शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 20
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
बीसवाँ अध्याय
भगवान् शिव का कैलास पर्वत पर गमन तथा सृष्टिखण्ड का उपसंहार

ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! हे मुने ! कुबेर के तपोबल से भगवान् शिव का जिस प्रकार पर्वतश्रेष्ठ कैलास पर शुभागमन हुआ, वह प्रसंग सुनिये ॥ १ ॥ कुबेर को वर देनेवाले विश्वेश्वर शिव जब उन्हें निधिपति होने का वर देकर अपने उत्तम स्थान को चले गये, तब उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया ॥ २ ॥

शिवमहापुराण

ब्रह्माजी के ललाट से जिनका प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो प्रलय का कार्य सँभालते हैं, वे रुद्र मेरे पूर्ण स्वरूप हैं । अतः उन्हीं के रूप में मैं गुह्यकों के निवासस्थान कैलास पर्वत पर जाऊँगा ॥ ३ ॥ रुद्र मेरे हृदय से ही प्रकट हुए हैं । वे पूर्णावतार निष्कल, निरंजन, ब्रह्म हैं और मुझसे अभिन्न हैं । हरि, ब्रह्मा आदि देव उनकी सेवा किया करते हैं ॥ ४ ॥ उन्हीं के रूप में मैं कुबेर का मित्र बनकर उसी पर्वत पर विलासपूर्वक रहूँगा और महान् तपस्या करूँगा ॥ ५ ॥

शिव की इस इच्छा का चिन्तन करके उन रुद्रदेव ने कैलास जाने के लिये उत्सुक हो उत्तम गति देनेवाले नादस्वरूप अपने डमरू को बजाया ॥ ६ ॥ उसकी उत्साहवर्धक ध्वनि तीनों लोकों में व्याप्त हो गयी । उसका विचित्र एवं गम्भीर शब्द आह्वान की गति से युक्त था अर्थात् सुननेवालों को अपने पास आने के लिये प्रेरणा दे रहा था ॥ ७ ॥ उस ध्वनि को सुनकर ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता, ऋषि, मूर्तिमान् आगम, निगम तथा सिद्ध वहाँ आ पहुँचे ॥ ८ ॥ देवता और असुर सब लोग बड़े उत्साह में भरकर वहाँ आये । भगवान् शिव के समस्त पार्षद जहाँ-कहीं भी थे, वहाँ से उस स्थान पर पहुँचे ॥ ९ ॥ सर्वलोकवन्दित महाभाग समस्त गणपाल भी उस स्थान पर जाने के लिये उद्यत हो गये । उनकी मैं संख्या बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥ १० ॥

शङ्खकर्ण नाम का गणेश्वर एक करोड़ गणों के साथ, केकराक्ष दस करोड़ और विकृत आठ करोड़ गणों के साथ जाने के लिये एकत्रित हुआ ॥ ११ ॥ विशाख चौंसठ करोड़ गणों के साथ, पारियात्रक नौ करोड़ गणों के साथ, सर्वान्तक छः करोड़ गणों के साथ और श्रीमान् दुन्दुभ आठ करोड़ गणों के साथ वहाँ चलने के लिये तैयार हो गया ॥ १२ ॥ गणश्रेष्ठ जालंक बारह करोड़ गणों के साथ, समद सात करोड़ गणोंके साथ और श्रीमान् विकृतानन भी उतने गणों के साथ जाने के लिये तैयार हुए ॥ १३ ॥ कपाली पाँच करोड़ गणों के साथ, मंगलकारी सन्दार अपने छः करोड़ गणों के साथ और कण्डुक तथा कुण्डक नाम के गणेश्वर भी एक-एक करोड़ गणों के साथ गये ॥ १४ ॥ विष्टम्भ और चन्द्रतापन नामक गणाध्यक्ष भी अपने-अपने आठ-आठ करोड़ गणों के साथ कैलास चलने के लिये वहाँ पर आ गये ॥ १५ ॥ एक हजार करोड़ गणों से घिरा हुआ महाकेश नामक गणपति भी वहाँ आ पहुँचा ॥ १६ ॥ कुण्डी बारह करोड़ गणों के साथ और वाह, श्रीमान् पर्वतक, काल, कालक एवं महाकाल नाम के गणेश्वर सौ करोड़ गणों के साथ वहाँ पहुँचे ॥ १७ ॥ अग्निक सौ करोड़, अभिमुख एक करोड़, आदित्यमूर्धा तथा धनावह भी एक-एक करोड़ गणों के साथ वहाँ आये ॥ १८ ॥

