शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 57
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
सत्तावनवाँ अध्याय
महिषासुर के पुत्र गजासुर की तपस्या तथा ब्रह्मा द्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुर द्वारा अत्याचार, उसका काशी में आना, देवताओं द्वारा भगवान् शिव से उसके वध की प्रार्थना, शिव द्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थना से उसका चर्म धारणकर ‘कृत्तिवासा’ नाम से विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंग की स्थापना करना

सनत्कुमार बोले — हे व्यासजी ! शिवजी के [उस] चरित्र को अत्यन्त प्रेम से सुनिये, जिस प्रकार महादेव ने दानवेन्द्र गजासुर को त्रिशूल से मारा । पूर्वकाल में देवगणों के हित के लिये युद्ध में देवी के द्वारा दानव महिषासुर का वध कर दिये जाने पर देवता सुखी हो गये ॥ १-२ ॥

हे मुनीश्वर ! देवताओं की प्रार्थना से देवी द्वारा किये गये अपने पिता के वध का स्मरण करके महावीर गजासुर, उस वैर का स्मरणकर तप करने हेतु वन में गया और ब्रह्माजी को उद्देश्य करके प्रीतिपूर्वक कठोर तप करने लगा ॥ ३-४ ॥

‘मैं काम के वशीभूत स्त्री तथा पुरुषों से अवध्य होऊँ’ — इस प्रकार मन में विचारकर वह तप में दत्तचित्त हो गया । वह हिमालय पर्वत की गुफा में भुजाओं को उठाकर आकाश में दृष्टि लगाये हुए पैर के अँगूठे से पृथ्वी को टेककर परम दारुण तप करने लगा ॥ ५-६ ॥ वह उदार बुद्धिवाला महिषासुरपुत्र गजासुर जटाओं के भार की कान्ति से प्रलय के सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था । उसके मस्तक से उत्पन्न हुई तपोमय धूमाग्नि तिरछे, ऊपर तथा नीचे के लोकों को तप्त करती हुई चारों ओर फैल गयी । उसके मस्तक से प्रकट हुई अग्नि से नदी तथा समुद्र सूख गये, ग्रहों सहित तारे गिरने लगे तथा दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो गयीं ॥ ७-९ ॥

उस अग्नि से तप्त हुए इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता स्वर्गलोक को त्यागकर ब्रह्मलोक को गये और ब्रह्माजी से बोले कि पृथ्वी चलायमान हो रही है ॥ १० ॥

देवगण बोले — हे विधे ! गजासुर के तप से हमलोग सन्तप्त तथा व्याकुल हैं और स्वर्ग में स्थित रहने में समर्थ नहीं हैं, इसलिये आपकी शरण में आये हैं । हे ब्रह्मन् ! आप कृपाकर अन्य लोगों को जीवित रखने के लिये उस दैत्य को शान्त कीजिये, अन्यथा सभी लोग नष्ट हो जायँगे । हमलोग सत्य-सत्य कह रहे हैं । इस प्रकार इन्द्र आदि देवों तथा भृगु, दक्ष आदि से प्रार्थित हुए ब्रह्माजी उस दैत्येन्द्र के आश्रम पर गये । आकाश में मेघों से ढंके हुए सूर्य के समान लोकों को तपाते हुए उसको देखकर विस्मित हो ब्रह्माजी ने हँसते हुए कहा — ॥ ११–१४ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे दैत्येन्द्र ! हे महिषपुत्र ! हे तात ! उठो, उठो, तुम्हारा तप सिद्ध हुआ, मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ, अपनी इच्छा के अनुकूल वर माँगो ॥ १५ ॥

सनत्कुमार बोले — उस दैत्येन्द्र गजासुर ने उठकर अपने नेत्रों से विभु ब्रह्माजी को देखते हुए प्रसन्न होकर वर माँगने के लिये गद्गद वाणी से कहा — ॥ १६ ॥

