शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 34
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
चौंतीसवाँ अध्याय
तुलसी से विदा लेकर शंखचूड का युद्ध के लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदी के तट पर पहुँचना

व्यासजी बोले — हे महाबुद्धिमान् ब्रह्मपुत्र ! हे मुने ! आप चिरकाल तक जीवित रहें, आपने शिवजी का बड़ा विचित्र चरित्र वर्णन किया । अब आप विस्तारपूर्वक बताइये कि शिवजी के दूत के चले जाने पर प्रतापी शंखचूड ने क्या किया ? ॥ १-२ ॥

सनत्कुमार बोले — शिवदूत के चले जाने पर प्रतापी शंखचूड ने भीतर जाकर तुलसी से उस बात को कहा — ॥ ३ ॥

शिवमहापुराण

शंखचूड बोला — हे देवि ! शिवदूत के मुख से युद्ध का सन्देश प्राप्त होने के कारण मैं युद्ध के लिये तैयार होकर जा रहा हूँ, अब तुम मेरे शासन का कार्य सँभालना ॥ ४ ॥

इस प्रकार यह कहकर उस ज्ञानी शंखचूड ने नाना प्रकार के वाक्यों से अपनी प्रियतमा को समझाया और शंकर का अनादरकर हर्षपूर्वक उसके साथ क्रीड़ा की ॥ ५ ॥ अनेक प्रकार की कामकलाओं तथा मधुर वचनों से परस्पर संलाप करते हुए वे पति-पत्नी सुखसागर में निमग्न हो रात में क्रीडा करते रहे ॥ ६ ॥ ब्राह्ममुहूर्त में उठकर प्रातःकालीन कृत्य करके नित्यकर्म सम्पन्नकर उसने बहुत दान दिया ॥ ७ ॥

इसके बाद अपने पुत्र को सभी दानवों का राजा बनाकर सारी सम्पत्ति एवं राज्य, पुत्र तथा भार्या को समर्पितकर उस राजा ने बारंबार रोती हुई तथा अनेक बातें कहकर युद्ध में जाने से मना करनेवाली अपनी भार्या को आश्वस्त किया । उसके बाद उसने अपने वीर सेनापति को आदरपूर्वक बुलाकर उसे आज्ञा दी और स्वयं सन्नद्ध होकर संग्राम करने के लिये उद्यत हुआ ॥ ८-१० ॥

शंखचूड बोला — हे सेनापते ! युद्ध करने में कुशल सभी वीर सभी प्रकार से सुसज्जित होकर युद्ध के लिये चलें ॥ ११ ॥ बलशाली कंकों की सेना, जिसमें छियासी महाबलवान् दैत्य एवं दानव हैं, आयुधों से युक्त हो शीघ्र निर्भय होकर निकलें ॥ १२ ॥ असुरों के पचास कुल, जिसमें करोड़ों महावीर हैं, वे भी देवपक्षपाती शंकर से युद्ध करने के लिये निकलें ॥ १३ ॥ धूम्रनामक दैत्यों के सौ कुल शिव से युद्ध करने के लिये मेरी आज्ञा से शीघ्र निकलें । इसी प्रकार कालकेय, मौर्य, दौर्हृद तथा कालक तैयार होकर मेरी आज्ञा से रुद्र के साथ संग्राम के लिये निकलें ॥ १४-१५ ॥

सनत्कुमार बोले — [हे व्यास!] महाबली असुरराज दानवेन्द्र शंखचूड इस प्रकार आज्ञा देकर सहस्रों सेनाओं को लेकर चल पड़ा ॥ १६ ॥ युद्धशास्त्र में प्रवीण, महारथी, महावीर, रथियों में श्रेष्ठ तथा वीरों में भयंकर उसके सेनापति ने भी तीन लाख अक्षौहिणी सेना से युक्त होकर मण्डल बनाया और वह युद्ध करने के लिये शिविर से बाहर निकला ॥ १७-१८ ॥ शंखचूड भी उत्तम रत्नों से बने हुए विमान पर चढ़कर गुरुजनों को आगेकर संग्राम के लिये चला । पुष्पभद्रा नदी के किनारे सिद्धक्षेत्र में सिद्धों का आश्रम एवं श्रेष्ठ अक्षयवट है । वह सिद्धिप्रद सिद्धक्षेत्र है । पुण्यक्षेत्र भारत में कपिल की तपोभूमि है । यह स्थान पश्चिम सागर के पूर्व तथा मलय पर्वत के पश्चिम में, श्रीपर्वत के उत्तर भाग में तथा गन्धमादन के दक्षिण में पाँच योजन चौड़ा एवं पाँच सौ योजन लम्बा है ॥ १९–२२ ॥

भारत में शुद्ध स्फटिक के समान जलवाली, उत्तम पुण्य प्रदान करनेवाली, जलपूर्ण तथा रम्य पुष्पभद्रा तथा सरस्वती नदी है, जो क्षारसमुद्र की प्रिय भार्या है, वह पुष्पभद्रा निरन्तर सौभाग्ययुक्त होकर हिमालय से निकलकर सरस्वती नदी में मिलती है और गोमन्तक पर्वत को बायेंकर पश्चिम सागर में गिरती है । वहाँ जाकर शंखचूड ने शिव की सेना को देखा ॥ २३–२५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में शंखचूडयात्रावर्णन नामक चौंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३४ ॥

 

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