September 27, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 40 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः चालीसवाँ अध्याय शिव और शंखचूड का युद्ध, आकाशवाणी द्वारा शंकर को युद्ध से विरत करना, विष्णु का ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूड का कवच माँगना, कवचहीन शंखचूड का भगवान् शिव द्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास सनत्कुमार बोले — [हे व्यास!] इसके बाद अपनी मुख्य-मुख्य बहुत-सी सेनाओं को तथा प्राण के समान वीरों को नष्ट होते देखकर दानव अत्यधिक क्रुद्ध हुआ ॥ १ ॥ उसने शंकरजी से कहा — मैं युद्धभूमि में खड़ा हूँ और आप भी स्थिर हो जाइये । इनको मारने से क्या लाभ, मेरे सामने [खड़े होकर] युद्ध कीजिये । हे मुने ! इस प्रकार कहकर वह दानव [युद्ध करने का] निश्चयकर सन्नद्ध होकर युद्धभूमि में शंकरजी के सम्मुख गया ॥ २-३ ॥ शिवमहापुराण वह दानव शिवजी पर दिव्य अस्त्र छोड़ने लगा । जैसे मेघ जलवृष्टि करता है, उसी प्रकार वह बाणों की वर्षा करने लगा । उसने भय उत्पन्न करनेवाली अनेक प्रकार की माया भी प्रकट की । उस अप्रतयं माया को समस्त देवता भी न देख सके । उस माया को देखकर शिवजी ने सभी प्रकार की माया को नष्ट करनेवाले महादिव्य माहेश्वर अस्त्र को लीलापूर्वक छोडा ॥ ४-६ ॥ उसके तेज से शीघ्र ही उस असुर की सारी माया तत्काल नष्ट हो गयी और वे दिव्यास्त्र भी निस्तेज हो गये । उसके बाद महाबली महेश्वर ने युद्ध में उसका वध करने के लिये तेजस्वियों के लिये भी दुर्निवार्य त्रिशूल सहसा धारण किया ॥ ७-८ ॥ उसी समय उन्हें रोकने के लिये आकाशवाणी हुई, हे शंकर ! इस समय आप त्रिशूल मत चलाइये, [मेरी] प्रार्थना सुनिये । हे ईश ! आप क्षणमात्र में सारे ब्रह्माण्ड को नष्ट करने में समर्थ हैं, तब इस समय एक शंखचूड दानव के वध की क्या बात ! फिर भी आप स्वामी को वेदमर्यादा नष्ट नहीं करनी चाहिये । हे महादेव ! उसे सुनिये और सत्यरूप से सफल कीजिये । जबतक इसके हाथ में विष्णु का परम उग्र कवच है और जबतक इसकी पतिव्रता स्त्री का सतीत्व है, तबतक हे शंकर ! इस शंखचूड की जरा एवं मृत्यु नहीं हो सकती । हे नाथ ! ब्रह्मा के इस वचन को आप सत्य कीजिये ॥ ९-१३ ॥ इस आकाशवाणी को सुनकर ‘वैसा ही होगा’ — इस प्रकार शंकरजी के कहने पर उसी समय शिवजी की इच्छा से सज्जनों के रक्षक विष्णु वहाँ आये और शंकरजी ने उन्हें आज्ञा दी । तब मायावियों में श्रेष्ठ विष्णु वृद्ध ब्राह्मण का वेष धारणकर शंखचूड के पास जाकर उससे कहने लगे — ॥ १४-१५ ॥ वृद्ध ब्राह्मण बोले — हे दानवेन्द्र ! इस समय आपके पास आये हुए मुझ ब्राह्मण को भिक्षा प्रदान कीजिये । मैं इस समय आप दीनवत्सल से स्पष्ट नहीं कहूँगा, [प्रतिज्ञा के] बाद में आपसे कहूँगा, तब आप [उसे देकर अपनी प्रतिज्ञा सत्य करेंगे ॥ १६-१७ ॥ तब राजा ने प्रसन्नमुख होकर ‘हाँ’ — ऐसा कह दिया । इसके बाद उन्होंने छल से कहा कि मैं आपका कवच चाहता हूँ ॥ १८ ॥ इसे सुनकर ब्राह्मणभक्त तथा सत्यभाषी दानवराज ने अपने प्राणों के समान दिव्य कवच ब्राह्मण को दे दिया ॥ १९ ॥ इस प्रकार विष्णु ने माया से उससे कवच ले लिया और शंखचूड का रूप धारणकर वे तुलसी के पास गये ॥ २० ॥ वहाँ जाकर मायाविशारद विष्णु ने देवकार्य की सिद्धि के निमित्त उसके साथ रमण किया ॥ २१ ॥ इसी बीच प्रभु विष्णु ने शिवजी को अपने वचन के पालन के निमित्त प्रेरित किया, तब शंखचूड का वध करने के लिये शंकर ने अपना प्रज्वलित शूल धारण किया ॥ २२ ॥ परात्मा शिवजी का वह विजय नामक त्रिशूल सभी दिशाओं तथा भूमि को प्रकाशित करता हुआ करोड़ों मध्याह्नकालीन सूर्यों तथा प्रलयाग्नि की अग्निशिखा के समान, दुर्धर्ष, दुर्निवार्य, व्यर्थ न जानेवाला, शत्रुओं को नष्ट करनेवाला, तेजों का समूह, अत्यन्त उग्र, सभी शस्त्रास्त्रों का नायक, सभी देवताओं तथा राक्षसों के लिये दुःसह तथा महाभयंकर था ॥ २३–२५ ॥ लीलापूर्वक सारे ब्रह्माण्ड को नष्ट करने के लिये तत्पर होकर जलता हुआ वह त्रिशूल एकत्र होकर वहाँ स्थित था । शिवजी का वह त्रिशूल एक हजार धनुष लम्बा, सौ हाथ चौड़ा था । जीव एवं ब्रह्म के स्वरूप, नित्यरूप तथा किसी के द्वारा भी निर्मित न किये हुए उस त्रिशूल ने आकाशमण्डल में चक्कर काटते हुए शीघ्र ही शिवजी की आज्ञा से शंखचूड के सिर पर गिरकर उसे क्षणमात्र में भस्म कर दिया ॥ २६–२८ ॥ हे विप्र ! इसके बाद वह त्रिशूल पुनः अपना कार्य समाप्तकर मन के वेग के समान वेग से आकाशमार्ग से शिवजी के पास चला आया ॥ २९ ॥ उस समय स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्व तथा किन्नर गाने लगे, मुनि तथा देवता प्रसन्न हो उठे और अप्सराएँ नाचने लगीं । शिवजी के ऊपर निरन्तर फूलों की वर्षा होने लगी तथा विष्णु, ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवगण शिवजी की प्रशंसा करने लगे ॥ ३०-३१ ॥ इस प्रकार दानवेन्द्र शंखचूड शिवजी की कृपा से शापमुक्त हो गया और अपने पूर्वरूप को प्राप्त हो गया ॥ ३२ ॥ शंखचूड की अस्थियों से एक प्रकार की शंखजाति प्रकट हुई । शंख का जल शंकरजी के अतिरिक्त अन्य सभी देवताओं के लिये प्रशस्त माना गया है । विशेषकर विष्णु एवं लक्ष्मी के लिये तथा उनके सम्बन्धियों के लिये तो शंख का जल महाप्रिय है, किंतु हे महामुने ! वह शंकरजी को प्रिय नहीं है ॥ ३३-३४ ॥ इस प्रकार शिवजी शंखचूड का वधकर अति प्रसन्न होकर वृषभ पर आरूढ़ हो उमा, स्कन्द एवं अपने गणों के साथ शिवलोक को चले गये ॥ ३५ ॥ विष्णु वैकुण्ठ को चले गये, श्रीकृष्ण भी स्वस्थ हो गये और देवता अपना-अपना अधिकार पा गये तथा परम आनन्द से युक्त हो गये । सारा संसार अत्यन्त शान्त हो गया । सम्पूर्ण जल विघ्नरहित हो गया, आकाश स्वच्छ हो गया तथा सम्पूर्ण पृथ्वी मंगलमयी हो गयी ॥ ३६-३७ ॥ [हे व्यास!] इस प्रकार मैंने शिवजी का चरित कह दिया, जो आनन्द प्रदान करनेवाला, सारे दुःखों को दूर करनेवाला, लक्ष्मी की वृद्धि करनेवाला, सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला, धन्य, यश तथा आयु को बढ़ानेवाला, समस्त विघ्नों को नष्ट करनेवाला, भुक्ति एवं मुक्ति को प्रदान करनेवाला एवं समस्त कामनाओं का फल देनेवाला है ॥ ३८-३९ ॥ जो बुद्धिमान् मनुष्य शंकर के इस चरित्र को नित्य सुनता, सुनाता, पढ़ता अथवा पढ़ाता है, वह इस लोक में धन-धान्य, सुत तथा सुख प्राप्त करता है और सभी कामनाओं को विशेषकर शिवभक्ति को प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४०-४१ ॥ इस अतुलनीय, सभी उपद्रवों का नाश करनेवाले, परम ज्ञान उत्पन्न करनेवाले तथा शिव के प्रति भक्ति की वृद्धि करनेवाले आख्यान को सुननेवाला ब्राह्मण तेज से युक्त, क्षत्रिय विजयी, वैश्य धन से सम्पन्न एवं शूद्र श्रेष्ठता को प्राप्त करता है ॥ ४२-४३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में शंखचूडवधवर्णन नामक चालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४० ॥ Related