गजासुर बोला — हे देवदेवेश ! आपको नमस्कार है, यदि आप मुझे वर दे रहे हैं, तो मैं काम के वशीभूत स्त्री-पुरुषों से अवध्य हो जाऊँ । हे विभो ! मैं महाबलवान, वीर्यवान तथा देवता आदि से सदा अजेय और सम्पूर्ण लोकपालों की समस्त सम्पत्ति को भोगनेवाला होऊँ ॥ १७-१८ ॥

सनत्कुमार बोले — इस प्रकार उस दैत्य के वर माँगने पर उसके तप से प्रसन्न हुए ब्रह्माजी ने उसे अति दुर्लभ वरदान दिया ॥ १९ ॥ इस प्रकार वह महिषासुरपुत्र गजासुर वर पाकर अति प्रसन्नचित्त होकर अपने स्थान को चला गया ॥ २० ॥ तदुपरान्त सम्पूर्ण दिशाओं तथा तीनों लोकों को जीतकर एवं देवता, असुर, मनुष्य, इन्द्र. गन्धर्व. गरुड और सर्प आदि को भी जीतकर उन्हें अपने वश में करके संसार को जीतनेवाले उस दैत्य ने तेजसहित लोकपालों के स्थानों का हरण कर लिया । देवोद्यान की शोभा से युक्त साक्षात् विश्वकर्मा द्वारा निर्मित किये गये स्वर्गस्थित महेन्द्रगृह में वह निवास करने लगा ॥ २१-२३ ॥

महाबली, महामना तथा लोकों को जीतनेवाला और कठोर शासनवाला वह दैत्य पीड़ित हुए देवताओं से अपने दोनों चरणों में प्रणाम कराते हुए महेन्द्र के उस घर में विहार करने लगा । इस प्रकार जीती हुई दिशाओं का एकमात्र स्वामी अजितेन्द्रिय वह दैत्य प्रिय विषयों को लोलुपता से भोगता हुआ तृप्त न हुआ ॥ २४-२५ ॥ इस प्रकार ऐश्वर्य से उन्मत्त, अहंकारी तथा शास्त्रों का उल्लंघन करनेवाले उस दैत्य को बहुत समय बीत जाने पर पापबुद्धि उदित हुई । देवगणों को पीड़ा देनेवाला महिषासुर का वह पुत्र पृथ्वी पर श्रेष्ठ ब्राह्मणों तथा तपस्वियों को अत्यधिक क्लेश देने लगा ॥ २६-२७ ॥

वह दुष्टबुद्धि दैत्य पहले के वैरभाव का स्मरण करता हुआ देवताओं तथा सभी प्रमथों को और विशेषकर धर्मात्माओं को अति कष्ट देने लगा । हे तात ! एक समय वह महाबली दैत्य गजासुर शिवजी की राजधानी काशी को गया । हे मुने ! उस समय दैत्येन्द्र के आने पर आनन्दवन में निवास करनेवालों का ‘रक्षा करो, रक्षा करो’ इस प्रकार का महाशब्द होने लगा ॥ २८-३० ॥

जिस समय अपने वीर्य और मद से उन्मत्त हुआ महिषासुर का पुत्र सभी प्रमथों को पीड़ित करता हुआ नगरी में आया, उसी समय गजासुर से पराजित हुए इन्द्रादि सब देवता शिवजी की शरण में गये और आदर से प्रणामकर उनकी स्तुति करने लगे । उन्होंने काशी में उस दैत्य के आगमन तथा विशेषकर वहाँ रहनेवाले शिवभक्तों का अति दुःख भी निवेदन किया ॥ ३१-३३ ॥

