शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [ प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 03
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
तीसरा अध्याय
मायानिर्मित नगर में शीलनिधि की कन्या पर मोहित हुए नारदजी का भगवान् विष्णु से उनका रूप माँगना, भगवान् का अपने रूप के साथ वानरका-सा मुँह देना, कन्या का भगवान् को वरण करना और कुपित हुए नारद का शिवगणों को शाप देना

ऋषिगण बोले — हे सूत ! हे सूत ! हे महाभाग ! हे व्यासशिष्य ! आपको नमस्कार है । हे तात ! कृपापूर्वक आपने हम सभी को जो कथा सुनायी है, यह निश्चित ही आश्चर्यजनक है ॥ १ ॥ हे तात ! मुनि के चले जाने के पश्चात् भगवान् विष्णु ने क्या किया और नारदजी कहाँ गये ? वह सब आप हमलोगों को बतायें ॥ २ ॥

शिवमहापुराण

व्यासजी बोले — उन ऋषियों की बात सुनकर पौराणिकों में श्रेष्ठ तथा बुद्धिमान् सूतजी नाना प्रकार की सृष्टि करनेवाले शिव का स्मरण करके कहने लगे — ॥ ३ ॥

सूतजी बोले — [हे महर्षियो !] उन नारदमुनि के इच्छानुसार वहाँ से चले जाने पर भगवान् शिव की इच्छा से मायाविशारद श्रीहरि ने तत्काल अपनी माया प्रकट की ॥ ४ ॥ उन्होंने मुनि के मार्ग में एक विशाल, सौ योजन विस्तारवाले, अद्भुत तथा अत्यन्त मनोहर नगर की रचना की ॥ ५ ॥ भगवान् ने उसे अपने वैकुण्ठलोक से भी अधिक रमणीय बनाया था । नाना प्रकार की वस्तुएँ उस नगर की शोभा बढ़ाती थीं । वहाँ स्त्रियों और पुरुषों के लिये बहुत-से विहारस्थल थे । वह नगर चारों वर्णों के लोगों से युक्त था ॥ ६ ॥ वहाँ शीलनिधि नामक ऐश्वर्यशाली राजा राज्य करते थे । वे अपनी पुत्री का स्वयंवर करने के लिये उद्यत थे । अतः उन्होंने महान् उत्सव का आयोजन किया था । उनकी कन्या का वरण करने के लिये उत्सुक हो चारों दिशाओं से बहुत-से राजकुमार आये थे, जो नाना प्रकार की वेशभूषा तथा सुन्दर शोभा से प्रकाशित हो रहे थे । उन राजकुमारों से वह नगर भरा-पूरा दिखायी देता था ॥ ७-८ ॥ ऐसे राजनगर को देख नारदजी मोहित हो गये । वे कौतुकी कामासक्त नारद राजा शीलनिधि के द्वार पर गये ॥ ९ ॥

मुनिश्रेष्ठ नारद को आया देखकर राजा शीलनिधि ने उन्हें श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बिठाकर उनका पूजन किया ॥ १० ॥ तत्पश्चात् राजा ने श्रीमती नामक अपनी सुन्दरी कन्या को बुलवाकर उससे नारदजी के चरणों में प्रणाम करवाया ॥ ११ ॥ उस कन्या को देखकर नारदमुनि चकित हो गये और बोले — हे राजन् ! यह देवकन्या के समान सुन्दरी तथा महाभाग्यशालिनी कन्या कौन है ?॥ १२ ॥

उनकी यह बात सुनकर राजा ने हाथ जोड़कर कहा — हे मुने ! यह मेरी पुत्री है, इसका नाम श्रीमती है ॥ १३ ॥ अब इसके विवाह का समय आ गया है । यह अपने लिये सुन्दर वर चुनने के निमित्त स्वयंवर में जानेवाली है । इसमें सब प्रकार के शुभ लक्षण लक्षित होते हैं ॥ १४ ॥ हे महर्षे ! आप जन्मस्थ जातक ग्रहों के अनुसार इसका सम्पूर्ण भाग्य बतायें और यह मेरी पुत्री कैसा वर प्राप्त करेगी, यह भी कहें’ ॥ १५ ॥

राजा के इस प्रकार पूछने पर काम से विह्वल हुए मुनिश्रेष्ठ नारद उस कन्या को प्राप्त करने की इच्छा मन में लिये राजा को सम्बोधित करके यह वाक्य बोले — ॥ १६ ॥

‘हे भूपाल ! आपकी यह पुत्री समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, परम सौभाग्यवती, धन्य और साक्षात् लक्ष्मी की भाँति समस्त गुणों की आगार है । इसका पति निश्चय ही भगवान् शंकर के समान वैभवशाली, सर्वेश्वर, किसी से पराजित न होनेवाला, वीर, कामविजयी तथा सम्पूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ होगा’ ॥ १७-१८ ॥

