August 9, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 07 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः सातवाँ अध्याय महर्षि मेधातिथि की यज्ञाग्नि में सन्ध्या द्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धती के रूप में यज्ञाग्नि से उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनि के साथ उसका विवाह ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार भगवान् सदाशिव जब सन्ध्या को वर प्रदानकर अन्तर्धान हो गये, तब सन्ध्या वहाँ गयी, जहाँ महर्षि मेधातिथि थे ॥ १ ॥ वहाँ पर भगवान् सदाशिव की कृपा से उसे किसी ने नहीं देखा । उसने उस समय तपस्या के विषय में उपदेश करनेवाले उन ब्रह्मचारी का स्मरण किया ॥ २ ॥ हे महामुने ! वे ब्रह्मचारी वसिष्ठ मुनि ही थे, जो ब्रह्माजी की आज्ञा से ब्रह्मचारी का रूप धारणकर सन्ध्या को तपस्या के सम्बन्ध में उपदेश करने आये थे ॥ ३ ॥ तपश्चर्या का उपदेश करनेवाले उन्हीं ब्रह्मचारी ब्राह्मण [वसिष्ठ]-का पतिरूप से स्मरण करके वह ब्रह्मपुत्री सन्ध्या प्रसन्नमन से सदाशिव की कृपा से मुनियों द्वारा अलक्षित हो उस महायज्ञ की प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गयी ॥ ४-५ ॥ उसका समस्त शरीर पुरोडाश के समान तत्क्षण ही जलकर राख हो गया, जिससे अलक्षित रूप से पुरोडाश का गन्ध चारों ओर फैल गया ॥ ६ ॥ पुनः सदाशिव की आज्ञा से अग्नि ने उसके शुद्ध शरीर को भस्मकर सूर्यमण्डल में प्रविष्ट करा दिया ॥ ७ ॥ शिवमहापुराण तदनन्तर सूर्य ने उसके शरीर को दो भागों में विभक्तकर पितरों एवं देवताओं की प्रसन्नता के लिये अपने रथ में स्थापित कर लिया ॥ ८ ॥ हे मुनीश्वर ! उसके शरीर का जो ऊपर का भाग था, वही रात्रि तथा दिन के बीच में होनेवाली प्रातःसन्ध्या हुई ॥ ९ ॥ जो उसके शरीर का शेष भाग था, वही दिन तथा रात्रि के बीच में होनेवाली सायंसन्ध्या हुई, जो सदैव ही पितरों की प्रसन्नता का कारण होती है ॥ १० ॥ सूर्योदय के पहले जब अरुणोदय होता है, तब देवताओं को प्रसन्न करनेवाली प्रातःसन्ध्या का उदय होता है ॥ ११ ॥ जब लाल कमल के समान सूर्य अस्त हो जाता है, तब पितरों को प्रसन्न करनेवाली सायं-सन्ध्या का उदय होता है ॥ १२ ॥ उसके मन सहित प्राण को परम दयालु शिव ने शरीरधारियों के दिव्य शरीर से निर्मित किया था ॥ १३ ॥ जब मेधातिथि का यज्ञ समाप्त हो रहा था, तब उन्हें देदीप्यमान सुवर्ण के समान कान्तिवाली वह कन्या यज्ञाग्नि में प्राप्त हुई ॥ १४ ॥ हे मुने ! महामुनि मेधातिथि ने यज्ञ से प्राप्त हुई उस कन्या को बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण किया और उसे स्नान कराकर अपनी गोद में बिठाया ॥ १५ ॥ उन्होंने उसका नाम अरुन्धती रखा । [उस कन्या को प्राप्तकर] वे शिष्यों के साथ बड़े ही हर्षित हुए ॥ १६ ॥ उसने किसी भी कारण के उपस्थित होने पर अपने पातिव्रत्यधर्म का परित्याग नहीं किया, इसलिये त्रिलोकी में उसने स्वयं यह प्रसिद्ध [अरुन्धती] नाम धारण किया ॥ १७ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे सुरर्षे ! यज्ञ समाप्त करने के उपरान्त वे मुनि कन्यारूप सम्पत्ति से युक्त हो अपने शिष्यों सहित अत्यन्त कृतकृत्य होकर अपने उस आश्रम में उसका लालन-पालन करने लगे ॥ १८ ॥ उसके बाद वह कन्या चन्द्रभागा नदी के तट पर श्रेष्ठ मुनि के तापसारण्य नामक आश्रम में बढ़ने लगी ॥ १९ ॥ वह सती पाँच वर्ष की अवस्था में अपने गुणों से चन्द्रभागा नदी तथा तापसारण्य को पवित्र करने लगी ॥ २० ॥ ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ने ब्रह्मपुत्र वसिष्ठ के साथ उस अरुन्धती का विवाह करवाया ॥ २१ ॥ हे मुने ! उसके विवाह में सुखदायक महान् उत्सव हुआ, जिससे सभी देवता तथा मुनिगण अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ २२ ॥ [उस विवाह में] ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के हाथ से गिरे हुए जल से शिप्रा आदि सात पवित्र नदियाँ उत्पन्न हुईं ॥ २३ ॥ हे मुने ! साध्वी स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ महासाध्वी वह मेधातिथि की कन्या अरुन्धती वसिष्ठ को [पतिरूप में] प्राप्तकर अत्यन्त शोभित हुई ॥ २४ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उससे शक्ति आदि श्रेष्ठ तथा सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुए । इस प्रकार वसिष्ठ को पतिरूप में प्राप्तकर वह शोभा पाने लगी ॥ २५ ॥ हे मुनिसत्तम ! इस प्रकार मैंने सन्ध्या का चरित्र कहा, जो अत्यन्त पवित्र, दिव्य तथा सम्पूर्ण कामनाओं का फल देनेवाला है ॥ २६ ॥ जो शुभ व्रतवाला पुरुष अथवा नारी इस चरित्र को सुनता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में अरुन्धती तथा वसिष्ठ के विवाह का वर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe