शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 19
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
उन्नीसवाँ अध्याय
कुबेर का काशीपुरी में आकर तप करना, तपस्या से प्रसन्न उमासहित भगवान् विश्वनाथ का प्रकट हो उसे दर्शन देना और अनेक वर प्रदान करना, कुबेर द्वारा शिवमैत्री प्राप्त करना

ब्रह्माजी बोले — पहले के पाद्मकल्प की बात है, मुझ ब्रह्मा के मानसपुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ और विश्रवा के पुत्र वैश्रवण कुबेर हुए ॥ १ ॥ उन्होंने पूर्वकाल में अत्यन्त उग्र तपस्या के द्वारा त्रिनेत्रधारी महादेव की आराधना करके विश्वकर्मा की बनायी हुई इस अलकापुरी का उपभोग किया ॥ २ ॥ उस कल्प के व्यतीत हो जाने पर मेघवाहनकल्प आरम्भ हुआ, उस समय वह यज्ञदत्त का पुत्र [कुबेर के रूप में] अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगा ॥ ३ ॥ दीपदान मात्र से मिलनेवाली शिवभक्ति के प्रभाव को जानकर शिव की चित्प्रकाशिका काशिकापुरी में जाकर अपने चित्तरूपी रत्नमय दीपकों से ग्यारह रुद्रों को उद्बोधित करके अनन्य भक्ति एवं स्नेह से सम्पन्न हो वह तन्मयतापूर्वक शिव के ध्यान में मग्न होकर निश्चलभाव से बैठ गया ॥ ४-५ ॥

शिवमहापुराण

 

जो शिव से एकता का महान् पात्र है, तपरूपी अग्नि से बढ़ा हुआ है, काम-क्रोधादि महाविघ्नरूपी पतंगों के आघात से शून्य है, प्राणनिरोधरूपी वायुशून्य स्थान में निश्चलभाव से प्रकाशित है, निर्मल दृष्टि के कारण स्वरूप से भी निर्मल है तथा सद्भावरूपी पुष्पों से पूजित है — ऐसे शिवलिंग की प्रतिष्ठा करके वह तब तक तपस्या में लगा रहा, जबतक उसके शरीर में केवल अस्थि और चर्ममात्र ही अवशिष्ट नहीं रह गये । इस प्रकार उसने दस हजार वर्षों तक तपस्या की ॥ ६-८ ॥ तदनन्तर विशालाक्षी पार्वतीदेवी के साथ भगवान् विश्वनाथ स्वयं प्रसन्नमन से अलकापुरी के स्वामी को देखकर, जो शिवलिंग में मन को एकाग्र करके ठूँठे वृक्ष की भाँति स्थिरभाव से बैठे थे, बोले — हे अलकापते ! मैं वर देने के लिये उद्यत हूँ, तुम अपने मन की बात कहो – ॥ ९-१० ॥

उन तपोनिधि ने जब अपने नेत्रों को खोलकर देखा, तो उन्हें उदित हो रहे हजार किरणोंवाले हजार सूर्यों से भी अधिक तेजस्वी श्रीकण्ठ उमावल्लभ भगवान् चन्द्रशेखर अपने सामने दिखायी दिये । उनके तेज से प्रतिहत हुए तेजवाले कुबेर चौंधिया गये और अपनी आँखों को बन्द करके वे मन के लिये अगोचर देवेश्वर भगवान् शंकर से कहने लगे कि हे नाथ ! अपने चरणों को देखने के लिये मुझे दृष्टि-सामर्थ्य प्रदान करें । हे नाथ ! यही वर चाहता हूँ कि मैं आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त कर सकूँ । हे ईश ! अन्य वर से क्या लाभ है ? हे शशिशेखर ! आपको प्रणाम है ॥ ११-१४ ॥

उनकी यह बात सुनकर देवाधिदेव उमापति ने अपनी हथेली से उनका स्पर्श करके उन्हें अपने दर्शन की शक्ति प्रदान की ॥ १५ ॥ देखने की शक्ति मिल जानेपर यज्ञदत्त के उस पुत्र ने आँखें खोलकर पहले उमा की ओर ही देखना आरम्भ किया ॥ १६ ॥ वह मन-ही-मन सोचने लगा, भगवान् शंकर के समीप यह सर्वांगसुन्दरी स्त्री कौन है ? इसने मेरे तप से भी अधिक कौन-सा तप किया है ॥ १७ ॥ यह रूप, यह प्रेम, यह सौभाग्य और यह असीम शोभा – सभी अद्भुत हैं, वह ब्राह्मणकुमार बार-बार यही कहने लगा ॥ १८ ॥ बार-बार यही कहता हुआ जब वह क्रूरदृष्टि से उनकी ओर देखने लगा, तब पार्वती के अवलोकन से उसकी बाँयीं आँख फूट गयी ॥ १९ ॥

तदनन्तर देवी पार्वती ने महादेवजी से कहा — [हे प्रभो!] यह दुष्ट तपस्वी बार-बार मेरी ओर देखकर क्या बोल रहा है ? आप मेरी तपस्या के तेज को प्रकट कीजिये ॥ २० ॥ यह पुनः अपने दाहिने नेत्र से बार-बार मुझे देख रहा है, निश्चित ही यह मेरे रूप, प्रेम और सौन्दर्य की सम्पदा से ईर्ष्या करनेवाला है ॥ २१ ॥

देवी की यह बात सुनकर भगवान् शिव ने हँसते हुए उनसे कहा — हे उमे ! यह तुम्हारा पुत्र है, यह तुम्हें क्रूरदृष्टि से नहीं देख रहा है, अपितु तुम्हारी तपःसम्पत्ति का वर्णन कर रहा है ॥ २२ ॥

देवी से ऐसा कहकर भगवान् शिव पुनः उस [ब्राह्मणकुमार]-से बोले — हे वत्स ! मैं तुम्हारी इस तपस्या से सन्तुष्ट होकर तुम्हें वर देता हूँ । तुम निधियों के स्वामी और गुह्यकों के राजा हो जाओ ॥ २३-२४ ॥ हे सुव्रत ! तुम यक्षों, किन्नरों और राजाओं के भी राजा, पुण्यजनों के पालक और सबके लिये धन के दाता हो जाओ ॥ २५ ॥ मेरे साथ सदा तुम्हारी मैत्री बनी रहेगी और हे मित्र ! तुम्हारी प्रीति बढ़ाने के लिये मैं अलका के पास ही रहूँगा । नित्य तुम्हारे निकट निवास करूँगा । हे महाभक्त यज्ञदत्त-कुमार ! आओ, इन उमादेवी के चरणों में प्रसन्न मन से प्रणाम करो, ये तुम्हारी माता हैं ॥ २६-२७ ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] इस प्रकार वर देकर भगवान् शिव ने देवी पार्वती से पुनः कहा — हे देवेश्वरि ! तपस्विनि ! पुत्र पर कृपा करो । यह तुम्हारा पुत्र है ॥ २८ ॥

भगवान् शंकर का यह कथन सुनकर जगदम्बा पार्वती अति प्रसन्नचित्त से उस यज्ञदत्तकुमार से कहने लगीं – ॥ २९ ॥

देवी बोलीं — हे वत्स ! भगवान् शिव में तुम्हारी सदा निर्मल भक्ति बनी रहे । तुम्हारी बायीं आँख तो फूट ही गयी । इसलिये एक ही पिंगल नेत्र से युक्त रहो । महादेवजी ने तुम्हें जो वर दिये हैं, वे सब उसी रूप में तुम्हें सुलभ हों । हे पुत्र ! मेरे रूप के प्रति ईर्ष्या करने के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्ध होओ ॥ ३०-३१ ॥

इस प्रकार कुबेर को वर देकर भगवान् महेश्वर पार्वतीदेवी के साथ अपने वैश्वेश्वर नामक धाम में चले गये ॥ ३२ ॥ इस तरह कुबेर ने भगवान् शंकर की मैत्री प्राप्त की और अलकापुरी के पास जो कैलास पर्वत है, वह भगवान् शंकर का निवास हो गया ॥ ३३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान में कैलासगमनोपाख्यान में कुबेर की शिवमैत्री का वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥

 

 

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