ऐसा कहकर राजा से विदा लेकर इच्छानुसार विचरनेवाले नारदमुनि वहाँ से चल दिये । वे काम के वशीभूत हो गये थे । शिव की माया ने उन्हें विशेष मोह में डाल दिया था ॥ १९ ॥ वे मुनि मन-ही-मन सोचने लगे कि मैं इस राजकुमारी को कैसे प्राप्त करूँ ! स्वयंवर में आये हुए नरेशों में से सबको छोड़कर यह एकमात्र मेरा ही वरण कैसे करे ! ॥ २० ॥ समस्त नारियों को सौन्दर्य सर्वथा प्रिय होता है । सौन्दर्य को देखकर ही वह प्रसन्नतापूर्वक मेरे अधीन हो सकती है, इसमें संशय नहीं है । ऐसा विचारकर काम से विह्वल हुए मुनिवर नारद भगवान् विष्णु का रूप ग्रहण करने के लिये तत्काल उनके लोक में जा पहुँचे ॥ २१-२२ ॥

वहाँ भगवान् विष्णु को प्रणाम करके वे यह वचन बोले — [हे भगवन् !] मैं एकान्त में आपसे अपना सारा वृत्तान्त कहूँगा ॥ २३ ॥

तब बहुत अच्छा’ — यह कहकर शिव-इच्छित कर्म करनेवाले लक्ष्मीपति श्रीहरि नारदजी के साथ एकान्त में जा बैठे और बोले — हे मुने ! अब आप अपनी बात कहिये, तब केशव से मुनि नारदजी ने कहा ॥ २४ ॥

नारदजी बोले — हे भगवन ! आपके भक्त जो राजा शीलनिधि हैं, वे सदा धर्मपालन में तत्पर रहते हैं । उनकी एक विशाललोचना कन्या है, जो बहुत ही सुन्दरी है । उसका नाम श्रीमती है ॥ २५ ॥ वह जगन्मोहिनी के रूप में विख्यात है और तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्दरी है । हे विष्णो ! आज मैं शीघ्र ही उस कन्या से विवाह करना चाहता हूँ ॥ २६ ॥ राजा शीलनिधि ने अपनी पुत्री की इच्छा से स्वयंवर रचाया है, इसलिये चारों दिशाओं से वहाँ हजारों राजकुमार आये हुए हैं । यदि आप अपना रूप मुझे दे दें, तो मैं उसे निश्चित ही प्राप्त कर लूँगा । आपके रूप के बिना वह मेरे कण्ठ में जयमाला नहीं डालेगी ॥ २७-२८ ॥ हे नाथ ! मैं आपका प्रिय सेवक हूँ, अतः आप मुझे अपना स्वरूप दे दीजिये, जिससे वह राजकुमारी श्रीमती निश्चय ही मुझे वरण कर ले ॥ २९ ॥

सूतजी बोले — हे महर्षियो ! नारदमुनि की ऐसी बात सुनकर भगवान् मधुसूदन हँस पड़े और शंकर के प्रभाव का अनुभव करके उन दयालु प्रभु ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया ॥ ३० ॥

विष्णु बोले — हे मुने ! आप अपने अभीष्ट स्थान को जाइये, मैं उसी तरह आपका हितसाधन करूँगा, जैसे श्रेष्ठ वैद्य [अत्यन्त] पीड़ित रोगी का हित करता है; क्योंकि आप मुझे विशेष प्रिय हैं ॥ ३१ ॥

ऐसा कहकर भगवान् विष्णु ने नारदमुनि को मुख तो वानर का दे दिया और शेष अंगों में अपने-जैसा स्वरूप देकर वे वहाँ से अन्तर्धान हो गये ॥ ३२ ॥ भगवान् की पूर्वोक्त बात सुनकर और उनका मनोहर रूप प्राप्त हो गया-समझकर नारद मुनि को बड़ा हर्ष हुआ । वे अपने को कृतकृत्य मानने लगे, किंतु भगवान् के प्रयत्न को वे समझ न सके ॥ ३३ ॥ तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ नारद शीघ्र ही उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ राजा शीलनिधि ने राजकुमारों से भरी हुई स्वयंवरसभा का आयोजन किया था ॥ ३४ ॥ हे विप्रवरो ! राजपुत्रों से घिरी हुई वह दिव्य स्वयंवरसभा दूसरी इन्द्रसभा के समान अत्यन्त शोभा पा रही थी ॥ ३५ ॥

नारदजी उस राजसभा में जा बैठे और वहाँ बैठकर प्रसन्न मन से बार-बार यही सोचने लगे । मैं भगवान् विष्णु के समान रूप धारण किये हूँ, अतः वह राजकुमारी अवश्य मेरा ही वरण करेगी, दूसरे का नहीं । मुनिश्रेष्ठ नारद को यह ज्ञात नहीं था कि मेरा मुँह कुरूप है ॥ ३६-३७ ॥ हे विप्रो ! उस सभा में बैठे हुए सभी मनुष्यों ने मुनि को उनके पूर्वरूप में ही देखा । राजकुमार आदि कोई भी उनके रूपपरिवर्तन के रहस्य को न जान सके ॥ ३८ ॥ वहाँ नारदजी की रक्षा के लिये भगवान् रुद्र के दो गण आये थे, जो ब्राह्मण का रूप धारण करके गूढभाव से वहाँ बैठे थे । वे ही नारदजी के रूपपरिवर्तन के उत्तम भेद को जानते थे । मुनि को कामावेश से मूढ़ हुआ जानकर वे दोनों गण उनके निकट गये और आपस में बातचीत करते हुए उनकी हँसी उड़ाने लगे ॥ ३९-४० ॥