देवगण बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! आपकी नगरी में आया हुआ दैत्य गजासुर आपके भक्तजनों को कष्ट दे रहा है, अतः हे कृपानिधे ! आप उसका वध करें ॥ ३४ ॥ वह भूमि पर जहाँ-जहाँ चरण रखता है, वहाँ उसके भार से अचल पृथ्वी भी चलायमान हो जाती है । उसकी जंघा के वेग से डालियों सहित वृक्ष गिरने लगते हैं । उसके भुजदण्ड के आघात से शिखरों सहित पर्वत चूर्ण हो जाते हैं, उसके मुकुट के संघर्ष से मेघ आकाश का त्याग करते हैं और उसके बालों के सम्पर्क से उत्पन्न हुए नीलेपन को वे अबतक भी नहीं छोड़ते । जिसके निःश्वास के भारों से ऊँची तरंगोंवाले महासागर तथा नदियाँ भी जल-जन्तुओं के सहित बड़ा कल्लोल करती हैं, जिसके शरीर की ऊँचाई उसकी माया से नौ सहस्र योजन हो जाती है तथा मायावी उस दैत्य का विस्तार (चौड़ाई का घेरा) भी उतना ही हो जाता है, जिसके नेत्रों के पीलेपन और चांचल्य को बिजली आज भी नहीं धारण कर सकती है, वही बड़े वेग से यहाँ आ गया है ॥ ३५-४० ॥

वह असह्य दैत्य जिस-जिस दिशा में जाता है, ‘काम से जीते हुए स्त्री-पुरुषों से मैं अवध्य हूँ’, — इस प्रकार वहाँ कहता है । काशी की रक्षा में तत्पर रहनेवाले हे देवेश ! इस प्रकार हम लोगों ने उस दैत्य की चेष्टा का आपसे निवेदन किया, आप भक्तों की रक्षा कीजिये ॥ ४१-४२ ॥

सनत्कुमार बोले — देवताओं द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर भक्तों की रक्षा में तत्पर वे शिवजी उसके वध की कामना से बड़ी शीघ्रता से वहाँ आये ॥ ४३ ॥
त्रिशूल हाथ में धारण किये हुए उन भक्तवत्सल शिवजी को गरजते हुए आया देखकर गजासुर गरजने लगा । तब वीरगर्जन करते हुए उन दोनों का अनेक अस्त्रों तथा शस्त्रों के प्रहार से दारुण तथा अद्भुत युद्ध हुआ ॥ ४४-४५ ॥

अति तेजस्वी तथा महाबली गजासुर ने दैत्यों का विनाश करनेवाले शिवजी पर तीव्र बाणों से प्रहार किया ॥ ४६ ॥ हे मुने ! उस समय भयंकर शरीरवाले शिवजी ने अपने अति दारुण बाणों से अपने समीप न पहुँचे हुए उसके बाणों को शीघ्र ही खण्ड-खण्ड कर दिया ॥ ४७ ॥ तब हाथ में खड्ग लेकर ‘अब तुम मेरे द्वारा मारे गये’ —इस प्रकार ऊँचे स्वर से गर्जनकर क्रोधित होकर गजासुर शिवजी की ओर दौड़ा । तब त्रिशूलधारी भगवान् शिव ने उस दैत्य श्रेष्ठ को आता हुआ देखकर तथा अन्य के द्वारा अवध्य जानकर उसे त्रिशूल से मारा । उस त्रिशूल से विद्ध हुआ वह गजासुर दैत्य अपने को शिव का छत्ररूप मानता हुआ शिवजी की स्तुति करने लगा ॥ ४८-५० ॥

गजासुर बोला — हे देवदेव ! हे महादेव ! मैं सब प्रकार से आपका भक्त हूँ । हे त्रिशूलिन् ! मैं कामदेव का नाश करनेवाले आप देवेश को जानता हूँ ॥ ५१ ॥ हे अन्धकारे ! हे महेशान ! हे त्रिपुरान्तक ! हे सर्वग ! आपके हाथ से मेरा वध परम कल्याणकारी हुआ ॥ ५२ ॥ हे कृपालो ! हे मृत्युंजय ! मैं कुछ निवेदन करना चाहता हूँ, उसे सुनिये, सत्य ही कहूँगा, असत्य नहीं, आप विचार कीजिये । एकमात्र आप संसार के वन्दनीय हैं तथा संसार के ऊपर स्थित हैं । समय से सभी को मरना है, परंतु ऐसी मृत्यु कल्याण के निमित्त होती है ॥ ५३-५४ ॥

