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शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 55
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पचपनवाँ अध्याय
भगवान् कृष्ण तथा बाणासुर का संग्राम, श्रीकृष्ण द्वारा बाण की भुजाओं का काटा जाना, सिर काटने के लिये उद्यत हुए श्रीकृष्ण को शिव का रोकना और उन्हें समझाना, बाण का गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुर की मित्रता, ऊषा-अनिरुद्ध को लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना

व्यासजी बोले — हे सर्वज्ञ ! हे ब्रह्मपुत्र ! हे सनत्कुमार ! आपको नमस्कार है । हे मुने ! हे तात ! आपने मुझे यह अद्भुत कथा सुनायी ॥ १ ॥ श्रीकृष्ण के द्वारा युद्ध में जृम्भणास्त्र से शिवजी के मोहित किये जाने पर तथा बाण की सेना के मार दिये जानेपर बाणासुर ने क्या किया, उसको कहिये ॥ २ ॥

शिवमहापुराण

सूतजी बोले — अमिततेजस्वी उन व्यासजी का वचन सुनकर ब्रह्मा के पुत्र मुनीश्वर [सनत्कुमार] प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे — ॥ ३ ॥

सनत्कुमार बोले — हे महाप्राज्ञ ! हे व्यासजी ! हे तात ! लोकलीला का अनुसरण करनेवाले श्रीकृष्ण तथा शिवजी की अद्भुत तथा सुन्दर कथा का श्रवण कीजिये ॥ ४ ॥

पुत्रों तथा गणोंसहित लीला से शिवजी के सो जाने पर वह दैत्यराज बाणासुर कृष्ण के साथ युद्ध करने के लिये निकल पड़ा ॥ ५ ॥ कुम्भाण्ड से घोड़ा लेकर वह महाबली दैत्य अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को धारणकर अतुलनीय युद्ध करने लगा ॥ ६ ॥

उस महाबली दैत्येन्द्र बाणासुर ने अपनी सेना को नष्ट हुआ देखकर क्रोधित हो घोर युद्ध किया ॥ ७ ॥ उस संग्राम में शिवजी से महान् बल पाकर महावीर श्रीकृष्ण ने बाणासुर को तिनके के समान मानकर बड़े जोर से गर्जन किया ॥ ८ ॥ हे मुनीश्वर ! बाणासुर की शेष बची हुई सेना को भयभीत करते हुए वे अपने अद्भुत शार्ङ्ग नामक धनुष की टंकार करने लगे ॥ ९ ॥ धनुष की टंकार से उत्पन्न हुए उस तीव्र नाद से भूमि और आकाश का मध्यभाग व्याप्त हो गया ॥ १० ॥ उसी समय श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो उस धनुष को कान तक खींचकर बाणासुर के ऊपर सर्पों के समान विषैले अनेक तीक्ष्ण बाणों को छोड़ा ॥ ११ ॥

बलिपुत्र बाणासुर ने उन बाणों को आता हुआ देखकर अपने धनुष से निकले हुए बाणों से उन्हें अपने तक पहुँचने के पहले बीच में ही काट दिया ॥ १२ ॥ शत्रुओं को विनष्ट करनेवाला वह दैत्यराज बाण पुनः गर्जना करने लगा, तब वहाँ सम्पूर्ण यादव भयभीत हो गये और श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए मूर्च्छित हो गये ॥ १३ ॥ इसके बाद बलि के पुत्र महान् अहंकारी बाण ने शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके अतिशूर श्रीकृष्ण के ऊपर अपने बाण छोड़े ॥ १४ ॥

तब महादैत्यों के शत्रु श्रीकृष्णजी ने भी शिवजी के चरणकमलों का स्मरणकर अपने बाणों से उन बाणों को दूर से शीघ्र ही काट दिया ॥ १५ ॥ तब संग्राम में आकुल बलराम आदि सभी बली यादवों ने क्रोध करके अपने-अपने प्रतियोद्धा को मारा ॥ १६ ॥ इस प्रकार वहाँ उन दोनों बली पुरुषों का बहुत समय-तक भयानक युद्ध हुआ, जो सुननेवालों को भी आश्चर्यचकित कर देनेवाला था ॥ १७ ॥ संग्राम में उस समय गरुड़जी ने अति क्रोध करके अपने पंखों के प्रहारों से बाणासुर की सब सेना को चूर्ण-चूर्ण कर दिया ॥ १८ ॥

तब अपनी सेना का मर्दन करनेवाले गरुड़ को तथा अपनी सेना को मर्दित देखकर शैवों में श्रेष्ठ बलवान् उस दैत्य ने उनके ऊपर अति क्रोध किया और हजार भुजावाले उस दैत्य ने शीघ्र ही महादेव के चरणारविन्दों का स्मरण करके शत्रुओं के लिये असह्य महान् पराक्रम प्रदर्शित किया ॥ १९-२० ॥ वहाँ वीरों को नष्ट करने वाले उस दैत्य ने एक साथ श्रीकृष्णादि समस्त यादवों पर तथा गरुड़ के ऊपर अलग-अलग अनेक बाणों से प्रहार किया ॥ २१ ॥

हे मुने ! बलवान् उस दैत्य ने एक बाण से गरुड़ को, एक बाण से श्रीकृष्ण को, एक से बलराम को और एक से अन्य लोगों को मारा ॥ २२ ॥ उस समय बड़े पराक्रमी विष्णु के अवताररूप तथा दैत्यों का नाश करनेवाले परमेश्वर श्रीकृष्ण उस युद्ध में अत्यधिक कुपित हुए और गरजने लगे तथा शिवजी का स्मरणकर अपने धनुष से छोड़े हुए बाणों से अति उग्र पराक्रमवाले उसके सैनिकों तथा उस दैत्य बाणासुर पर उन्होंने एक साथ प्रहार किया ॥ २३-२४ ॥