‘देखो, नारद का रूप तो निश्चित ही भगवान् विष्णु के समान श्रेष्ठ है, किंतु मुख वानर के समान विकट और महाभयंकर । काममोहित ये व्यर्थ में ही राजपुत्री को प्राप्त करने की इच्छा कर रहे हैं ।’ इस प्रकार की कपटपूर्ण बातें कहकर वे नारद का उपहास करने लगे ॥ ४१-४२ ॥

मुनि तो काम से विह्वल थे, अतः उन्होंने उनकी यथार्थ बात भी अनसुनी कर दी । वे मोहित हो उस ‘श्रीमती’ को प्राप्त करने की इच्छा से उसके आगमन की प्रतीक्षा करने लगे ॥ ४३ ॥ इसी बीच स्त्रियों से घिरी हुई वह सुन्दरी राजकन्या अन्तःपुर से वहाँ आयी । अपने हाथ में सोने की सुन्दर माला लिये हुए वह शुभलक्षणा राजकुमारी स्वयंवर के मध्यभाग में लक्ष्मी के समान खड़ी हुई अपूर्व शोभा पा रही थी ॥ ४४-४५ ॥ उत्तम व्रत का पालन करनेवाली वह भूपकन्या हाथ में माला लेकर अपने मन के अनुरूप वर का अन्वेषण करती हुई सारी सभा में भ्रमण करने लगी ॥ ४६ ॥

नारदमुनि का भगवान् विष्णु के समान शरीर और वानर जैसा मुँह देखकर वह कुपित हो गयी और उनकी ओर से दृष्टि हटाकर प्रसन्न मन से दूसरी ओर चली गयी ॥ ४७ ॥ स्वयंवरसभा में अपने मनोवांछित वर को न देखकर वह दुःखित हो गयी । राजकुमारी उस सभा के भीतर चुपचाप खड़ी रह गयी और उसने किसी के गले में जयमाला नहीं डाली ॥ ४८ ॥ इतने में राजा के समान वेशभूषा धारण किये हुए भगवान् विष्णु वहाँ आ पहुँचे । किन्हीं दूसरे लोगों ने उनको वहाँ नहीं देखा, केवल उस कन्या ने ही उन्हें देखा ॥ ४९ ॥ भगवान् को देखते ही उस परमसुन्दरी राजकुमारी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा । उसने तत्काल ही उनके कण्ठ में वह माला पहना दी ॥ ५० ॥ राजा का रूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु उस राजकुमारी को साथ लेकर तुरंत अदृश्य हो गये और अपने धाम में जा पहुँचे ॥ ५१ ॥

इधर, सब राजकुमार श्रीमती की ओर से निराश हो गये । नारदमुनि तो कामवेदना से आतुर हो रहे थे, इसलिये वे अत्यन्त विह्वल हो उठे ॥ ५२ ॥ तब वे दोनों विप्ररूपधारी ज्ञानविशारद रुद्रगण कामविह्वल नारदजी से कहने लगे — ॥ ५३ ॥

गण बोले — हे नारद ! हे मुने ! आप व्यर्थ ही काम से मोहित हो रहे हैं और [सौन्दर्य के बल से] राजकुमारी को पाना चाहते हैं । वानर के समान अपना घृणित मुँह तो देख लीजिये ॥ ५४ ॥

सूतजी बोले — हे महर्षियो ! उन रुद्रगणों का यह वचन सुनकर नारदजी को बड़ा विस्मय हुआ । वे शिव की माया से मोहित थे । उन्होंने दर्पण में अपना मुँह देखा ॥ ५५ ॥ वानर के समान अपना मुँह देखकर वे तुरंत ही कुपित हो उठे और माया से मोहित होने के कारण उन दोनों शिवगणों को वहाँ यह शाप दे दिया — तुम दोनों ने मुझ ब्राह्मण का उपहास किया है, अतः तुम दोनों ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन्न राक्षस हो जाओ । [ब्राह्मण की सन्तान होने पर भी] तुम्हारे आकार राक्षस के समान ही होंगे ॥ ५६-५७ ॥ इस प्रकार अपने लिये शाप सुनकर ज्ञानियों में श्रेष्ठ वे दोनों शिवगण मुनि को मोहित जानकर कुछ नहीं बोले ॥ ५८ ॥

हे ब्राह्मणो ! वे सदा सब घटनाओं में भगवान् शिव की इच्छा मानते थे, अतः उदासीन भाव से अपने स्थान को चले गये और भगवान् शिव की स्तुति करने लगे ॥ ५९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के सृष्टिखण्ड में नारदमोहवर्णन नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.