सन्नाह तथा कुमुद सौ-सौ करोड़ गणों के साथ और अमोघ, कोकिल एवं सुमन्त्रक एक-एक करोड़ गणों के साथ आ गये ॥ १९ ॥ काकपाद नाम का एक दूसरा गण साठ करोड़ और सन्तानक नाम का गणेश्वर भी साठ करोड़ गणों को साथ लेकर चलने के लिये वहाँ आया । महाबल, मधुपिंग तथा पिंगल नामक गणेश्वर नौ-नौ करोड़ गणों के सहित वहाँ उपस्थित हुए ॥ २० ॥ नील एवं पूर्णभद्र नामक गणेश्वर भी नब्बे-नब्बे करोड़ गणों के साथ वहाँ आये । महाशक्तिशाली चतुर्वक्त्र नाम का गणेश्वर सात करोड़ गणों से घिरा हुआ कैलास जाने के लिये वहाँ आ पहुँचा ॥ २१ ॥ एक सौ बीस हजार करोड़ गणों से आवृत होकर सर्वेश नाम का गणेश्वर भी कैलास चलने के लिये वहाँ आया ॥ २२ ॥ काष्ठागूढ, सुकेश तथा वृषभ नामक गणपति चौंसठ करोड़, चैत्र और स्वामी नकुलीश स्वयं सात करोड़ गणों के साथ कैलासगमन के लिये आये ॥ २३ ॥ लोकान्तक, दीप्तात्मा, दैत्यान्तक, प्रभु, देव, भुंगी, श्रीमान् देवदेवप्रिय, रिटि, अशनि, भानुक तथा सनातन नामके गणपति चौंसठ-चौंसठ करोड़ गणों के साथ वहाँपर उपस्थित हुए। नन्दीश्वर नामके महाबलवान् गणाधीश सौ करोड़ गणोंके सहित कैलास चलनेके लिये वहाँ आ पहुँचे ॥ २४-२५ ॥

इन गणाधिपों के अतिरिक्त अन्य बहुत-से असंख्य शक्तिशाली गणेश्वर वहाँ कैलास चलने के लिये आये । वे सब हजार भुजाओंवाले थे तथा जटा, मुकुट धारण किये हुए थे ॥ २६ ॥ सभी गण चन्द्रमा के आभूषण से शोभायमान थे, सभी के कण्ठ नीलवर्ण के थे और वे तीन-तीन नेत्रों से युक्त थे । सभी हार, कुण्डल, केयूर तथा मुकुट आदि आभूषणों से अलंकृत थे ॥ २७ ॥ ब्रह्मा, इन्द्र और विष्णु के समान अणिमादि अष्ट महासिद्धियों से युक्त, करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान सभी गणेश्वर वहाँ पर आ गये ॥ २८ ॥ इन गणाध्यक्षों के अतिरिक्त निर्मल प्रभामण्डल से युक्त, महान् आत्मावाले तथा भगवान् शिव के दर्शन की लालसा से परिपूर्ण अन्य अनेक गणाधिप अत्यन्त प्रसन्नता के साथ वहाँ पर जा पहुँचे ॥ २९ ॥ विष्णु आदि प्रमुख समस्त देवता वहाँ जाकर भगवान् सदाशिव को देखकर हाथ जोड़कर नतमस्तक होकर उनकी उत्तम स्तुति करने लगे ॥ ३० ॥ इस प्रकार विष्णु आदि देवताओं के साथ परमेश्वर भगवान् महेश महात्मा कुबेर के प्रेम से वशीभूत हो कैलास को चले गये ॥ ३१ ॥