निश्चिन्त होकर श्रीकृष्ण ने अपने बाणों से उसके धनुष, छत्र आदि को काट दिया और उसके घोड़ों को मारकर गिरा दिया ॥ २५ ॥ महावीर बाणासुर ने अतिक्रोधित हो गर्जन किया और अपनी गदा से श्रीकृष्ण पर प्रहार किया, जिससे वे पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ २६ ॥ हे देवर्षे ! तब श्रीकृष्ण लोक में लीला करने के कारण शीघ्र ही भूमि से उठकर शिवभक्त उस शत्रु के साथ युद्ध करने लगे ॥ २७ ॥ इस प्रकार उन दोनों में बहुत समय तक घोर संग्राम होता रहा, भगवान् श्रीकृष्ण शिवरूप थे तथा वह बली बाणासुर शिवजी के भक्तों में श्रेष्ठ था ॥ २८ ॥

हे मुनीश्वर ! पराक्रमशाली श्रीकृष्ण बहुत देर तक बाणासुर के साथ युद्धकर पुनः शिवजी की आज्ञा से बल प्राप्तकर अत्यधिक क्रोधित हो उठे ॥ २९ ॥ तदनन्तर शत्रुवीरों का नाश करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण ने शिवजी की आज्ञा से शीघ्र ही सुदर्शनचक्र से बाणासुर की बहुत-सी भुजाओं को काट दिया ॥ ३० ॥ उस समय उसकी श्रेष्ठ चार भुजाएँ शेष रह गयीं और शिवजी के अनुग्रह से वह शीघ्र ही व्यथारहित हो गया ॥ ३१ ॥

जिस समय बाणासुर शिवजी के स्मरण से हीन हुआ, उसी समय वीरता को प्राप्त हुए श्रीकृष्ण उसका सिर काटने को उद्यत हुए, तब भगवान् सदाशिव उनके सामने खड़े हो गये ॥ ३२ ॥

रुद्र बोले — हे भगवन् ! हे देवकीपुत्र ! हे विष्णो ! मैंने जो पहले आपको आज्ञा दी थी, मेरी आज्ञा का पालन करनेवाले आपने वैसा ही किया ॥ ३३ ॥ अब आप बाणासुर के सिर को मत काटिये, मेरी आज्ञा से अपने सुदर्शनचक्र को लौटा लीजिये; क्योंकि मेरे भक्त के ऊपर सदा यह चक्र निष्फल होगा ॥ ३४ ॥ हे गोविन्द ! संग्राम में मैंने आपको यह अनिवार्य सुदर्शन चक्र दिया है, इसलिये इस विजयचक्र को युद्धभूमि से लौटा लीजिये ॥ ३५ ॥

हे लक्ष्मीश ! पहले भी आपने यह सुदर्शनचक्र दधीचि, वीर रावण तथा तारक आदि के ऊपर मेरी आज्ञा के बिना नहीं चलाया । आप तो योगीश्वर साक्षात् परमात्मा, जनार्दन तथा सब प्राणियों के हित में तत्पर रहनेवाले हैं, इसका अपने मन में विचार कीजिये । मैंने इसे यह वर दे दिया है कि तुम्हें मृत्यु का भय नहीं रहेगा । अतः मेरा यह वचन सदा सत्य होगा, मैं आपसे सन्तुष्ट हूँ ॥ ३६-३८ ॥

हे हरे ! पहले यह अपनी भुजाओं को खुजलाकर अपनी गति को भूल गया और गर्वित तथा उन्मत्त होकर इसने मुझसे युद्ध का वर माँगा । तब मैंने उसे शाप दिया कि थोड़े ही समय में तुम्हारी भुजाओं को काटनेवाला आयेगा और तुम्हारा अभिमान नष्ट हो जायगा ॥ ३९-४० ॥

वे बाण से बोले — मेरी आज्ञा से तुम्हारी भुजाओं को काटनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण आ गये हैं, इसलिये तुम अब संग्राम से लौट जाओ और [श्रीकृष्ण से कहा-] वधू और वर के साथ अपने स्थान को चले जाओ ॥ ४१ ॥

ऐसा कहकर शिवजी उन दोनों में मित्रता कराकर उनको आज्ञा देकर गणों तथा पुत्रोंसहित अपने स्थान को चले गये ॥ ४२ ॥

सनत्कुमार बोले — इस प्रकार भगवान् शिवजी का वचन सुनकर अपने सुदर्शनचक्र को लौटाकर अक्षत शरीरवाले विजयी श्रीकृष्ण ने अन्तःपुर में प्रवेश किया । भार्या सहित अनिरुद्ध को आश्वासन देकर उन्होंने बाणासुर के द्वारा प्रदान किये गये अनेक रत्नसमुदाय को स्वीकार किया । ऊषा की सखी परमयोगिनी चित्रलेखा को लेकर शिवजी की आज्ञा से कृतकृत्य श्रीकृष्ण अति प्रसन्न हुए ॥ ४३-४५ ॥

इसके बाद श्रीकृष्ण हृदय से शिवजी को प्रणामकर बलिपुत्र बाणासुर से विदा लेकर कुटुम्बसहित अपने नगर को चले गये । मार्ग में प्रतिकूल हुए वरुण को अनेक प्रकार से जीतकर वे आनन्दित होकर द्वारकापुरी में आये । इसके बाद गरुड़जी को विसर्जितकर अपने मित्रों को देखकर तथा उनसे हास-परिहास करते हुए द्वारका में पहुँचकर इच्छानुसार विचरण करने लगे ॥ ४६-४८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में बाणभुजकृन्तन-गर्वापहारवर्णन नामक पचपनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५५ ॥

 

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