सनत्कुमार बोले — उसका यह वचन सुनकर दयानिधि शिवजी ने हँसकर महिषासुर के पुत्र गजासुर से कहा — ॥ ५५ ॥

ईश्वर बोले — हे महापराक्रमनिधे ! हे दानवोत्तम ! हे श्रेष्ठ मतिवाले ! हे गजासुर ! मैं प्रसन्न हूँ, अपने अनुकूल वर माँगो ॥ ५६ ॥

सनत्कुमार बोले — वर देनेवाले शिवजी का यह वचन सुनकर दानवेन्द्र गजासुर ने प्रसन्नचित्त होकर कहा — ॥ ५७ ॥

गजासुर बोला — हे महेशान ! हे दिगम्बर ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो अपने त्रिशूल की अग्नि से पवित्र किये हुए मेरे इस देहचर्म को नित्य धारण कीजिये । अपने प्रमाणवाले, कोमल स्पर्शवाले, युद्धक्षेत्र में समर्पित किये गये, देखनेयोग्य, महादिव्य, निरन्तर सुखदायक मेरे चर्म को धारण कीजिये । यह चर्म सदा सुगन्धयुक्त, अतिकोमल, निर्मल तथा अति शोभायमान हो ॥ ५८-६० ॥ हे विभो ! तेज धूप तथा अग्नि की लपट को बहुत देरतक प्राप्त करके भी पवित्र सुगन्धनिधि के कारण मेरा यह देहचर्म भस्म न हो ॥ ६१ ॥

हे दिगम्बर ! यदि मेरा यह चर्म पुण्यमय नहीं होता, तो युद्धस्थल में आपके अंग के साथ इसका संग कैसे होता । हे शिवजी ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे दूसरा वर दीजिये कि आज से प्रारम्भकर आपका नाम कृत्तिवासा हो ॥ ६२-६३ ॥

सनत्कुमार बोले — उसका यह वचन सुनकर भक्तप्रिय भक्तवत्सल महेशान शिवजी प्रसन्न होकर भक्ति से निर्मल मनवाले उस गजासुर नामक दानव से पुनः कहने लगे — ॥ ६४-६५ ॥

ईश्वर बोले — मुक्ति के साधन इस क्षेत्र में तुम्हारा यह पवित्र शरीर सभी के लिये मुक्तिदायक मेरा लिंग होगा । यह महापापों का नाश करनेवाला, समस्त श्रेष्ठ लिंगों में प्रधान एवं मुक्ति को देनेवाला कृत्तिवासेश्वर नामक लिंग होगा ॥ ६६-६७ ॥

इस प्रकार कहकर उन दिगम्बर देवेश ने गजासुर के उस विस्तृत चर्म को लेकर उसे धारण कर लिया ॥ ६८ ॥ हे मुनीश्वर ! उस दिन बहुत बड़ा महोत्सव हुआ, काशीनिवासी सभी लोग तथा प्रमथगण प्रसन्न हो गये । उस समय हर्षपूर्ण मनवाले विष्णु, ब्रह्मा आदि देवताओं ने हाथ जोड़कर शिवजी को नमस्कार करके उनकी स्तुति की । दानवों के स्वामी महिषासुरपुत्र गजासुर के मार दिये जाने पर देवगणों ने अपने स्थान को प्राप्त कर लिया और संसार सुखी हो गया ॥ ६९-७१ ॥

इस प्रकार भक्तों के प्रति दयासूचक, स्वर्ग-कीर्ति एवं आयु को देनेवाले और धन-धान्य को बढ़ानेवाले शिवचरित्र का वर्णन कर दिया गया । उत्तम व्रतवाला जो मनुष्य इसे प्रीति से सुनता है अथवा सुनाता है, वह महान् सुख पाकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ ७२-७३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में गजासुरवधवर्णन नामक सत्तावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५७ ॥

 

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