कुबेर ने भी सपरिवार भक्तिपूर्वक नाना प्रकार के उपहारों से वहाँ आये हुए भगवान् शम्भु की सादर पूजा की ॥ ३२ ॥ तत्पश्चात् उसने शिव को सन्तुष्ट करने के लिये उनका अनुगमन करनेवाले विष्णु आदि देवताओं और अन्यान्य गणेश्वरों का भी विधिवत् पूजन किया ॥ ३३ ॥

[इसके बाद उसकी सेवा को देखकर] अति प्रसन्नचित्त भगवान् शम्भु कुबेर का आलिंगनकर और उसका सिर सूँघकर अलकापुरी के अति निकट ही अपने समस्त अनुगामियों के साथ ठहर गये ॥ ३४ ॥ तदनन्तर भगवान् शिव ने विश्वकर्मा को अपने तथा दूसरे देवताओं के भक्तों के लिये उस पर्वत पर निवासहेतु यथोचित निर्माणकार्य करने की आज्ञा दी ॥ ३५ ॥ हे मुने ! विश्वकर्मा ने शिव की आज्ञा से वहाँ जाकर यथाशीघ्र ही नाना प्रकार की रचना की ॥ ३६ ॥

उस समय विष्णु की प्रार्थना से शिव प्रसन्न हो उठे और कुबेर पर अनुग्रह करके वे कैलासपर्वत पर चले गये । शुभ मुहूर्त में अपने निवासस्थान में प्रवेशकर भक्तवत्सल उन परमेश्वर ने अपने प्रेम से सबको सनाथ कर दिया । सभी प्रमुदित विष्णु आदि देवता, मुनिगण और अन्य सिद्धजनों ने मिलकर प्रेमपूर्वक सदाशिव का अभिषेक किया ॥ ३७-३९ ॥

हाथों में नाना प्रकार के उपहार लेकर सबने क्रमशः उनका पूजन किया और बहुत महोत्सव के साथ [सामने खड़े होकर] उनकी आरती उतारी ॥ ४० ॥ हे मुने ! उस समय [आकाशसे] मंगलसूचक पुष्पवृष्टि होने लगी और अत्यन्त प्रसन्न होकर गान करती हुई अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ४१ ॥ सब ओर जय-जयकार और नमस्कार के सुसंस्कृत शब्द गूंजने लगे । उस समय चारों ओर एक महान् उत्साह व्याप्त था, जो सबके सुख को बढ़ा रहा था ॥ ४२ ॥ उस समय सिंहासन पर बैठकर भगवान् सदाशिव अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे और विष्णु आदि सभी लोग बार-बार उनकी यथोचित सेवा कर रहे थे ॥ ४३ ॥ सभी देवताओं ने पृथक्-पृथक् रूप में अर्थभरी वाणी और अभीष्ट वस्तुओं से लोकमंगलकारी भगवान् शंकर का स्तवन-वन्दन किया ॥ ४४ ॥ प्रसन्नचित्त सर्वेश्वर स्वामी सदाशिव ने उनकी स्तुति को सुनकर प्रेमपूर्वक उन्हें मनोवांछित वर दिये ॥ ४५ ॥

[हे मुने!] अभीष्ट कामनाओं से परिपूर्ण, प्रसन्नचित्त वे सभी [देव, मुनि और सिद्धजन] भगवान् शिव की आज्ञा से अपने-अपने धाम को चले गये । मैं भी विष्णु के साथ प्रसन्नतापूर्वक चलने के लिये उद्यत हुआ ॥ ४६ ॥ तब श्रीविष्णु और मुझको आसन पर बैठाकर परमेश्वर शम्भु बड़े प्रेम से बहुत समझाकर अनुग्रह करके कहने लगे ४७ ॥

