शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 06
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
छठा अध्याय
सन्ध्या द्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिव का उसे दर्शन देना, सन्ध्या द्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्या को अनेक वरों की प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथि के यज्ञ में जाने का आदेश प्राप्त होना

ब्रह्माजी बोले — हे पुत्रवर ! हे महाप्राज्ञ ! अब सन्ध्या के द्वारा किये गये महान् तप को सुनिये । जिसके सुनने से पापसमूह उसी क्षण निश्चय ही नष्ट हो जाता है ॥ १ ॥ तपस्या का उपदेश कर वसिष्ठजी के अपने घर चले जाने पर सन्ध्या भी तपस्या की विधि को जानकर अत्यन्त हर्षित हो गयी ॥ २ ॥ वह बृहल्लोहितसर के सन्निकट प्रसन्नचित्त होकर अनुकूल वेष धारण करके तपस्या करने लगी ॥ ३ ॥ वसिष्ठजी ने तपस्या के साधनभूत जिस मन्त्र को बताया था, उस मन्त्र से वह शंकरजी का पूजन करने लगी ॥ ४ ॥ इस प्रकार सदाशिव में चित्त लगाकर एकाग्र मन से घोर तपस्या करती हुई उस सन्ध्या का एक चतुर्युग बीत गया ॥ ५ ॥

शिवमहापुराण

उसके पश्चात् उस तपस्या से सन्तुष्ट हुए शिवजी उसके ऊपर प्रसन्न हो गये और बाहर-भीतर तथा आकाश में उसे अपना विग्रह दिखाकर, वह [शिवजी के] जिस रू पका ध्यान करती थी, उसी रूप से उसके समक्ष प्रकट हो गये ॥ ६-७ ॥ सन्ध्या अपने मन में चिन्तित, प्रसन्नमुख तथा शान्तस्वरूप भगवान् शिव को सामने देखकर बहुत प्रसन्न हुई ॥ ८ ॥

‘मैं शिवजी से क्या कहूँ तथा किस प्रकार इनकी स्तुति करूँ’ – इस प्रकार चिन्तित होकर सन्ध्या ने भयपूर्वक अपने नेत्रों को बन्द कर लिया । तब नेत्र बन्द की हुई उस सन्ध्या के हृदय में प्रविष्ट होकर शिवजी ने उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य वाणी और दिव्य चक्षु प्रदान किये ॥ ९-१० ॥ इस प्रकार उसने दिव्य ज्ञान, दिव्य चक्षु, दिव्य वाणी प्राप्त की और जगत्पति दुर्गेश को प्रत्यक्ष खड़ा देखकर वह उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगी — ॥ ११ ॥

॥ संध्योवाच ॥
निराकारं ज्ञानगम्यं परं यन्नैव स्थूलं नापि सूक्ष्मं न चोच्चम् ।
अंतश्चिंत्यं योगिभिस्तस्य रूपं तस्मै तुभ्यं लोककर्त्रे नमोस्तु ॥ १२ ॥
सर्वं शांतं निर्मलं निर्विकारं ज्ञानागम्यं स्वप्रकाशेऽविकारम् ।
खाध्वप्रख्यं ध्वांतमार्गात्परस्तद्रूपं यस्य त्वां नमामि प्रसन्नम् ॥ १३ ॥
एकं शुद्धं दीप्यमानं तथाजं चिदानंदं सहजं चाविकारि ।
नित्यानंदं सत्यभूतिप्रसन्नं यस्य श्रीदं रूपमस्मै नमस्ते ॥ १४ ॥
विद्याकारोद्भावनीयं प्रभिन्नं सत्त्वच्छंदं ध्येयमात्मस्वरूपम् ।
सारं पारं पावनानां पवित्रं तस्मै रूपं यस्य चैवं नमस्ते ॥ १५ ॥
यत्त्वाकारं शुद्धरूपं मनोज्ञं रत्नाकल्पं स्वच्छकर्पूरगौरम् ।
इष्टाभीती शूलमुंडे दधानं हस्तैर्नमो योगयुक्ताय तुभ्यम् ॥ १६ ॥
गगनं भूर्दिशश्चैव सलिलं ज्योतिरेव च ।
पुनः कालश्च रूपाणि यस्य तुभ्यं नमोस्तु ते ॥ १७ ॥
प्रधानपुरुषौ यस्य कायत्वेन विनिर्गतौ ।
तस्मादव्यक्तरूपाय शंकराय नमोनमः ॥ १८ ॥
यो ब्रह्मा कुरुते सृष्टिं यो विष्णुः कुरुते स्थितिम् ।
संहरिष्यति यो रुद्रस्तस्मै तुभ्यं नमोनमः ॥ १९ ॥
नमोनमः कारणकारणाय दिव्यामृतज्ञानविभूतिदाय ।
समस्तलोकांतरभूतिदाय प्रकाशरूपाय परात्पराय ॥ २० ॥
यस्याऽपरं नो जगदुच्यते पदात् क्षितिर्दिशस्सूर्य इंदुर्मनौजः ।
बर्हिर्मुखा नाभितश्चान्तरिक्षं तस्मै तुभ्यं शंभवे मे नमोस्तु ॥ २१ ॥
त्वं परः परमात्मा च त्वं विद्या विविधा हरः ।
सद्ब्रह्म च परं ब्रह्म विचारणपरायणः ॥ २२ ॥
यस्य नादिर्न मध्यं च नांतमस्ति जगद्यतः ।
कथं स्तोष्यामि तं देवं वाङ्मनोगोचरं हरम् ॥ २३ ॥
यस्य ब्रह्मादयो देव मुनयश्च तपोधनाः ।
न विप्रण्वंति रूपाणि वर्णनीयः कथं स मे ॥ २४ ॥
स्त्रिया मया ते किं ज्ञेया निर्गुणस्य गुणाः प्रभो ।
नैव जानंति यद्रूपं सेन्द्रा अपि सुरासुराः ॥ २५ ॥
नमस्तुभ्यं महेशान नमस्तुभ्यं तमोमय ।
प्रसीद शंभो देवेश भूयोभूयो नमोस्तु ते ॥ २६ ॥

सन्ध्या बोली — जिनका रूप निराकार, ज्ञानगम्य तथा पर है; जो न स्थूल, न सूक्ष्म, न उच्च ही है तथा जो योगियों के द्वारा अन्तःकरण से चिन्त्य है, ऐसे रूपवाले लोककर्ता आपको नमस्कार है ॥ १२ ॥ जिनका रूप सर्वस्वरूप, शान्त, निर्मल, निर्विकार, ज्ञान से परे, अपने प्रकाश में स्थित, विकाररहित, आकाशमार्गस्वरूप एवं अन्धकारमार्ग से परे तथा प्रसन्न रहनेवाला है, ऐसे आपको नमस्कार है । जिनका रूप एक (अद्वितीय), शुद्ध, देदीप्यमान, मायारहित, चिदानन्द, सहज, विकाररहित, नित्यानन्दस्वरूप, सत्य और विभूति से युक्त, प्रसन्न रहनेवाला तथा समस्त श्री को प्रदान करनेवाला है. उन आपको नमस्कार है ॥ १३-१४ ॥

जिनका रूप महाविद्या के द्वारा ध्यान करने योग्य, सबसे सर्वथा भिन्न, परम सात्त्विक, ध्येयस्वरूप, आत्मस्वरूप, सारस्वरूप, संसारसागर से पार करनेवाला है और पवित्र को भी पवित्र करनेवाला है, उन आपको नमस्कार है ॥ १५ ॥ जिनका आकार शुद्धरूप, मनोज्ञ, रत्न के समान, स्वच्छ, कर्पूर के समान गौरवर्ण और हाथों में वरअभयमुद्रा, शूल-मुण्ड को धारण करनेवाला है, उन आप योगयुक्त [सदाशिव]-को नमस्कार है ॥ १६ ॥ आकाश, पृथिवी, दिशाएँ, जल, ज्योति और काल जिनके स्वरूप हैं, ऐसे आपको नमस्कार है ॥ १७ ॥

जिनके शरीर से प्रधान एवं पुरुष की उत्पत्ति हुई है, उन अव्यक्तस्वरूप आप शंकर को बार-बार नमस्कार है ॥ १८ ॥ जो ब्रह्मारूप होकर [इस जगत् की] सृष्टि करते हैं, विष्णुरूप होकर पालन करते हैं तथा रुद्ररूप होकर संहार करते हैं, उन आपको बार-बार नमस्कार है ॥ १९ ॥ कारणों के कारण, दिव्य अमृतस्वरूप ज्ञानसम्पदा देनेवाले, समस्त लोकों को ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, प्रकाशस्वरूप तथा परात्पर [शंकर]-को बार-बार नमस्कार है ॥ २० ॥

जिनके अतिरिक्त यह जगत् और कुछ नहीं है । जिनके पैर से पृथिवी, दिशाएँ, सूर्य, चन्द्रमा, कामदेव तथा बहिर्मुख (अन्य देवता) और नाभि से अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ है, उन आप शम्भु को मेरा नमस्कार है ॥ २१ ॥ हे हर ! आप सर्वश्रेष्ठ तथा परमात्मा हैं, आप विविध विद्या हैं, सब्रह्म, परब्रह्म तथा ज्ञानपरायण हैं ॥ २२ ॥

