शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 01
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पहला अध्याय
सती चरित्र वर्णन, दक्षयज्ञविध्वंस का संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सती का पार्वतीरूप में हिमालय के यहाँ जन्म लेना

नारदजी बोले — हे विधे ! भगवान् शंकर की कृपा से आप सब कुछ जानते हैं । आपने शिव और पार्वती की बहुत ही अद्भुत तथा मंगलकारी कथाएँ कही हैं ॥ १ ॥ आपके मुखारविन्द से निकली हुई शम्भु की श्रेष्ठ कथा को सुनकर मैं अतृप्त ही हूँ, हे प्रभो ! मैं उसे पुनः सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥ हे विधे ! पहले आपने शंकर के पूर्णांश महेशान, कैलासवासी तथा जितेन्द्रिय जिन रुद्र का वर्णन किया, वे योगी जितेन्द्रिय विष्णु आदि सभी देवताओं से सेवा के योग्य, संतों की परम गति, निर्विकार महाप्रभु निर्द्वन्द्व होकर सदैव क्रीड़ा करते रहते थे ॥ ३-४ ॥ विष्णु की प्रार्थना से प्रसन्न होकर वे मंगलमयी परमतपस्विनी तथा श्रेष्ठ स्त्री से विवाह करके गृहस्थ बन गये ॥ ५ ॥ सर्वप्रथम वे [शिवा] दक्षपुत्री हुईं और तत्पश्चात् पर्वतराज हिमालय की कन्या पार्वती के रूप में उन्होंने जन्म लिया । एक ही शरीर से वे दोनों की कन्या किस प्रकार से मानी गयीं ? ॥ ६ ॥ वे सती पुनः पार्वती होकर शिव को कैसे प्राप्त हुईं ? हे ब्रह्मन् ! यह सब तथा अन्य बातों को भी आप कृपा करके बतायें ॥ ७ ॥

शिवमहापुराण

सूतजी बोले — शिवभक्त देवर्षि नारद के इस वचन को सुनकर मन से [अत्यन्त] प्रसन्न होकर ब्रह्माजी कहने लगे — ॥ ८ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे तात ! हे मुनिश्रेष्ठ ! सुनिये, अब मैं शिव की मंगलकारिणी कथा कह रहा हूँ, जिसको सुनकर जन्म सफल हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥ हे तात ! पुराने समय की बात है — अपनी सन्ध्या नामक पुत्री को देखकर पुत्रों सहित मैं कामदेव के बाणों से पीड़ित होकर विकारग्रस्त हो गया ॥ १० ॥ हे तात ! उस समय धर्म के द्वारा स्मरण किये गये महायोगी और महाप्रभु रुद्र पुत्रोंसहित मुझे धिक्कारकर अपने घर चले गये ॥ ११ ॥

जिनकी माया से मोहित हुआ मैं वेदवक्ता होने पर भी मूढ़ बुद्धिवाला हो गया, उन्हीं परमेश्वर शंकर के साथ मैं अकरणीय कार्य करने लगा ॥ १२ ॥ शिव की माया से मोहित हुआ मैं मूढ़ अपने पुत्रों के सहित ईर्ष्यावश उन्हीं को मोहित करने के लिये अनेक उपाय करने लगा ॥ १३ ॥ हे मुनीश्वर ! उन परमेश्वर शिव के ऊपर किये गये मेरे तथा मेरे उन पुत्रों के सभी उपाय निष्फल हो गये ॥ १४ ॥ तब अपने पुत्रोंसहित उपायों को करने में विफल हुए मैंने लक्ष्मीपति विष्णु का स्मरण किया । शिवभक्तिपरायण तथा श्रेष्ठ बुद्धिवाले भगवान् विष्णु ने आकर मुझे समझाया ॥ १५ ॥


शिवतत्त्व को भली-भाँति जाननेवाले भगवान् रमापति के द्वारा समझाये जाने पर भी विमोहित मैं अपनी ईर्ष्या और हठ को नहीं छोड़ सका ॥ १६ ॥ तब मैंने शक्ति की सेवाकर उन्हें प्रसन्न किया । उनकी ही कृपा से शिव को मोहित करने के लिये अपने पुत्र दक्ष से वीरण की कन्या असिक्नी के गर्भ से कन्या को उत्पन्न कराया ॥ १७ ॥ अपने भक्तों का हित करनेवाली वही उमा दक्षपुत्री नाम से प्रसिद्ध होकर दुःसह तप करके अपनी दृढभक्ति से रुद्र की पत्नी हो गयीं ॥ १८ ॥

विकाररहित बुद्धिवाले वे प्रभु रुद्र अपने विवाहकाल में मुझे मोहितकर उमा के साथ गृहस्थ होकर उत्तम लीला करने लगे ॥ १९ ॥ उमा के साथ विवाहकर सन्तान उत्पन्न करने की इच्छा से अपने कैलास पर्वत पर आकर स्वेच्छा से शरीर धारण करनेवाले तथा सदा स्वतन्त्र रहनेवाले सदाशिव अत्यन्त विमोहित होकर उनके साथ रमण करने लगे ॥ २० ॥ हे मुने ! उनके साथ विहार करते हुए निर्विकार शिव का वह सुखकारी बहुत-सा समय बीत गया । तदनन्तर किसी निजी इच्छा के कारण रुद्र की दक्ष से स्पर्धा हो गयी । उस समय शिव की माया से दक्ष मोह से ग्रस्त, महामूढ़ और अहंकार से युक्त हो गया ॥ २१-२२ ॥उनके ही प्रभाव से महान् अहंकारी, मूढ़बुद्धि और अत्यन्त विमोहित हुआ वह दक्ष उन्हीं महाशान्त तथा निर्विकार भगवान् हर की निन्दा करने लगा ॥ २३ ॥

