शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 58
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
अट्ठावनवाँ अध्याय
काशी के व्याघेश्वर लिंग-माहात्म्य के सन्दर्भ में दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्राद के वध की कथा

सनत्कुमार बोले — हे व्यासजी ! सुनिये, मैं शिवजी के चरित्र को कहता हूँ, जिस प्रकार महादेव ने दुन्दुभिनिर्ह्राद नामक दैत्य को मारा । समय पाकर विष्णुदेव के द्वारा दिति के पुत्र महाबली दैत्य हिरण्याक्ष के मारे जाने पर दिति बड़े दुःख को प्राप्त हुई । तब प्रह्लाद के मामा दुन्दुभिनिर्ह्राद नामक देवदुःखदायी दुष्ट दैत्य ने उस दुखित दिति को आश्वासन योग्य वाक्यों से धीरज बँधाया । इसके बाद वह मायावी दैत्यराज दिति को आश्वासन देकर देवताओं को किस प्रकार जीता जाय’ ऐसा उपाय सोचने लगा ॥ १-४ ॥

दैत्यों के शत्रु देवताओं ने विष्णु के द्वारा कपटपूर्वक भाईसहित महान् असुर वीर हिरण्याक्ष को मरवा दिया ॥ ५ ॥ देवताओं का बल क्या है, उनका आहार क्या है, उनका आधार क्या है और वे मेरे द्वारा किस प्रकार जीते जा सकते हैं — ऐसा उपाय वह सोचने लगा । इस प्रकार अनेक बार विचारकर निश्चित तत्त्व को जानकर उस दैत्य ने निष्कर्ष निकाला कि इस विषय में मेरे विचार से ब्राह्मण ही कारण हैं । तब देवताओं का शत्रु महादुष्ट दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्राद बारंबार ब्राह्मणों को मारने के लिये दौड़ा ॥ ६-८ ॥

देवता यज्ञ के भोगी हैं, यज्ञ वेदों से उत्पन्न हैं, वे वेद ब्राह्मणों के आधार पर हैं, अतः ब्राह्मण ही देवताओं के बल हैं । सम्पूर्ण वेद तथा इन्द्रादि देवता ब्राह्मणों पर आधारित और ब्राह्मणों के बलवाले हैं, यह निश्चय है, इसमें कुछ विचार नहीं करना चाहिये । यदि ब्राह्मण नष्ट हो जायँ, तो वेद स्वयं नष्ट हो जायँगे, अतः उन वेदों के नष्ट हो जाने पर देवता स्वयं भी नष्ट हो जायँगे ॥ ९-११ ॥

यज्ञों का नाश हो जाने पर देवता भोजन से रहित होकर निर्बल हो जाने से सुगमता से जीते जायेंगे और इसके बाद देवताओं के पराजित हो जाने पर मैं ही तीनों लोकों में माननीय हो जाऊँगा, देवताओं की अक्षय सम्पत्तियों का हरण कर लूँगा और निष्कण्टक राज्य में सुख भोगूंगा — इस प्रकार निश्चयकर वह दुर्बुद्धि खल फिर विचार करने लगा कि ब्रह्मतेज से युक्त, वेदों का अध्ययन करनेवाले और तप तथा बल से पूर्ण अधिक ब्राह्मण कहाँ हैं, बहुत से ब्राह्मणों का स्थान निश्चय ही काशीपुरी है, सर्वप्रथम उस नगरी को ही जीतकर फिर दूसरे तीर्थों में जाऊँगा । जिन-जिन तीर्थों में तथा जिन-जिन आश्रमों में जो ब्राह्मण हैं, उन सबका भक्षण कर जाऊँगा ॥ १२-१७ ॥

ऐसा अपने कुल के योग्य विचारकर वह दुराचारी तथा मायावी दुन्दुभिनिर्ह्राद काशी में आकर ब्राह्मणों को मारने लगा । समिधा तथा कुशाओं को लाने के लिये ब्राह्मण जिस वन में जाते थे, वहीं पर वह दुष्टात्मा उन सभी का भक्षण कर लेता था । जिस प्रकार उसे कोई न जाने, इस प्रकार वह वन में वनेचर होकर तथा जलाशय में जल-जन्तुरूप होकर छिपा रहता था । इसी प्रकार अदृश्य रूपवाला वह मायावी देवगणों से भी अगोचर होकर दिन में मुनियों के मध्य मुनि होकर ध्यान में तत्पर रहता था । पर्णशालाओं के प्रवेश तथा निर्गम को देखता हुआ वह दैत्य रात्रि में व्याघ्ररूप से बहुत-से ब्राह्मणों का भक्षण करता था । वह निःशंक होकर ऐसा भक्षण करता कि अस्थि तक को नहीं छोड़ता था । इस प्रकार उस दुष्ट ने बहुत-से ब्राह्मणों को मार डाला ॥ १८-२३ ॥

