August 3, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 18 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः अठारहवाँ अध्याय शिवमन्दिर में दीपदान के प्रभाव से पापमुक्त होकर गुणनिधि का दूसरे जन्म में कलिंगदेश का राजा बनना और फिर शिवभक्ति के कारण कुबेर पद की प्राप्ति ब्रह्माजी बोले — उन वृत्तान्तों को सुनकर वह दीक्षितपुत्र अपने भाग्य की निन्दा करके किसी दिशा को देखकर अपने घर से चल पड़ा । कछ काल तक चलने के पश्चात् वह यज्ञदत्तपुत्र दुष्ट गुणनिधि थक जाने के कारण उत्साहहीन होकर वहीं रुक गया ॥ १-२ ॥ शिवमहापुराण वह बहुत बड़ी चिन्ता में पड़ गया कि अब मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ ? मैंने विद्या का अभ्यास भी नहीं किया और न तो मेरे पास अत्यधिक धन ही है ॥ ३ ॥ दूसरे देश में तत्काल सुख तो उसी को प्राप्त होता है, जिसके पास धन रहता है । यद्यपि धन रहने पर चोर से भय होता है, किंतु यह विघ्न सर्वत्र उत्पन्न हो सकता है ॥ ४ ॥ अरे ! याजक के कुल में जन्म होने पर भी मुझमें इतना बड़ा दुर्व्यसन कैसे आ गया ! यह आश्चर्य है, किंतु भाग्य बड़ा बलवान् है, वही मनुष्य के भावी कर्म का अनुसन्धान करता है ॥ ५ ॥ मैं भिक्षा माँगने के लिये नहीं जाता हूँ । मेरा यहाँ कोई परिचित भी नहीं है और न मेरे पास कुछ धन ही है । मेरे लिये कोई शरण तो होनी ही चाहिये ॥ ६ ॥ सदैव सूर्योदय होने के पूर्व ही मेरी माता मुझे मधुर भोजन देती थीं । आज मैं यहाँ किससे माँगूं । मेरी माता भी तो यहाँ नहीं हैं ॥ ७ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! इस प्रकार बहुत-सी चिन्ता करते हुए वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे वह अत्यधिक दीनहीन हो उठा, इतने में सूर्य अस्ताचल को चला गया ॥ ८ ॥ इसी समय कोई शिवभक्त मनुष्य अनेक प्रकार की परम दिव्य पूजा-सामग्रियाँ लेकर शिवरात्रि के दिन उपवासपूर्वक महेश्वर की पूजा करने के लिये अपने परिवारजनों के साथ नगर से बाहर निकला ॥ ९-१० ॥ शिवजी में रत चित्तवाले उस भक्त ने शिवालय में प्रवेश करके सावधान मन से यथोचित रूप से शंकर की पूजा की । [भगवान् शिव के लिये लगाये गये नैवेद्य के] पक्वान्नों की गन्ध को सूँघकर पिता के द्वारा परित्यक्त, मातृहीन तथा भूख से व्याकुल यज्ञदत्त का पुत्र वह ब्राह्मण गुणनिधि उसके पास पहुँचा ॥ ११-१२ ॥ [उसने सोचा कि ये सभी शिवभक्त जब रात्रि में सो जायँगे, तब मैं शिव पर चढ़ाये गये इस विविध नैवेद्य को भाग्यवश प्राप्त करूँगा । ऐसी आशा करके वह भगवान् शंकर के द्वार पर बैठ गया और उस भक्त के द्वारा की गयी महापूजा को देखने लगा ॥ १३-१४ ॥ भक्तलोग जिस समय [भगवान् शिव के सामने] नृत्य-गीत आदि करके सो गये, उसी समय वह नैवेद्य को लेने के लिये भगवान् शिव के मन्दिर में घुस गया ॥ १५ ॥ [वहाँ पर जल रहे] दीपक के प्रकाश को मन्द देखकर पक्वान्नों को देखने के लिये अपने उत्तरीय वस्त्र को [फाड़ करके] बत्ती बनाकर दीपक को प्रकाशितकर यज्ञदत्त के उस पुत्र ने आदरपूर्वक शिव के लिये लगाये गये बहुत से पक्वान्नों के नैवेद्य को एकाएक सहर्ष उठा लिया ॥ १६-१७ ॥ इसके बाद उस पक्वान्न को लेकर शीघ्र ही बाहर जाते हुए उसके पैर के आघात से कोई सोया हुआ व्यक्ति जग उठा ॥ १८ ॥ शीघ्रता करनेवाला यह कौन है ?, कौन है ? इसे पकड़ो – इस प्रकार भययुक्त ऊँची वाणी में वह व्यक्ति चिल्लाने लगा ॥ १९ ॥ भयवश वह ब्राह्मण जब भाग रहा था, उसी समय वहाँ पुररक्षकों ने पहुँचकर उसे मारा, जिससे वह अन्धा होकर तत्काल मर गया ॥ २० ॥ हे मुने ! यज्ञदत्त के उस पुत्र ने निश्चित शिव की ही कृपा से नैवेद्य को खा लिया था, न कि अपने भावी पुण्यफल के प्रभाव से ॥ २१ ॥ इसके पश्चात् उस मरे हुए ब्राह्मण को यमलोक ले जाने के लिये पाश, मुद्गर हाथ में लिये हुए यम के भयंकर दूत वहाँ आकर उसे बाँधने लगे ॥ २२ ॥ इतने में छोटी-छोटी घण्टियों से युक्त आभूषण धारण किये हुए और हाथ में त्रिशूल से युक्त हो शिव के पार्षद दिव्य विमान लेकर उसे ले जाने के लिये आ गये ॥ २३ ॥ शिवगण बोले — हे यमराज के गणो ! इस परम धार्मिक ब्राह्मण को छोड़ दो । यह ब्राह्मण दण्ड के योग्य नहीं है । इसके समस्त पाप भस्म हो चुके हैं ॥ २४ ॥ इसके अनन्तर शिवपार्षदों के वचन सुनकर यमराज के गण आश्चर्यचकित हो गये और महादेवजी के गणों से कहने लगे । शम्भु के गणों को देखकर डरे हुए तथा प्रणाम करते हुए यमराज के दूतों ने इस प्रकार कहा कि हे गणो ! यह ब्राह्मण तो दुराचारी था ॥ २५-२६ ॥ यमगण बोले — कुल की मर्यादा का उल्लंघन करके यह माता-पिता की आज्ञा से पराङ्मुख, सत्य-शौच से परिभ्रष्ट और सन्ध्या तथा स्नान से रहित था ॥ २७ ॥ यदि इसके अन्य कर्मों को छोड़ भी दिया जाय, तो भी इसने शिव के निर्माल्य [चढ़ाये गये नैवेद्य]-का लंघन किया है अर्थात् चोरी की है । [इसके इस हेय कर्म को] आप सब स्वयं देख लें, आप-जैसे लोगों के लिये यह स्पर्श के योग्य भी नहीं है ॥ २८ ॥ जो शिव-निर्माल्य को खानेवाले, शिव-निर्माल्य की चोरी करनेवाले और शिव-निर्माल्य को देनेवाले हैं, उनका स्पर्श अवश्य ही पापकारक होता है ॥ २९ ॥ विष को जान-बूझकर पी लेना श्रेयस्कर है और अछूत का स्पर्श कर लेना भी अति उत्तम है, किंतु कण्ठगत प्राण होने पर भी शिवनिर्माल्य का सेवन उचित नहीं है ॥ ३० ॥ धर्म के विषय में आप सब जिस प्रकार प्रमाण हैं, वैसे हमलोग नहीं हैं । हे शिवगण ! सुनिये । यदि इसमें धर्म का लेशमात्र भी हो, तो हम सब उसे सुनना चाहते हैं ॥ ३१ ॥ यम के दूतों की इस बात को सुनकर शिव के पार्षद भगवान् शिव के चरणकमल का स्मरण करके कहने लगे — ॥ ३२ ॥ शिव के सेवक बोले — हे यमकिंकरो ! जो सूक्ष्म शिवधर्म हैं, जिन्हें सूक्ष्म दृष्टिवाले ही जान सकते हैं, उन्हें आपसदृश स्थूल दृष्टिवाले कैसे जान सकते हैं ॥ ३३ ॥ हे यमदूतो ! पापरहित इस यज्ञदत्तपुत्र ने यहाँ पर जो पुण्य कर्म किया है, उसे सावधान होकर सुनो — ॥ ३४ ॥ इसने शिवलिंग के शिखर पर पड़ रही दीपक की छाया को दूर किया और अपने उत्तरीय वस्त्र को फाड़कर उससे दीपक की वर्तिका बनायी और फिर उससे दीपक को पुनः जलाकर उस रात्रि में शिव के लिये प्रकाश किया ॥ ३५ ॥ हे किंकरो ! इसने [उस कर्म के अतिरिक्त अन्य भी पुण्यकर्म किया है । शिवपूजा के प्रसंग में इसने शिव के नामों का श्रवण किया और स्वयं उनके नामों का उच्चारण भी किया है । भक्त के द्वारा विधिवत् की जा रही पूजा को इसने उपवास रखकर बड़े ही मनोयोग से देखा है ॥ ३६-३७ ॥ [अतः इन पुण्यों के प्रभाव से] यह आज ही हमलोगों के साथ शिवलोक को जायगा । वहाँ शिव का अनुगामी बनकर यह कुछ समय तक उत्तम भोगों का उपभोग करेगा ॥ ३८ ॥ तत्पश्चात् अपने पापरूपी मैल को धोकर यह कलिंग देश का राजा बनेगा; क्योंकि यह श्रेष्ठ ब्राह्मण निश्चित ही शिव का प्रिय हो गया है ॥ ३९ ॥ हे यमदूतो ! अब इसके विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । तुमलोग जैसे आये हो, वैसे ही अतिप्रसन्न मन से अपने लोक को चले जाओ ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वर ! उनके वाक्य को सुनकर पराङ्मुख हुए समस्त यमदूत अपने लोक को लौट गये । हे मुने ! गणों ने यमराज से [गुणनिधि के उस] सम्पूर्ण वृत्तान्त का निवेदन किया और शिवदूतों ने उनसे जो कहा था, वह समाचार आरम्भ से उन्हें सुना दिया ॥ ४१-४२ ॥ धर्मराज बोले — सर्वे शृणुत मद्वाक्यं सावधानतया गणाः । तदेव प्रीत्या कुरुत मच्छासनपुर:सरम् ॥ ये त्रिपुण्ड्रधरा लोके विभूत्या सितया गणाः । ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ उधूलनकरा ये हि विभूत्या सितया गणाः । ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ शिववेशतया लोके येन केनापि हेतुना । ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ ये रुद्राक्षधरा लोके जटाधारिण एव ये। ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ उपजीवनहेतोश्च शिववेशधरा हि ये। ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ दम्भेनापि छलेनापि शिववेशधरा हि ये। ते सर्वे परिहर्तव्या नानेतव्याः कदाचन ॥ (सृष्टि० ख० १८।४३-४९) हे गणो ! तुम सब सावधान होकर मेरे इस वाक्य को सुनो । जैसा आदेश दे रहा हूँ, वैसा ही प्रेमपूर्वक तुमलोग करो ॥ ४३ ॥ हे गणो ! इस संसार में जो श्वेत भस्म से त्रिपुण्डू धारण करते हैं, उन सभी को छोड़ देना और यहाँ पर कभी मत लाना ॥ ४४ ॥ हे गणो ! जो श्वेत भस्म से शरीर में उद्धृलन करते हैं, उन सबको तुमलोग छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ ४५ ॥ इस संसार में जिस किसी भी कारण से जो शिव का वेष धारण करनेवाले हैं, उन सभी लोगों को भी छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ ४६ ॥ इस जगत् में जो रुद्राक्ष धारण करनेवाले हैं या सिर पर जटा धारण करते हैं, उन सबको तुमलोग छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ ४७ ॥ जिन लोगों ने जीविका के निमित्त ही शिव का वेष धारण किया है, उन सबको भी छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ ४८ ॥ जिन्होंने दम्भ या छल-प्रपंच के कारण ही शिव का वेष धारण किया है, उन सबको भी तुमलोग छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ ४९ ॥ इस प्रकार उन यमराज ने अपने सेवकों को आज्ञा दी, [जिसको सुनकर उन लोगों ने कहा कि जैसी आपकी आज्ञा है] वैसा ही होगा — ऐसा कहकर वे मन्द-मन्द हँसते हुए चुप हो गये ॥ ५० ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार शिवपार्षदों ने यमदूतों से उस ब्राह्मण को छुड़ाया और वह पवित्र मन से युक्त होकर शीघ्र ही उन शिवगणों के साथ शिवलोक को चला गया ॥ ५१ ॥ वहाँ पर सभी सुखभोगों का उपभोग करके तथा भगवान् सदाशिव एवं पार्वती की सेवा करके वह [दूसरे जन्ममें] कलिंगदेश के राजा अरिंदम का पुत्र हुआ ॥ ५२ ॥ उस शिवसेवापरायण बालक का नाम दम हुआ । बालक होते हुए भी वह अन्य शिशुओं के साथ शिव की भक्ति करने लगा ॥ ५३ ॥ क्रमशः उसने युवावस्था प्राप्त की और पिता के परलोकगमन के पश्चात् उसे राज्य भी प्राप्त हुआ । उसने प्रेमपूर्वक अनेक शिवधर्मों को प्रारम्भ किया ॥ ५४ ॥ हे ब्रह्मन् ! दुष्टों का दमन करनेवाला वह राजा दम शिवालयों में दीपदान के अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं मानता था ॥ ५५ ॥ उसने सभी ग्राम और जनपद-प्रमुखों को बुला करके यह आदेश दिया कि तुमलोगों को शिवालयों में दीप-प्रज्वालन की व्यवस्था करनी है ॥ ५६ ॥ यदि [किसी के क्षेत्र में] ऐसा नहीं हुआ, तो यह सत्य है कि [उस क्षेत्र का] वह प्रधान निश्चित ही मेरे द्वारा दण्ड पायेगा । दीपदान से भगवान् शिव सन्तुष्ट होते हैं ऐसा श्रुतियों में कहा गया है ॥ ५७ ॥ जिसके-जिसके गाँव के चारों ओर जितने भी शिवालय हों, वहाँ-वहाँ सदैव बिना कोई विचार किये ही दीपक जलाना चाहिये ॥ ५८ ॥ अपनी आज्ञा के उल्लंघन के दोष पर मैं निश्चित ही अपराधी का सिर काट लूँगा । इस प्रकार उस राजा के भय से प्रत्येक शिवमन्दिर में दीपक जलाये जाने लगे ॥ ५९ ॥ इस प्रकार जीवनपर्यन्त इसी धर्माचरण के पालन से राजा दम धर्म की महान् समृद्धि प्राप्त करके अन्त में कालधर्म की गति को प्राप्त हुआ ॥ ६० ॥ अपनी इस दीपवासना के कारण शिवालयों में बहुत से दीपक प्रज्वलित करके वह राजा [दूसरे जन्म में] रत्नमय दीपकों की शिखाओं को आश्रय देनेवाली अलकापुरी का राजा कुबेर हुआ ॥ ६१ ॥ इस प्रकार भगवान् शंकर के लिये अल्पमात्र भी किया गया धार्मिक कृत्य समय आनेपर फल प्रदान करता है । यह जानकर उत्तम सुख चाहनेवाले लोगों को शिव का भजन करना चाहिये ॥ ६२ ॥ कहाँ सभी धर्मों से सदा ही दूर रहनेवाला दीक्षित का पुत्र और कहाँ दैवयोग से धन चुराने के लिये शिवमन्दि रमें उसका प्रवेश एवं स्वार्थवश दीपक की वर्तिका को जलाकर शिवलिंग के मस्तक पर छाये हुए अन्धकारको दूर करने के लिये किया गया उसका पुण्य । [जिसके प्रभाव से] उसने कलिंगदेश का राज्य प्राप्त किया और सदैव धर्म में अनुरक्त रहने लगा । पूर्वजन्म के संस्कार के उदय होने के कारण ही शिवालय में सम्यक् रूप से मात्र दीपक को जलाकर उसने यह दिक्पाल कुबेर की महान् पदवी प्राप्त कर ली । हे मुनीश्वर ! देखिये यह मनुष्यधर्मा इस समय इस लोक में रहकर इसका भोग कर रहा है ॥ ६३-६५ ॥ इस प्रकार यज्ञदत्त के पुत्र गुणनिधि के चरित्र का वर्णन कर दिया, जो शिव को प्रसन्न करनेवाला है और जिसको सुननेवाले की सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ॥ ६६ ॥ गुणनिधि ने सर्वदेवमय भगवान् सदाशिव से जिस प्रकार मित्रता प्राप्त की, अब मैं उसका वर्णन आपसे कर रहा हूँ । हे तात ! एकाग्रचित्त होकर आप सुनें ॥ ६७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान के अन्तर्गत कैलासगमन उपाख्यान में गुणनिधिसद्गतिवर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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