तदनन्तर गर्व में भरे हुए सर्वाधिप दक्ष ने मुझे, विष्णु को तथा सभी देवताओं को बुलाकर, किंतु शिवजी को बिना बुलाये ही स्वयं यज्ञ कर डाला ॥ २४ ॥ [किसी कारणवश] रुद्र पर असन्तुष्ट, क्रोध से भरे हुए उस दक्ष प्रजापति ने उन्हें उस यज्ञ में नहीं बुलाया और दुर्भाग्यवश न तो उसने अपनी पुत्री को ही उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये आहूत किया ॥ २५ ॥ जब माया से मोहित चित्तवाले दक्ष प्रजापति ने शिवा को [यज्ञमें] आमन्त्रित नहीं किया, तो ज्ञानस्वरूपा उन महासाध्वी ने अपनी लीला प्रारम्भ की । वे शिवजी की आज्ञा प्राप्तकर गर्वयुक्त दक्ष के द्वारा आमन्त्रित न होनेपर भी अपने पिता दक्ष के घर पहुँच गयीं ॥ २६-२७ ॥ उन देवी ने यज्ञ में रुद्र के भाग को न देखकर और अपने पिता से अपमानित होकर वहाँ [उपस्थित] सभी की निन्दा करके [योगाग्निसे] अपने शरीर को त्याग दिया ॥ २८ ॥

यह सुनकर देवदेवेश्वर रुद्र ने दुःसह क्रोध करके अपनी महान् जटा उखाड़कर वीरभद्र को उत्पन्न किया ॥ २९ ॥ गणोंसहित उसे उत्पन्न करके मैं क्या करूँ’ — ऐसा कहते हुए उस वीरभद्र को शिवजी ने आज्ञा दी कि [हे वीरभद्र ! दक्ष के यज्ञ में आये हुए] सभी का अपमान करते हुए तुम यज्ञ का विध्वंस करो ॥ ३० ॥ शिवजी की इस आज्ञा को पाकर महाबलवान् तथा पराक्रमी वह गणेश्वर वीरभद्र अपनी बहुत-सी सेना लेकर [यज्ञविध्वंस के लिये] वहाँ शीघ्र ही पहुँचा ॥ ३१ ॥ उसकी आज्ञा से उन गणों ने वहाँ महान् उपद्रव प्रारम्भ किया । उस वीरभद्र ने सबको दण्डित किया, [दण्ड पाने से] कोई भी न बचा ॥ ३२ ॥

वीरभद्र ने देवताओं के साथ विष्णु को भी जीतकर दक्ष का सिर काट लिया और उस सिर को अग्नि में हवन कर दिया । इस प्रकार महान् उपद्रव करते हुए उसने यज्ञ को विनष्ट कर दिया । तत्पश्चात् वह कैलास पर गया और उसने शिव को प्रणाम किया ॥ ३३-३४ ॥ इस प्रकार यज्ञ का विध्वंस हो गया, देवताओं के देखते-देखते रुद्र के अनुचर वीरभद्र आदि ने यज्ञ को विनष्ट कर दिया ॥ ३५ ॥ हे मुने ! श्रुतियों तथा स्मृतियों से प्रतिपादित यह नीति जान लेनी चाहिये कि श्रेष्ठ प्रभु रुद्र के रुष्ट हो जाने पर लोक में सुख कैसे हो सकता है ! ॥ ३६ ॥

[उसके बाद सभी देवताओं ने यज्ञ की पूर्णता के लिये भगवान् रुद्र की स्तुति की] उस उत्तम स्तुति को सुनकर रुद्र प्रसन्न हो गये । उन दीनवत्सल [भगवान् रुद्र]-ने सबकी प्रार्थना को सफल बना दिया ॥ ३७ ॥ अनेक प्रकार की लीला करनेवाले महात्मा शंकर महेश ने पूर्ववत् कृपालुता की । उन्होंने दक्षप्रजापति को जीवित कर दिया और सभी लोगों का सत्कार किया, तदुपरान्त कृपालु शंकर ने [दक्ष से] पुनः यज्ञ करवाया ॥ ३८-३९ ॥ हे मुने ! उस यज्ञ में विष्णु आदि सभी देवताओं ने बड़े प्रसन्नमन से भक्ति के साथ रुद्र का विशेष रूप से पूजन किया ॥ ४० ॥

सती के शरीर से उत्पन्न तथा सभी लोगों को सुख देनेवाली वह ज्वाला पर्वत पर गिरी, वह लोगों के द्वारा पूजित होने पर सुख प्रदान करती है ॥ ४१ ॥ ज्वालामुखी के नाम से प्रसिद्ध वे परमा देवी कामनाओं को पूर्ण करनेवाली तथा दर्शन से समस्त पापों को विनष्ट करनेवाली हैं । सम्पूर्ण कामनाओं के फल की प्राप्तिहेतु लोग इस समय अनेकों विधि-विधानों से महोत्सवपूर्वक उनकी पूजा करते हैं ॥ ४२-४३ ॥ तदनन्तर वे सती देवी हिमालय की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुईं । तब उनका पार्वती-यह नाम विख्यात हुआ ॥ ४४ ॥ उन देवी ने पुनः कठिन तपस्या के द्वारा उन्हीं परमेश्वर शिव की आराधना करके उन्हें पतिरूप में प्राप्त किया ॥ ४५ ॥

हे मुनीश्वर ! जो आपने मुझसे पूछा था, वह सब मैंने कह दिया, जिसे सुनकर मनुष्य सभी पापों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है ॥ ४६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सतीचरित्रवर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥

 

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.