एक समय शिवरात्रि में एक शिवभक्त अपने उटज में देवों के देव शिव की पूजा करके ध्यान में लीन हुआ ॥ २४ ॥ तब उस दैत्येन्द्र दुन्दुभिनिर्ह्राद ने बल से दर्पित होकर व्याघ्र का रूप धारणकर उसे भक्षण करने की इच्छा की । तब ध्यान करते हुए शिवजी के अवलोकन में दृढ़चित्त होकर अस्त्रमन्त्रों का विन्यास करनेवाले उस भक्त को भक्षण करने में वह समर्थ न हुआ ॥ २५-२६ ॥ सर्वव्यापी शिव ने उसके आशय को जानकर उस दुष्टरूप दैत्य का वध करने की इच्छा की । जब उसने व्याघ्ररूप से भक्त ब्राह्मण को ग्रहण करना चाहा, तभी संसार की रक्षारूपमणि, तीन नेत्रोंवाले तथा भक्तों की रक्षा करने में प्रवीण बुद्धिवाले शिवजी प्रकट हुए । भक्त से पूजित उस लिंग से प्रकट हए शिवजी को देखकर वह दैत्य फिर उसी रूप से पर्वत के समान हो गया ॥ २७-२९ ॥

जब उसने सर्वज्ञ शिवजी को अवज्ञासहित आया हुआ देखा, तब वह [व्याघ्ररूपी] दुष्ट दैत्य उनकी ओर झपटा । इतने में ही उसे पकड़कर भगवान् ने अपनी काँख में दबा लिया तथा भक्तवत्सल शिवजी ने वज्र से भी अतिकठोर मुष्टि से उस व्याघ्र के सिर पर प्रहार किया ॥ ३०-३१ ॥ उस मुष्टि के आघात से तथा काँख में पीसे जाने से दुखी हुआ वह व्याघ्र अतिनाद से आकाश और पृथिवी को भरता हुआ मर गया । उसके रोदन के महान् नाद से व्याकुलचित्त हुए तपस्वी लोग उसके शब्द का अनुसरण करते हुए रात्रि में वहाँ आये । वहाँ मृगेश्वर सिंह को काँख में करनेवाले शिवजी को देखकर वे सब नम्र हो जयजयकार करके उनकी स्तति करने लगे — ॥ ३२-३४ ॥

ब्राह्मण बोले — हे जगद्गुरो ! हे ईश्वर ! कठिन उपद्रव से रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये और दया करके इस स्थान में स्थित रहिये । हे महादेव ! आप इसी स्वरूप से व्याघ्रेश नाम से इस ज्येष्ठ नामक स्थान की रक्षा कीजिये । हे गौरीश ! दुष्टों का नाश करके हम तीर्थवासियों की अनेक प्रकार के उपद्रवों से रक्षा कीजिये और भक्तों को अभयदान दीजिये ॥ ३५-३७ ॥

सनत्कुमार बोले — इस प्रकार अपने उन भक्तों का वचन सुनकर भक्तवत्सल शिवजी ने ‘तथास्तु’ कहकर भक्तों से पुनः कहा — ॥ ३८ ॥

महेश्वर बोले — जो मनुष्य श्रद्धा से मुझे इस रूप में यहाँ देखेगा, उसके दुःख को मैं अवश्य दूर करूँगा ॥ ३९ ॥ मेरे इस चरित्र को सुनकर तथा मेरे इस लिंग का अपने हृदय में स्मरण करके युद्ध में प्रवेश करनेवाला मनुष्य निःसन्देह विजय को प्राप्त करेगा । इसी अवसर पर इन्द्रादि समस्त देवता उत्सवपूर्वक जय-जयकार करते हुए वहाँ आये ॥ ४०-४१ ॥

देवताओं ने अंजलि बाँधकर कन्धा झुकाकर प्रेम से शिवजी को प्रणामकर मधुर वाणी से भक्तवत्सल महादेव की स्तुति की ॥ ४२ ॥

देवगण बोले — हे देवों के स्वामी ! हे प्रभो ! हे प्रणतों का दुःख हरनेवाले ! आपने इस दुन्दुभिनिर्ह्राद के वध से हम सब देवगणों की रक्षा की । हे भक्तवत्सल ! हे देवेश ! हे सर्वेश्वर ! हे प्रभो ! आपको सदा भक्तों की रक्षा करनी चाहिये तथा दुष्टों का वध करना चाहिये ॥ ४३-४४ ॥

उन देवताओं का यह वचन सुनकर परमेश्वर ने ‘ऐसा ही होगा’ — यह कहकर प्रसन्न हो उस लिंग में प्रवेश किया । तब विस्मित हुए देवता अपने-अपने धाम को चले गये तथा ब्राह्मण भी बड़े हर्ष के साथ यथेष्ट स्थान को चले गये ॥ ४५-४६ ॥

जो मनुष्य व्याघ्रेश्वर-सम्बन्धी इस चरित्र को सुनता है अथवा सुनाता है, पढ़ता है अथवा पढ़ाता है; वह सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है तथा सभी दुःखों से रहित होता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ ४७-४८ ॥ यह अनुपम शिवलीला के अमृताक्षरवाला इतिहास स्वर्गदायक, कीर्ति को बढ़ानेवाला, पुत्र-पौत्र को बढ़ानेवाला, अतिशय भक्ति को देनेवाला, धन्य, शिवजी की प्रीति को देनेवाला, कल्याणकारी, मनोहर, परम ज्ञान को देनेवाला और अनेक प्रकार के विकारों को दूर करनेवाला है ॥ ४९-५० ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में दुन्दुभिनिर्हाददैत्यवधवर्णन नामक अट्ठावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५८ ॥

 

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