव ! मैं पूर्वजन्म के अपने परम भक्त महातेजस्वी गोप शंखचूड का सारा वृत्तान्त जानता हूँ ॥ ४५ ॥ आप उसका प्राचीन इतिहासयुक्त वृत्तान्त सुनिये, इसमें सन्देह न कीजिये, शंकरजी मंगल करेंगे ॥ ४६ ॥ जिनका परात्पर शिवलोक सभी लोकों के ऊपर स्थित है, जहाँ शंकरजी स्वयं परब्रह्म परमेश्वर के रूप में विराजमान हैं, तीनों शक्तियों को धारण करनेवाले जो प्रकृति एवं पुरुष के भी अधिष्ठाता हैं, जो निर्गुण, सगुण तथा परम ज्योति:स्वरूप हैं और हे ब्रह्मन् ! सृष्टि आदि के करनेवाले तथा सत्त्व आदि गुणों से युक्त विष्णु, ब्रह्मा एवं महेश्वर नामक तीन देव जिनके अंग से उत्पन्न हुए हैं, माया से सर्वथा मुक्त एवं नित्यानित्य के व्यवस्थापक वे ही परमात्मा उमा के साथ जहाँ विहार करते हैं, उसी के समीप गोलोक है और वहीं शिवजी की गोशाला है, उन्हीं की इच्छा से वहाँपर मेरे स्वरूप में स्थित श्रीकृष्ण निवास करते हैं ॥ ४७–५१ ॥ शंकर ने अपनी गौओं की रक्षा के लिये उन श्रीकृष्ण को नियुक्त किया है । वे भी गौओं की रक्षा से सुखी होकर विहार करते हुए वहाँ क्रीड़ा करते हैं ॥ ५२ ॥ कृति की पाँचवीं परम मूर्ति जगदम्बा राधा, जो उनकी स्त्री कही गयी हैं, वे भी वहाँ निवास करती हैं ॥ ५३ ॥ वहीं पर उनके अंग से उत्पन्न हुए अनेक गोप एवं गोपियाँ हैं, जो उन राधा-कृष्ण के अनुवर्ती रहकर सदा विहार करते हैं । उन्हीं में से यह गोप (शंखचूड) शंकर की इस लीला से मोहित होकर राधा के शाप से दुःखदायी दानवी योनि को व्यर्थ ही प्राप्त हो गया है ॥ ५४-५५ ॥ श्रीकृष्ण ने उसकी मृत्यु रुद्र के त्रिशूल से पहले ही निश्चित की है, उसके बाद वह अपने देह का त्यागकर श्रीकृष्ण का पार्षद होगा । हे देवेश ! ऐसा जानकर आप भय मत कीजिये, शंकर की शरण में जाइये, वे शीघ्र कल्याण करेंगे । मैं, आप एवं सभी देवता भयरहित होकर यहाँ निवास करें ॥ ५६-५८ ॥ सनत्कुमार बोले — ऐसा कहकर विष्णुजी भक्तवत्सल सर्वेश शिव का मन से स्मरण करते हुए ब्रह्माजी के साथ शिवलोक गये ॥ ५९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में शंखचूडवधोपाख्यान में शंखचूडराज्य करणवर्णनपूर्वक उसका पूर्वभववृत्तचरित्रवर्णन नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe