August 9, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 10 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः दसवाँ अध्याय ब्रह्मा और विष्णु के संवाद में शिवमाहात्म्य का वर्णन नारदजी बोले — हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे महाभाग ! आप धन्य हैं, जो आपकी बुद्धि शिव में आसक्त है । आपने परमात्मा शंकरजी के सुन्दर चरि त्रका आख्यान किया ॥ १ ॥ मारगणों तथा [अपनी स्त्री] रति के साथ जब काम अपने स्थान पर चला गया, तब क्या हुआ और आपने क्या किया ? अब उस चरित्र को कहिये ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले – हे नारद! आप अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक महादेवजी के चरित्र को सुनिये, जिसके श्रवणमात्र से मनुष्य विकार से मुक्त हो जाता है ॥ ३ ॥ काम के सपरिवार अपने आश्रम में चले जाने पर उस समय जो हुआ, उस चरित्र को मुझसे सुनिये ॥ ४ ॥ शिवमहापुराण हे नारद ! मेरा घमण्ड चूर-चूर हो गया और अपने मनोरथ के अपूर्ण रहने से मुझ आनन्दरहित के हृदय में विस्मय हुआ ॥ ५ ॥ मैंने मन में अनेक प्रकार से विचार किया कि वे निर्विकार, जितात्मा तथा योगपरायण शिव स्त्री को किस प्रकार ग्रहण कर सकते हैं ? ॥ ६ ॥ हे मुने ! इस प्रकार अनेक तरह से विचार करके अहंकाररहित मैंने उस समय अपने जन्मदाता शिवस्वरूप उन विष्णु का भक्तिपूर्वक स्मरण किया और दीनतापूर्ण वाक्यों से युक्त कल्याणकारी स्तोत्रों से मैं उनकी स्तुति करने लगा । उसे सुनकर चतुर्भुज, कमलनयन, शंखपद्म-गदाधारी, पीताम्बर से सुशोभित तथा श्यामवर्ण के शरीरवाले भक्तप्रिय भगवान् विष्णु शीघ्र ही मेरे सम्मुख प्रकट हो गये ॥ ७-९ ॥ उस प्रकार के रूपवाले शरणागतवत्सल उन भगवान् को देखकर मैंने पुनः प्रेम से गद्गद वाणी में बार-बार उनकी स्तुति की ॥ १० ॥ अपने भक्तों के दुःख को दूर करनेवाले भगवान् विष्णु उस स्तोत्र को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हो मुझ शरणागत ब्रह्मा से कहने लगे — ॥ ११ ॥ विष्णुजी बोले — हे विधे ! हे ब्रह्मन् ! हे महाप्राज्ञ ! आप धन्य हैं, हे लोककर्ता ! आपने आज किसलिये मेरा स्मरण किया और किसलिये आप मेरी स्तुति कर रहे हैं ? ॥ १२ ॥ आपको कौन-सा महान् दुःख हो गया है, उसे अभी बताइये । उस सम्पूर्ण दुःख का मैं नाश करूँगा, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! विष्णु के इन वचनों को सुनकर मैंने दीर्घ श्वास लिया और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विष्णु से यह वचन कहा — ॥ १४ ॥ ‘हे देवदेव ! हे रमानाथ ! मेरी बात सुनिये और हे मानद ! उसे सुनकर दया करके मेरा दुःख दूर कीजिये तथा मुझे सुखी कीजिये ॥ १५ ॥ हे विष्णो ! मैंने रुद्र के सम्मोहन के लिये सपरिवार मारगण तथा वसन्त के साथ काम को भेजा था ॥ १६ ॥ उन्होंने शिवजी को मोहित करने के लिये अनेक प्रकार के उपाय किये, परंतु वे सब निष्फल हो गये । उन समदर्शी योगी को मोह नहीं हुआ’ ॥ १७ ॥ मेरा यह वचन सुनकर शिवतत्त्व के ज्ञाता, विज्ञानी तथा सब कुछ देनेवाले वे विष्णु विस्मित होकर मुझसे कहने लगे — ॥ १८ ॥ विष्णुजी बोले — हे पितामह ! आपकी इस प्रकार की बुद्धि किस कारण से हो गयी है ? हे ब्रह्मन् ! अपनी सुबुद्धि से सब विचारकर मुझसे सत्य-सत्य उसे कहें ॥ १९ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे तात ! अब उस चरित्र को सुनिये । यह आपकी माया मोहनेवाली है, सुख-दुःखमय यह सारा जगत् उसी के अधीन है ॥ २० ॥ उसी माया के द्वारा प्रेरित होकर मैं [इस प्रकारका] पाप करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ । हे देवेश ! आपकी आज्ञा से मैं कह रहा हूँ । आप उसे सुनिये ॥ २१ ॥ सृष्टि के प्रारम्भ में मेरे दक्ष आदि दस पुत्र उत्पन्न हुए और मेरी वाणी से एक परम सुन्दरी कन्या भी उत्पन्न हुई ॥ २२ ॥ जिसमें धर्म मेरे वक्षःस्थल से, काम मन से तथा अन्य पुत्र मेरे शरीर से उत्पन्न हुए, हे हरे ! कन्या को देखकर मुझे मोह हो गया ॥ २३ ॥ मैंने आपकी माया से मोहित होकर जब उसे कुदृष्टि से देखा, तब उसी समय महादेवजी ने आकर मेरी तथा मेरे पुत्रों की निन्दा की ॥ २४ ॥ हे नाथ ! उन्होंने स्वयं को श्रेष्ठ तथा प्रभु मानकर ज्ञानी, योगी, जितेन्द्रिय, भोगरहित मुझ ब्रह्मा को तथा मेरे पुत्रों को धिक्कारा ॥ २५ ॥ हे हरे ! मेरे पुत्र होकर भी शिव ने सबके सामने ही मेरी निन्दा की । यही मुझे महान् दुःख है, इसे मैंने आपके सामने कह दिया ॥ २६ ॥ यदि वे पत्नी ग्रहण कर लें, तो मैं सुखी हो जाऊँगा और मेरे मन का कष्ट दूर हो जायगा । हे केशव ! इसीलिये मैं आपकी शरण में आया हूँ ॥ २७ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] मुझ ब्रह्मा का यह वचन सुनकर विष्णु हँसकर मुझ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को हर्षित करते हुए शीघ्र ही कहने लगे — ॥ २८ ॥ विष्णुजी बोले — हे विधे ! सम्पूर्ण भ्रम का निवारण करनेवाले और वेद तथा आगमों द्वारा अनुमोदित परमार्थयुक्त मेरे वचन को सुनें ॥ २९ ॥ हे विधे ! वेद के वक्ता तथा समस्त लोक के कर्ता होकर भी आप इस प्रकार महामूर्ख तथा दुर्बुद्धियुक्त किस प्रकार हो गये ? ॥ ३० ॥ हे मन्दात्मन् ! आप अपनी जड़ता का त्याग करें और इस प्रकार की बुद्धि न करें । सम्पूर्ण वेद स्तुति द्वारा क्या कहते हैं, अच्छी बुद्धि से उसका स्मरण करें ॥ ३१ ॥ हे दुर्बुद्धे ! आप उन परेश, रुद्र को अपना पुत्र समझते हैं । हे विधे ! आप वेद के वक्ता हैं, फिर भी आपका समस्त ज्ञान विस्मृत हो गया है ॥ ३२ ॥ [ऐसा ज्ञात होता है कि इस समय आपकी सुबुद्धि नष्ट हो गयी है और आपमें कुमति उत्पन्न हो गयी है, जो आप शंकर को सामान्य देवता समझकर उनसे द्रोह कर रहे हैं ॥ ३३ ॥ हे ब्रह्मन् ! निर्णय करके वेदों में वर्णित किया गया जो कल्याणकारक तत्त्वसिद्धान्त कहा गया है, उसे आप सुनिये और सद्बुद्धि रखिये ॥ ३४ ॥ शिवजी ही समस्त सृष्टि के कर्ता, भर्ता, हर्ता परात्पर, परब्रह्म, परेश, निर्गुण, नित्य, अनिर्देश्य, निर्विकार, परमात्मा, अद्वैत, अच्युत, अनन्त, सबका अन्त करनेवाले, स्वामी, व्यापक, परमेश्वर, सृष्टि-पालन-संहार को करनेवाले, सत्त्व-रज-तम – इन तीन गुणों से युक्त, सर्वव्यापी, रज-सत्त्व-तमरूप से ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर नाम धारण करनेवाले, माया से भिन्न, इच्छारहित, मायास्वरूप, माया रचने में प्रवीण, सगुण, स्वतन्त्र, अपने में आनन्दित रहनेवाले, निर्विकल्पक, अपने में ही रमण करनेवाले, द्वन्द्व से रहित, भक्तों के अधीन रहनेवाले, उत्तम शरीरवाले, योगी, सदा योग में निरत रहनेवाले, योगमार्ग दिखानेवाले, लोकेश्वर, गर्व को दूर करनेवाले तथा सदैव दीनों पर दया करनेवाले हैं । जो ऐसे स्वामी हैं, उन्हें आप अपना पुत्र मानते हैं ! ॥ ३५-४० ॥ हे ब्रह्मन् ! [शिव हमारे पुत्र हैं-] इस प्रकार का अज्ञान छोड़ दीजिये । उन्हीं की शरण में जाइये और सब प्रकार से शिवजी का भजन कीजिये, वे प्रसन्न होकर आपका कल्याण करेंगे ॥ ४१ ॥ यदि आपका यह विचार है कि शिवजी अवश्य दारपरिग्रह करें, तो शिवजी का स्मरण करते हुए आप शिवा को उद्देश्य करके कठोर तप कीजिये ॥ ४२ ॥ आप अपनी इच्छा को हृदय में धारणकर [भगवती] शिवा का ध्यान कीजिये । यदि वे देवेश्वरी प्रसन्न हो गयीं, तो आपका समस्त कार्य पूर्ण करेंगी ॥ ४३ ॥ यदि वे शिवा सगुणरूप से अवतार लेकर किसी मनुष्य की कन्या बनें, तो निश्चय ही वे उन (शिव) की पत्नी बन सकती हैं ॥ ४४ ॥ हे ब्रह्मन् ! आप [इस कार्य के लिये] दक्ष को आज्ञा दीजिये कि वे स्वयं भक्तितत्पर होकर उन शिवपत्नी को उत्पन्न करने के लिये प्रयत्नपूर्वक तप करें ॥ ४५ ॥ हे तात ! आप इसे भली प्रकार समझ लें कि वे शिवा और शिव भक्तों के अधीन हैं, परब्रह्मस्वरूप ये दोनों स्वेच्छा से सगुणभाव धारण कर लेते हैं ॥ ४६ ॥ ब्रह्माजी बोले — लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु ने इस प्रकार कहकर तत्क्षण अपने प्रभु शिवजी का स्मरण किया और उसके बाद उनकी कृपा से ज्ञान प्राप्तकर वे मुझसे कहने लगे — ॥ ४७ ॥ विष्णुजी बोले — हे ब्रह्मन् ! पूर्वकाल में शिवजी की इच्छा से उत्पन्न हुए हम दोनों के द्वारा प्रार्थना करने पर उन्होंने जो-जो वचन कहा था, उसका स्मरण कीजिये ॥ ४८ ॥ आप वह सब भूल गये हैं । शिवजी की जो पराशक्ति है, वह धन्य है, उसीने इस समस्त जगत् को मोहित कर रखा है । शिव के अतिरिक्त उसे कोई नहीं जान सकता ॥ ४९ ॥ हे ब्रह्मन् ! जब निर्गुण शिवजी ने अपनी इच्छा से सगुणरूप धारण किया था, उस समय मुझे तथा आपको उत्पन्न करके अपनी शक्ति के साथ उत्तम विहार करनेवाले, सृष्टिकर्ता, अविनाशी, परमेश्वर उन शम्भु ने आपको सृष्टिकार्य के लिये तथा मुझे उसके पालन के लिये आदेश दिया ॥ ५०-५१ ॥ उसके बाद हम दोनों ने हाथ जोड़कर विनम्र होकर निवेदन किया कि आप सर्वेश्वर होकर भी सगुणरूप धारणकर अवतार लीजिये । ऐसा कहने पर करुणामय तथा अनेक प्रकार की लीलाएँ करने में प्रवीण उन स्वामी शिवजी ने आकाश की ओर देखकर हँसते हुए प्रेमपूर्वक कहा — ॥ ५२-५३ ॥ हे विष्णो ! मेरा ऐसा ही परम रूप ब्रह्माजी के अंग से प्रकट होगा, जो लोक में रुद्र नाम से प्रसिद्ध होगा । वह मेरा पूजनीय पूर्णरूप आप दोनों के समस्त कार्य को पूरा करनेवाला, जगत् का लयकर्ता, सभी गुणों का अधिष्ठाता, निर्विशेष तथा उत्तम योग करनेवाला होगा ॥ ५४-५५ ॥ यद्यपि त्रिदेव मेरे स्वरूप हैं, किंतु ‘हर’ मेरे पूर्णरूप होंगे । [इसी प्रकार] हे पुत्रो ! उमा के भी तीन प्रकार के रूप होंगे । लक्ष्मी विष्णु की पत्नी, सरस्वती ब्रह्मा की पत्नी और पूर्णरूपा सती रुद्र की पत्नी होंगी ॥ ५६-५७ ॥ विष्णुजी बोले — [हे ब्रह्मन्!] भगवान् महेश्वर ऐसा कहकर हमदोनों पर कृपा करके अन्तर्धान हो गये, उसके बाद हम दोनों सुखी होकर अपने-अपने कार्यों में लग गये ॥ ५८ ॥ हे ब्रह्मन् ! समय पाकर हमदोनों ने स्त्री ग्रहण कर ली, किंतु शंकरजी ने नहीं । वे रुद्र नाम से अवतीर्ण हुए हैं और कैलास पर्वत पर रहते हैं ॥ ५९ ॥ हे प्रजेश्वर ! वे शिवा सती नाम से अवतीर्ण होंगी । अतः उन्हें उत्पन्न होने के लिये हमदोनों को यत्न करना चाहिये ॥ ६० ॥ परम कृपा करके वे विष्णु ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये । तब मैं [शिवजी के प्रति] ईर्ष्यारहित होकर अत्यधिक प्रसन्न हो गया ॥ ६१ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में ब्रह्मा और विष्णु का संवाद नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ Related