शिवजी बोले — हे हरे ! हे विधे ! हे तात ! सदैव तीनों लोकों का सृजन और संरक्षण करनेवाले हे सुरश्रेष्ठ ! आप दोनों मुझे अत्यन्त प्रिय हैं ॥ ४८ ॥ अब आप दोनों भी निर्भय होकर मेरी आज्ञा से अपने-अपने स्थान को जायँ । मैं सदा आप दोनों को सुख प्रदान करनेवाला हूँ और विशेष रूप से आप दोनों के सुख-दुःख को देखता ही रहता हूँ ॥ ४९ ॥

भगवान् सदाशिव के वचन को सुनकर मैं और विष्णु दोनों प्रेमपूर्वक प्रणाम करके प्रसन्नचित्त होकर उनकी आज्ञा से अपने-अपने धाम को लौट आये ॥ ५० ॥

उसी समय प्रसन्नचित्त भगवान् शंकर निधिपति कुबेर का भी हाथ पकड़कर उन्हें अपने पास बैठाकर यह शुभ वाक्य कहने लगे ॥ ५१ ॥

हे मित्र ! तुम्हारे प्रेम के वशीभूत होकर मैं तुम्हारा मित्र बन गया हूँ । हे पुण्यात्मन् ! भयरहित होकर तुम अपने स्थान को जाओ; मैं सदा तुम्हारा सहायक हूँ ॥ ५२ ॥

भगवान् शम्भु के इस वचन को सुनकर प्रसन्नचित्त कुबेर उनकी आज्ञा से प्रसन्नतापूर्वक अपने धाम को चले गये ॥ ५३ ॥ योगपरायण, सब प्रकार से स्वच्छन्द तथा सदा ध्यानमग्न रहनेवाले भगवान् शिव अपने गणों के साथ उस पर्वतश्रेष्ठ कैलास पर निवास करने लगे ॥ ५४ ॥ कभी वे अपने ही आत्मस्वरूप ब्रह्म का चिन्तन करते थे । कभी योग में तल्लीन रहते थे, कभी स्वच्छन्द मन से प्रेमपूर्वक अपने गणों को इतिहास सुनाते थे और कभी विहार करने में चतुर भगवान् महेश्वर अपने गणों के साथ कैलास पर्वत की टेढ़ी-मेढ़ी, ऊबड़-खाबड़ गुफाओं तथा कन्दराओं में और अनेक सुरम्य स्थानों पर प्रसन्नचित्त होकर विचरण करते थे ॥ ५५-५६ ॥

इस प्रकार रुद्र-स्वरूप परमेश्वर भगवान् शंकर जो नाना प्रकार के योगियों में भी सर्वश्रेष्ठ हैं, उन्होंने अपने उस पर्वत पर अनेक लीलाएँ कीं ॥ ५७ ॥ इस प्रकार बिना पत्नी के रहते हुए परमेश्वर सदाशिव ने अपना कुछ समय व्यतीत करके बाद में दक्षपत्नी से उत्पन्न सती को पत्नी के रूप में प्राप्त किया ॥ ५८ ॥ तदनन्तर हे देवर्षे ! वे महेश्वर उन दक्षपुत्री सती के साथ विहार करने लगे । इस प्रकार [सती के साथ पतिरूप में] लोकाचारपरायण रहते हुए वे बहुत ही सुखी थे ॥ ५९ ॥ हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने आपको रुद्र के अवतार का वर्णन कर दिया है । मैंने उनके कैलास आगमन और कुबेर के साथ उनकी मित्रता का प्रसंग भी कह दिया है । कैलास के अन्तर्गत होनेवाली उनकी ज्ञानवर्धिनी लीला का भी वर्णन कर दिया है, जो इस लोक और परलोक में सदैव सभी मनोवांछित फलों को प्रदान करनेवाली है ॥ ६०-६१ ॥

जो एकाग्रचित्त होकर इस कथा को सम्यक् रूप से पढ़ता है अथवा सुनता है, वह इस लोक में सुख भोगकर परलोक में मुक्ति प्राप्त करता है ॥ ६२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान के कैलासोपाख्यान में शिवकैलासगमन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २०॥
॥ द्वितीय रुद्रसंहिता का प्रथम सृष्टिखण्ड पूर्ण हुआ ॥

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.