September 23, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 31 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः इकतीसवाँ अध्याय शिव द्वारा ब्रह्मा-विष्णु को शंखचूड का पूर्ववृत्तान्त बताना और देवों को शंखचूडवध का आश्वासन देना सनत्कुमार बोले — अत्यन्त दीन ब्रह्मा तथा विष्णुजी का वचन सुनकर शंकरजी हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहने लगे — ॥ १ ॥ शिवजी बोले — हे हरे ! हे वत्स ! हे ब्रह्मन् ! आप दोनों शंखचूड से उत्पन्न भय का पूर्णरूप से त्याग कर दीजिये, आप लोगों का निःसन्देह कल्याण होगा । हे प्रभो ! शंखचूड का सारा वृत्तान्त मैं जानता हूँ, वह पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण का परम भक्त सुदामा नाम का गोप था ॥ २-३ ॥ शिवमहापुराण मेरी आज्ञा से ही विष्णु श्रीकृष्ण का रूप धारण करके मेरे द्वारा अधिष्ठित रम्य गोलोक की गोशाला में निवास करते हैं ॥ ४ ॥ ‘मैं स्वतन्त्र हूँ’ अपने को ऐसा समझकर वे पहले मोह को प्राप्त हुए और इस प्रकार मोहित होकर स्वच्छन्द की भाँति नाना प्रकार की क्रीडाएँ करने लगे ॥ ५ ॥ तब मैंने उन्हें अपनी माया से मोहित कर दिया, जिससे उनकी सद्बुद्धि नष्ट हो गयी और उनसे उस सुदामा को शाप दिला दिया । इस प्रकार अपनी लीला करके मैंने [अपनी] माया हटा ली । तब मोह से मुक्त हो जाने के कारण वे ज्ञानयुक्त तथा सद्बुद्धियुक्त हो गये ॥ ६-७ ॥ तब वे मेरे समीप आये और दीन होकर मुझे प्रणाम कर हाथ जोड़कर विनम्र भाव से भक्तिपूर्वक मेरी स्तुति करने लगे । तब लज्जा से युक्त मनवाले उन सभी ने सारा वृत्तान्त कहा और दीन होकर ‘रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये’ — मेरे सामने ऐसा वचन कहने लगे ॥ ८-९ ॥ तब उनसे सन्तुष्ट होकर मैंने यह वचन कहा — हे कृष्ण ! आप सभी मेरी आज्ञा से भय का त्याग कर दीजिये । मैं आपलोगों का सदा रक्षक हूँ । मेरे प्रसन्न रहने से आपलोगों का कल्याण होगा । यह सब मेरी इच्छा से हुआ है, इसमें सन्देह नहीं है । [हे कृष्ण!] आप इन राधा एवं पार्षद के साथ अपने स्थान को जाइये । यह [सुदामा] इस भारतवर्ष में दानव के रूप में जन्म लेगा, इसमें सन्देह नहीं है । समय आने पर मैं आप दोनों के शाप का उद्धार करूँगा ॥ १०-१२१/२ ॥ तब बुद्धिमान् श्रीकृष्ण मेरे वचन को शिरोधार्य करके राधा के साथ बड़ी प्रसन्नता से अपने स्थान को चले गये और वे दोनों ही भयपूर्वक मेरी आराधना करते हुए वहाँ निवास करने लगे ॥ १३-१४ ॥ उस समय उन्हें ज्ञान हुआ कि यह सारा जगत् मेरे (शंकर के) अधीन है और मैं श्रीकृष्ण सर्वथा पराधीन हूँ । वह सुदामा राधा के शाप से शंखचूड नामक दानवेन्द्र हुआ, जो धर्म में निपुण होकर भी देवद्रोही है और वह दुर्बुद्धि अपने बल से सभी देवगणों को सदा पीड़ा पहुँचा रहा है । मेरी माया से मोहित होने के कारण उसे दुष्ट मन्त्रियों की सहायता भी प्राप्त हो रही है । अतः मुझ शासक के रहते आपलोग शीघ्र ही उसके भय का त्याग कर दीजिये ॥ १५-१७ ॥ सनत्कुमार बोले — हे मुने ! अभी जब शिवजी ब्रह्मा एवं विष्णु के सामने इस प्रकार की कथा कह ही रहे थे कि इतने में जो अन्य घटना घटी, उसे आप सुनिये । उसी समय श्रीकृष्ण राधिका, अन्य पार्षद एवं गोपों के साथ प्रभु शंकर को अनुकूल करने के लिये वहाँ आ गये । वे सद्भक्तिपूर्वक शंकरजी को प्रणाम करके विष्णु से आदरपूर्वक मिलकर ब्रह्मा की सलाह मानकर शिव की आज्ञा से प्रेमपूर्वक उनके समीप बैठ गये ॥ १८-२० ॥ इसके बाद शिवजी को पुनः प्रणामकर मोह-निर्मुक्त श्रीकृष्णजी शिवतत्त्व को जानकर हाथ जोड़े हुए उनकी स्तुति करने लगे — ॥ २१ ॥ श्रीकृष्ण बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे परब्रह्म ! हे सत्पुरुषों की गति ! हे परमेश्वर ! मेरा अपराध क्षमा कीजिये और मेरे ऊपर प्रसन्न होइये । हे शर्व ! सब कुछ आपसे ही उत्पन्न होता है और हे महेश्वर ! सब कुछ आपमें ही स्थित है । हे सर्वाधीश ! सब कुछ आप ही हैं, अतः हे परमेश्वर ! आप प्रसन्न होइये ॥ २२-२३ ॥ आप ही साक्षात् परम ज्योति, सर्वव्यापी एवं सनातन हैं । हे गौरीश ! आपके नाथ होने से हम सभी सनाथ हैं ॥ २४ ॥ मोह में पड़ा हुआ मैं अपने को सर्वोपरि मानकर विहार करता रहा, जिसका फल मुझे यह मिला कि मैं शापग्रस्त हो गया और हे स्वामिन् ! जो सुदामा नामक मेरा श्रेष्ठ पार्षद है, वह राधा के शाप से दानवी योनि को प्राप्त हो गया है । हे दुर्गेश ! हे परमेश्वर ! आप हमलोगों का उद्धार कीजिये और प्रसन्न हो जाइये, शाप से उद्धार कीजिये और हम शरणागतों की रक्षा कीजिये । इस प्रकार कहकर श्रीकृष्ण राधा के सहित मौन हो गये । तब शरणागतवत्सल शिव उनपर प्रसन्न हो गये ॥ २५-२८ ॥ श्रीशिव बोले — हे कृष्ण ! हे गोपिकानाथ ! आप भय का त्याग कीजिये और सुखी हो जाइये । हे तात ! मैंने ही अनुग्रह करते हए यह सब किया है ॥ २९ ॥ आपका कल्याण होगा । अब आप अपने उत्तम स्थान को जाइये और सावधानीपूर्वक अपने अधिकार का पालन कीजिये । मुझको परात्पर जानकर इच्छानुसार विहार कीजिये और निर्भय होकर राधा तथा पार्षदों के साथ अपना कार्य कीजिये ॥ ३०-३१ ॥ उत्तम वाराहकल्प में युवती राधा के साथ शाप का फल भोगकर वह पुनः अपने लोक को प्राप्त करेगा ॥ ३२ ॥ हे कृष्ण ! आपका अत्यन्त प्रिय पार्षद जो सुदामा था, वही इस समय दानवी योनि में जन्म ग्रहण करके सारे जगत् को क्लेश दे रहा है, यह शंखचूड नामक दानव राधा के शाप के प्रभाव से ही देवशत्रु, दैत्यों का पक्ष लेनेवाला और देवताओं से द्रोह करनेवाला हो गया है ॥ ३३-३४ ॥ उसने इन्द्रसहित सभी देवताओं को पीड़ा देकर निकाल दिया है, जिससे वे देवता अधिकारविहीन एवं व्याकुल होकर दसों दिशाओं में भटक रहे हैं ॥ ३५ ॥ उसी के वध के निमित्त ये ब्रह्मा तथा विष्णु मेरी शरण में यहाँ आये हैं, मैं इनका दुःख दूर करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ३६ ॥ सनत्कुमार बोले — [हे व्यास!] श्रीकृष्ण से इतना कहकर भगवान् शंकर ब्रह्मा तथा विष्णु को सम्बोधित करके आदरपूर्वक क्लेशनाशक वचन पुनः कहने लगे — ॥ ३७ ॥ शिवजी बोले — हे विष्णो ! हे ब्रह्मन् ! आप दोनों मेरी बात सुनिये । देवताओं को भयरहित करने के लिये शीघ्र ही आप दोनों कैलासपर्वत पर जायँ, जहाँ मेरे पूर्ण रूप रुद्र का निवास है । मैंने ही देवताओं का कार्य करने के लिये पृथक् रूप को धारण किया है ॥ ३८-३९ ॥ हे हरे ! परिपूर्णतम एवं भक्तपराधीन मुझ प्रभु का ही वह रुद्र रूप देवताओं के कार्य के लिये कैलासपर्वत पर विराजमान है । मुझमें एवं आपमें कोई भेद नहीं है । मेरा वह रुद्ररूप आप दोनों का, चराचर जगत् का, सभी देवताओं एवं मुनियों का सर्वदा सेव्य है ॥ ४०-४१ ॥ जो मनुष्य हम दोनों में भेद रखेगा, वह नरकगामी होगा और वह इस लोक में पुत्र-पौत्रादि से रहित होकर नाना प्रकार का क्लेश प्राप्त करेगा । ऐसा कहते हुए गौरीपति को बार-बार प्रणामकर श्रीकृष्ण राधा तथा गणों के साथ अपने स्थान को चले गये ॥ ४२-४३ ॥ हे व्यासजी ! इसी प्रकार वे ब्रह्मा तथा विष्णु भी सन्देहरहित हो शिवजी को बारंबार प्रणामकर आनन्द के साथ शीघ्र वैकुण्ठ चले गये ॥ ४४ ॥ वे ब्रह्मा तथा विष्णु वहाँ आकर सारा वृत्तान्त देवताओं से कहकर तथा उन्हें साथ लेकर कैलासपर्वत पर गये ॥ ४५ ॥ दीनों की रक्षा करने के लिये सगुण रूप से शरीर धारण किये हुए देवाधिपति पार्वतीवल्लभ महेश्वर प्रभु को वहाँ देखकर सभी देवताओं ने पूर्व की भाँति हाथ जोड़कर विनय से युक्त होकर सिर झुकाकर गद्गद वाणी से भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥ ४६-४७ ॥ देवता बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे गिरिजानाथ ! हे शंकर ! हम सभी देवता आपकी शरण में आये हैं, भय से व्याकुल देवताओं की रक्षा कीजिये ॥ ४८ ॥ देवताओं को कष्ट देनेवाले दैत्यराज शंखचूड का वध कीजिये, उसने देवताओं को व्याकुल कर दिया है और युद्ध में पराजित कर दिया है । उसने देवताओं के समस्त अधिकार छीन लिये हैं, जिससे वे लोग मनुष्यों की भाँति पृथ्वी पर भटक रहे हैं और उसके भय से उनके लिये देवलोक का देखना तक दुर्लभ हो गया है ॥ ४९-५० ॥ अतः दीनों का उद्धार करनेवाले हे कृपासिन्धो ! इस संकट से देवताओं का उद्धार कीजिये और उस दानवेन्द्र का वधकर इन्द्र को भय से मुक्त कीजिये । देवताओं के इस वचन को सुनकर हँसते हुए भक्तवत्सल भगवान् शंकर ने मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा — ॥ ५१-५२ ॥ श्रीशंकरजी बोले — हे विष्णो ! हे ब्रह्मन् ! हे देवगण ! आपलोग अपने स्थान को जाइये, मैं सेनासहित उस शंखचूड का वध अवश्य करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५३ ॥ सनत्कुमार बोले — शंकर की इस अमृततुल्य वाणी को सुनकर सभी देवता दैत्यों को मरा जानकर अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ ५४ ॥ इसके बाद शंकरजी को प्रणामकर विष्णु वैकुण्ठलोक एवं ब्रह्मा सत्यलोक चले गये तथा देवगण अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ ५५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में शंखचूडवध के अन्तर्गत शिवोपदेशवर्णन नामक इकतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३१ ॥ Related