October 9, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 52 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः बावनवाँ अध्याय अभिमानी बाणासुर द्वारा भगवान् शिव से युद्ध की याचना, बाणपुत्री ऊषा का रात्रि के समय स्वप्न में अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखा द्वारा योगबल से अनिरुद्ध का द्वारका से अपहरण, अन्तःपुर में अनिरुद्ध और ऊषा का मिलन तथा द्वारपालों द्वारा यह समाचार बाणासुर को बताना सनत्कुमार बोले — [हे व्यास!] अब आप परमात्मा शिव का दूसरा चरित्र सुनिये, जो भक्तवत्सलता से पूर्ण तथा परमानन्ददायक है ॥ १ ॥ पूर्वकाल में भाग्यदोष से गर्वित होकर बाणासुर ने ताण्डव नृत्यकर शिवजी को सन्तुष्ट किया था ॥ २ ॥ उसके बाद पार्वतीपति शिवजी को सन्तुष्ट मनवाला जानकर बाणासुर सिर झुकाकर विनम्र हो हाथ जोड़कर कहने लगा — ॥ ३ ॥ बाणासुर बोला — हे देवाधिदेव ! हे महादेव ! हे सर्वदेवशिरोमणे ! यद्यपि मैं आपकी कृपा से अत्यन्त बलवान् हूँ, तथापि मेरी प्रार्थना सुनिये ॥ ४ ॥ आपने मुझे हजार भुजाएँ प्रदान की हैं, किंतु ये मेरे लिये भारस्वरूप हो गयी हैं, इस त्रिलोकी में आपके अतिरिक्त और कोई दूसरा योद्धा मेरे समान नहीं है ॥ ५ ॥ हे देव ! अब मैं इन हजार भुजाओं को लेकर क्या करूँ ? हे वृषभध्वज ! बिना युद्ध के पर्वत के सदृश इन भुजाओं का क्या प्रयोजन ? ॥ ६ ॥ मैं अपनी इन मजबूत भुजाओं की खुजली मिटाने के लिये युद्ध की इच्छा से दिग्गजों के पास गया, वहाँ जाकर मैंने उनके पुरों को तहस-नहस कर दिया, पर्वतों को उखाड़ दिया, किंतु वे भी भयभीत होकर भाग गये ॥ ७ ॥ मैंने अपने यहाँ यमराज को योद्धा के रूप में, अग्नि को महान् कर्मकार के रूप में, वरुण को गायों के पालन करनेवाले गोपाल के रूप में, कुबेर को गजाध्यक्ष के रूप में, निर्ऋति को अन्तःपुर की परिचारिका के रूप में नियुक्त किया है । मैंने इन्द्र को जीत लिया और उसे लोक में सदा करदाता बना दिया है । अब आप मुझे युद्ध का कोई ऐसा उपाय बताइये, जहाँ पर मेरी ये भुजाएँ शत्रुओं के हाथ से प्रयुक्त शस्त्रास्त्र के द्वारा जर्जर कर दी जायँ ॥ ८–१० ॥ हे महेश्वर ! ये [मेरी भुजाएँ] शत्रुओं के हाथों से गिर जायँ अथवा वे स्वयं उसके हाथों को हजार टुकड़ों में विभक्त कर दें, आप मेरे इस मनोरथ को पूर्ण कीजिये ॥ ११ ॥ सनत्कुमार बोले — भक्तजनों के संकट को दूर करनेवाले महामन्यु रुद्र ने यह सुनकर क्रुद्ध हो अत्यन्त अद्भुत अट्टहास करके कहा — ॥ १२ ॥ रुद्र बोले — हे समस्त दैत्यकुल में अधम ! हे अहंकारी ! तुझे सब प्रकार से धिक्कार है, तुझ बलिपुत्र तथा मेरे भक्त के लिये इस प्रकार का वचन कहना उचित नहीं है । तुम अपने इस अहंकार की शान्ति शीघ्र प्राप्त करोगे । मेरे-जैसे बलवान् से तुम्हें अकस्मात् प्रचण्ड युद्ध का सामना करना पड़ेगा ॥ १३-१४ ॥ पर्वत के समान तुम्हारी ये भुजाएँ उस युद्ध में शस्त्रास्त्रों से छिन्न-भिन्न होकर इस प्रकार भूमि पर गिरेंगी, जैसे अग्नि से जलाया गया काष्ठ पृथ्वी पर गिर जाता है ॥ १५ ॥ हे दुष्टात्मन् ! मोर से युक्त मनुष्य के सिरवाली यह तुम्हारी ध्वजा जो शस्त्रागार पर स्थापित है, वह जब बिना वायु के गिर जाय, तब चित्त में समझना कि तुम्हारे सामने महाघोर भय उपस्थित हो गया है । उस समय तुम अपनी सेनासहित घोर संग्राम में जाना । अब तुम अपने घर जाओ, अभी वहाँ तुम्हारा सब प्रकार से कल्याण है । हे दुर्मते ! तुम बड़े घोर उत्पातों को देखोगे । इस प्रकार कहकर अहंकार का नाश करनेवाले भक्तवत्सल शिव मौन हो गये ॥ १६–१९ ॥ सनत्कुमार बोले — यह सुनकर बाणासुर अपने अंजलिस्थ दिव्य पुष्पों से महादेव रुद्र का पूजन करके उन्हें प्रणामकर अपने घर चला गया । उसने कुम्भाण्ड के पूछने पर हर्षित हो सारा वृत्तान्त कह सुनाया और उत्सुक होकर उस योग की प्रतीक्षा करने लगा । इसके अनन्तर अकस्मात् अपना ध्वज भग्न हुआ देखकर वह बाणासुर हर्षित होकर युद्ध के लिये चल पड़ा ॥ २०-२२ ॥ अपनी सेना को बुलाकर उस महावीर, महारथी एवं महोत्साही बलिपुत्र बाणासुर ने अपने आठ गणों को साथ लेकर संग्रामसम्बन्धी यज्ञकर विजयप्रद मधु का एवं सभी दिशाओं में मांगलिक द्रव्यों का दर्शनकर युद्ध के लिये प्रस्थान किया ॥ २३-२४ ॥ उसने अपने मन में विचार किया कि आज रणप्रिय, नाना शस्त्रास्त्रों का पारगामी वह कौन-सा योद्धा है, जो मुझसे युद्ध करने के लिये कहाँ से आयेगा ? क्या वह सचमुच मेरी सहस्रों भुजाओं को अग्निदग्ध काष्ठ के समान नष्ट कर देगा ? मैं भी युद्ध में महातीव्र अपने शस्त्रों से सैकड़ों योद्धाओं को काट डालूँगा ॥ २५-२६ ॥ इसी बीच शिवजी की प्रेरणा से वह काल आ पहुँचा, जब बाणासुर की सुन्दर कन्या ऊषा शृंगारकर विराजमान थी ॥ २७ ॥ वह वैशाख मास की अर्धरात्रि में विष्णु की पूजाकर स्त्रीभाव से उपलम्भित होकर गुप्त अन्तःपुर में सो रही थी । तभी भगवती पार्वती की दिव्य माया से आकृष्ट होने के कारण कृष्णपुत्र प्रद्युम्न से उत्पन्न हुए अनिरुद्ध ने उस रात्रि में उससे बलपूर्वक विहार किया, जिससे वह अनाथ के समान रोने लगी । अनिरुद्ध भी उस कन्या से बलपूर्वक रमणकर पार्वती की सखियों के साथ दिव्य योग से क्षणमात्र में द्वारकापुरी चले आये ॥ २८-३० ॥ तब उपभोग की हुई वह कन्या उठकर रोते-रोते अपनी सखियों से नाना प्रकार के वाक्य कहते हुए शरीर का त्याग करने के लिये तैयार हो गयी ॥ ३१ ॥ हे व्यासजी ! जब सखियों ने उसके द्वारा किये गये पूर्व दोष का स्मरण कराया, तो वह अपने पूर्व कृत्यों का स्मरण करने लगी । हे मुने ! उस समय बाणासुर की पुत्री ऊषा ने कुम्भाण्ड की पुत्री चित्रलेखा से मधुर वाणी में कहा — ॥ ३२-३३ ॥ ऊषा बोली — हे सखि ! यदि पार्वती ने पहले ही इसे मेरा पति निश्चित किया है, तो वह गुप्त पति किस उपाय से मुझे प्राप्त हो सकता है ? जिसने मेरा मन हरण किया, वह किस कुल में उत्पन्न हुआ है ? ऊषा की यह बात सुनकर सखी ने उससे कहा — ॥ ३४-३५ ॥ चित्रलेखा बोली — हे देवि ! तुमने स्वप्न में जिस पुरुषको देखा है, उसे मैं किस प्रकार से लाऊँ, जो मेरे ज्ञान से परे है, उसको ले आना किस प्रकार सम्भव है ! ॥ ३६ ॥ उसके ऐसा कहने पर अनुरागवती दैत्यकन्या ऊषा ने उसके वियोग के कारण मरने का निश्चय कर लिया, किंतु उस सखी ने [समझा-बुझाकर] प्रथम दिन उसकी रक्षा की । इसके बाद हे मुनिश्रेष्ठ ! कुम्भाण्ड की पुत्री महाबुद्धिमती उस चित्रलेखा ने बाणासुर की पुत्री ऊषा से पुनः इस प्रकार कहा — हे सखि ! तुम अपने मन को हरण करनेवाले उस पुरुष को बताओ, यदि वह इस त्रिलोकी में कहीं भी है, तो मैं उसे लाऊँगी और तुम्हारी विपत्ति दूर करूँगी ॥ ३७–३९ ॥ सनत्कुमार बोले — इस प्रकार कहकर चित्रलेखा ने वस्त्र के ऊपर देव, दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, नाग तथा यक्ष आदि के चित्र खींचे । उसने मनुष्यों में वृष्णिवंशी यादवों, शूर, वसुदेव, बलराम, कृष्ण तथा नरश्रेष्ठ प्रद्युम्न का चित्र खींचा ॥ ४०-४१ ॥ जब उसने प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्ध का चित्र खींचा, तो उस चित्र को देखते ही लज्जित हो ऊषा ने अपना मुख नीचे कर लिया और मन से वह अत्यन्त प्रसन्न हुई ॥ ४२ ॥ ऊषा बोली — हे सखि ! रात्रि में आकर जिसने शीघ्र ही मेरे चित्तरत्न को चुराया था, वह यही पुरुष है, मैंने उसे पा लिया । हे भामिनि ! जिसके स्पर्शमात्र से मैं मोहित हो गयी थी, उसे मैं जानना चाहती हूँ, तुम सब कुछ बताओ । यह किसके कुल में उत्पन्न हुआ है और इसका क्या नाम है ? ऊषा के ऐसा कहने पर उस योगिनी ने उसके वंश तथा नाम का वर्णन किया ॥ ४३-४५ ॥ हे मुनिसत्तम ! उसका कुल आदि सब कुछ जानकर बाणासुर की पुत्री उस कामिनी ऊषा ने उत्कण्ठित हो इस प्रकार कहा — ॥ ४६ ॥ ऊषा बोली — हे सखि ! अब तुम उसकी प्राप्ति के लिये प्रेमपूर्वक कोई उपाय करो, जिससे मैं अपने उस प्राणवल्लभ पति को शीघ्र प्राप्त कर सकूँ ॥ ४७ ॥ हे सखि ! मैं जिसके बिना एक क्षण भी जीवन धारण करने में समर्थ नहीं हूँ, उसे प्रयत्नपूर्वक शीघ्र यहाँ लाओ और मुझे सुखी करो ॥ ४८ ॥ सनत्कुमार बोले — हे मुनिवर ! तब बाण की कन्या के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर मन्त्री कुम्भाण्ड की पुत्री चित्रलेखा विस्मित हो गयी और विचार करने लगी ॥ ४९ ॥ इसके बाद सखी से आज्ञा लेकर मन के समान वेगवाली वह चित्रलेखा उस पुरुष को कृष्ण का पौत्र अनिरुद्ध जानकर द्वारका जाने को उद्यत हो गयी ॥ ५० ॥ वह ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को प्रातःकाल से तीन प्रहर बीत जाने पर द्वारकापुरी पहुंची । उस दिव्य योगिनी ने क्षणमात्र में आकाशमार्ग से अन्तःपुर के उद्यान में प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्ध को देखा । उस समय सर्वांगसुन्दर श्यामवर्ण तथा नवीन यौवनयुक्त वे अनिरुद्ध स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे । वे माधवी लता से निर्मित मधु का पान कर रहे थे और मन्द-मन्द हँस रहे थे ॥ ५१-५३ ॥ उसके बाद शय्या पर बैठे हुए उन अनिरुद्ध को उसने तामस योग के द्वारा अन्धकार-पट से आच्छादित कर दिया, पुनः उस शय्या को अपने सिरपर रखकर वह क्षणमात्र में शोणितपुर में आ गयी, जहाँ कामपीड़ित वह बाणकन्या ऊषा उन्मत्तचित्त होकर नाना प्रकार के भाव व्यक्त कर रही थी । उस समय लाये गये अपने पति अनिरुद्ध को देखकर ऊषा भयभीत हो गयी ॥ ५४-५६ ॥ अत्यन्त सुरक्षित उस अन्तःपुर में नवीन समागम में ज्यों ही उन दोनों ने क्रीडा प्रारम्भ की, उसी समय हाथ में बेंत लिये द्वारपालों ने कामचेष्टाओं तथा अनुमानों से कन्या के दुराचरण को जान लिया । उन लोगों ने दिव्य शरीरधारी, नवयुवक, साहसी एवं युद्धकला में कुशल उस पुरुष (अनिरुद्ध)-को भी देख लिया ॥ ५७–५९ ॥ इसके बाद अन्तःपुर के रक्षक उन महावीर पुरुषों ने उसे देखकर सारा वृत्तान्त बलिपुत्र बाण से कह दिया ॥ ६० ॥ द्वारपाल बोले — हे देव ! अत्यन्त सुरक्षित अन्तःपुर में प्रवेशकर किसी पुरुष ने आपकी कन्या के साथ बलात् शयन किया है, वह कौन है, हमलोग उसे नहीं जानते । हे दानवेन्द्र ! हे महाबाहो ! इसे देखिये, देखिये और जो उचित हो, उसे कीजिये, हमलोग दोषी नहीं हैं ॥ ६१-६२ ॥ सनत्कुमार बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! उनका वचन सुनकर और कन्या का दोष सुनकर महाबली दैत्येन्द्र [बाणासुर] आश्चर्यचकित हो गया ॥ ६३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में ऊषाचरित्रवर्णन नामक बावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५२ ॥ Related