जिनका न आदि है, न मध्य है तथा न अन्त है । और जिनसे यह समस्त संसार उत्पन्न हुआ है, वाणी, तथा मन से अगोचर उन सदाशिव की स्तुति किस प्रकार करूं ? ॥ २३ ॥ ब्रह्मा आदि देवगण तथा तपोधन महर्षि भी जिनके रूपों का वर्णन नहीं कर पाते हैं, उनका वर्णन मैं किस प्रकार कर सकती हूँ ? ॥ २४ ॥

हे प्रभो ! इन्द्रसहित समस्त देवगण तथा सभी असुर भी जब आपके रूप को नहीं जानते, तो आप-जैसे निर्गुण के गुणों को मेरे-जैसी स्त्री किस प्रकार जान सकती है ॥ २५ ॥ हे महेशान ! आपको नमस्कार है । हे तपोमय ! आपको नमस्कार है । हे शम्भो ! हे देवेश ! आपको बारबार नमस्कार है, आप [मेरे ऊपर] प्रसन्न होइये ॥ २६ ॥

ब्रह्माजी बोले — सन्ध्या के द्वारा स्तुत भक्तवत्सल परमेश्वर सदाशिव उसके वचन को सुनकर परम प्रसन्न हो गये ॥ २७ ॥ शिव वल्कल तथा कृष्णमृगचर्मयुक्त उसके शरीर को, जटा से आच्छन्न एवं पवित्री धारण किये हुए उसके सिर को तथा तुषारपात से मुरझाये हुए कमल के समान उसके मुख को देखकर दयामय होकर उससे इस प्रकार कहने लगे – ॥ २८-२९ ॥

महेश्वर बोले — हे भद्रे ! तुम्हारी इस उत्कृष्ट तपस्या से तथा तुम्हारी इस स्तुति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ । हे शुभप्राज्ञे ! अब तुम वर माँगो ॥ ३० ॥ जो भी तुम्हारा अभीष्ट हो तथा जिससे तुम्हारा कार्य पूर्ण हो, वह सब मैं करूँगा । हे भद्रे ! तुम्हारी इस तपस्या से मैं परम प्रसन्न हो गया हूँ ॥ ३१ ॥

ब्रह्माजी बोले — महेश्वर का वचन सुनकर सन्ध्या बड़ी प्रसन्न हुई और उन्हें बार-बार प्रणामकर इस प्रकार कहने लगी — ॥ ३२ ॥

सन्ध्या बोली — हे महेश्वर ! यदि आप प्रसन्नतापूर्वक वर देना चाहते हैं, यदि मैं आपसे वर प्राप्त करने योग्य हूँ तथा यदि मैं उस पाप से सर्वथा विशुद्ध हो गयी हूँ और हे देव ! यदि आप इस समय मेरे तप से प्रसन्न हैं, तो पहले मैं यह वर माँगती हूँ, उसे दीजिये । हे देवाधिदेव ! इस आकाश तथा पृथिवी में उत्पन्न होते ही कोई भी प्राणी सद्यः कामयुक्त न हो । हे प्रभो ! मैं अपने आचरण से तीनों लोकों में इस प्रकार प्रसिद्ध होऊँ, जैसी और कोई दूसरी स्त्री न हो, एक और वर माँगती हूँ । मेरे द्वारा उत्पन्न की गयी कोई भी सन्तति सकाम होकर पतित न हो और हे नाथ ! जो मेरा पति हो, वह भी मेरा अत्यन्त सुहृद् बना रहे । [मेरे पति के अतिरिक्त] जो कोई भी पुरुष मुझे सकाम दृष्टि से देखे, उसका पौरुष नष्ट हो जाय और वह नपुंसक हो जाय ॥ ३३-३८ ॥
ब्रह्माजी बोले — निष्पाप सन्ध्या के इस प्रकार के वचनों को सुनकर तथा उससे प्रेरित होकर भक्तवत्सल भूतभावन शंकर प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे – ॥ ३९ ॥

महेश्वर बोले — हे देवि ! हे सन्ध्ये ! मेरी बात सुनो । तुम्हारा पाप नष्ट हो गया, अब मेरा क्रोध तुम्हारे ऊपर नहीं है और तुम तप करने से शुद्ध हो चुकी हो । हे भद्रे ! हे सन्ध्ये ! तुमने जो-जो वरदान माँगा है, तुम्हारी श्रेष्ठ तपस्या से परम प्रसन्न होकर मैंने वह सब तुम्हें प्रदान कर दिया ॥ ४०-४१ ॥ अब प्राणियों का प्रथम शैशव (बाल)-भाव, दूसरा कौमार भाव, तीसरा यौवन भाव तथा चौथा वार्धक्य भाव होगा ॥ ४२ ॥ शरीरधारी तीसरी अवस्था आने पर सकाम होंगे और कोई-कोई प्राणी दूसरी के अन्त तक सकाम होंगे ॥ ४३ ॥ मैंने तुम्हारी तपस्या से संसार में यह मर्यादा स्थापित कर दी कि शरीरधारी उत्पन्न होते ही सकाम नहीं होंगे ॥ ४४ ॥

तुम इस लोक में ऐसा सतीभाव प्राप्त करोगी, जैसा तीनों लोकों में किसी अन्य स्त्री का नहीं होगा ॥ ४५ ॥ तुम्हारे पति के अतिरिक्त जो तुमको सकाम दृष्टि से देखेगा, वह तत्काल नपुंसक होकर दुर्बल हो जायगा ॥ ४६ ॥ तुम्हारा पति महान् भाग्यशाली, तपस्वी तथा रूपवान् होगा । वह तुम्हारे साथ सात कल्पों तक जीवित रहेगा ॥ ४७ ॥ इस प्रकार तुमने जो-जो वर मुझसे माँगा, उन सभी वरों को मैंने प्रदान किया । अब मैं तुम्हारे जन्मान्तर की कुछ बातें कहूँगा ॥ ४८ ॥

तुम अग्नि में अपने शरीरत्याग करने की प्रतिज्ञा पहले ही कर चुकी हो, अतः उसका उपाय मैं तुमको बता रहा हूँ, उसे निश्चित रूप से करो ॥ ४९ ॥ वह उपाय यही है कि तुम महर्षि मेधातिथि के बारह वर्ष तक चलनेवाले यज्ञ में प्रचण्डरूप से जलती हुई अग्नि में शीघ्रता से प्रवेश करो ॥ ५० ॥ इस समय मेधातिथि इसी पर्वत की तलहटी में चन्द्रभागा नदी के तट पर तपस्वियों के आश्रम में महान् यज्ञ कर रहे हैं ॥ ५१ ॥ वहाँ तुम अपनी इच्छा से जाकर मेरे प्रसाद से मुनियों से अलक्षित रहती हुई अग्नि में प्रवेश कर जाओ, फिर तुम यज्ञाग्नि से प्रकट होकर मेधातिथि की पुत्री बनोगी ॥ ५२ ॥ तुम्हारे मन में जो कोई भी श्रेष्ठ पति के रूप में वांछनीय हो, उसे अपने अन्तःकरण में रखकर अग्नि में अपना शरीर छोड़ना ॥ ५३ ॥

हे सन्ध्ये ! तुम इस पर्वत पर चारयुग से घोर तपस्या कर रही हो, कृतयुग के बीत जानेपर और त्रेता का प्रथम भाग आने पर दक्ष की जो शीलसम्पन्न कन्याएँ उत्पन्न हुईं, वे यथायोग्य विवाहित हुईं, उनमें से उन्होंने सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को [विवाह विधि द्वारा] प्रदान कीं, किंतु चन्द्रमा उन सभी को छोड़कर रोहिणी में प्रीति करने लगा ॥ ५४-५६ ॥ इस कारण जब दक्ष ने क्रोध से चन्द्रमा को शाप दे दिया, तब सभी देवता तुम्हारे पास आये थे ॥ ५७ ॥ हे सन्ध्ये ! उस समय तुम मेरा ध्यान कर रही थी, इसलिये वे देवगण जो ब्रह्माजी के साथ आये हुए थे, तुमने उनकी तरफ देखा नहीं; क्योंकि तुम आकाश की ओर देख रही थी, अब तुमने मेरा दर्शन प्राप्त कर लिया है ॥ ५८ ॥ तब ब्रह्माजी ने चन्द्रमा के शाप को दूर करने के लिये इस चन्द्रभागा नदी का निर्माण किया है, उसी समय यहाँ मेधातिथि उपस्थित हुए थे ॥ ५९ ॥

तपस्या में उनके समान न तो कोई है, न कोई होनेवाला है और न कोई हुआ है । उन्होंने ही इस चन्द्रभागा नदी के तट पर विधिपूर्वक ज्योतिष्टोम यज्ञ का आरम्भ किया है ॥ ६० ॥ वहाँ अग्नि प्रज्वलित हो रही है, उसीमें अपने शरीर को छोड़ो । इस समय तुम अत्यन्त पवित्र हो, तुम्हारी प्रतिज्ञा पूर्ण हो ॥ ६१ ॥

हे तपस्विनि ! अपने कार्य की सिद्धि के लिये मैंने यह विधि बतायी है । अतः हे महाभागे ! तुम यहाँ मुनि के यज्ञ में जाओ और इसे करो । इस प्रकार वे देवेश उसका हित करके वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ६२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सन्ध्याचरित्रवर्णन नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥

 

 

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