August 10, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 13 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः तेरहवाँ अध्याय ब्रह्मा की आज्ञा से दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वों को निवृत्तिमार्ग में भेजने के कारण दक्ष का नारद को शाप देना नारदजी बोले — हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे महाप्राज्ञ ! हे वक्ताओं में श्रेष्ठ ! दक्षप्रजापति के घर चले जाने के बाद फिर क्या हुआ ? यह सब [वृत्तान्त] प्रीतिपूर्वक कहिये ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] दक्षप्रजापति ने अपने आश्रम में जाकर प्रसन्नचित्त हो मेरी आज्ञा से बहुत-सी मानसी सृष्टि की, किंतु उस प्रजासृष्टि को बढ़ता हुआ न देखकर दक्ष अपने पिता मुझ ब्रह्मा से कहने लगे — ॥ २-३ ॥ शिवमहापुराण दक्ष बोले — हे तात ! हे ब्रह्मन् ! हे प्रजानाथ ! मेरे द्वारा बनायी गयी प्रजाएँ बढ़ नहीं रही हैं । मैंने भली प्रकार से विचारकर देख लिया है कि मैंने जितनी भी सृष्टि की है, वह उतनी ही है ॥ ४ ॥ हे प्रजानाथ ! मैं क्या करूँ ? यह मेरी प्रजा किस प्रकार बढ़ेगी ? आप कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे प्रजाओं के सष्टिक्रम का विस्तार करूँ ॥ ५ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे दक्ष ! हे प्रजापते ! हे तात ! मेरी उत्तम बात सुनिये और उसे कीजिये । हे सुरश्रेष्ठ ! भगवान् शंकर आपका कल्याण करेंगे ॥ ६ ॥ हे प्रजेश ! पंचजन प्रजापति की जो असिक्नी नामक सुन्दर पुत्री है, उसे आप पत्नीरूप से ग्रहण कीजिये ॥ ७ ॥ अभी तक आप पत्नीरहित होकर धर्माचरण करते रहे हैं, किंतु इस प्रकार की पत्नी में मैथुनधर्म से प्रवृत्त होकर जब आप सृष्टि करेंगे, तब प्रजा बढ़ेगी ॥ ८ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] तब दक्षप्रजापति ने मैथुनधर्म से प्रजासृष्टि करने के लिये मेरी आज्ञा से वीरण की कन्या के साथ विवाह किया ॥ ९ ॥ प्रजापति दक्ष ने अपनी पत्नी उस वीरिणी के गर्भ से हर्यश्व नामक दस हजार पुत्रों को उत्पन्न किया ॥ १० ॥ हे मुने ! वे सभी पुत्र समान धर्माचरण करनेवाले, पिता की भक्ति में तत्पर रहनेवाले और सदा वेदमार्ग का अनुसरण करनेवाले थे ॥ ११ ॥ हे तात ! वे सभी दक्षपुत्र अपने पिता की आज्ञा पाकर सृष्टि के उद्देश्य से तपस्या हेतु पश्चिम दिशा की ओर चले गये ॥ १२ ॥ वहाँ पर परम पवित्र नारायणसर नामक तीर्थ है, जहाँ दिव्य सिन्धु नदी तथा समुद्र का संगम हुआ है ॥ १३ ॥ उस तीर्थ के स्पर्शमात्र से उनकी बुद्धि अत्यन्त निर्मल हो गयी और पाप के दूर होते ही वे सभी परमहंसधर्म में स्थित हो गये ॥ १४ ॥ तत्पश्चात् दृढ़चित्तवाले तथा श्रेष्ठ वे दक्षपुत्र पिता की आज्ञा से बँधे होने के कारण प्रजावृद्धि के लिये तप करने लगे ॥ १५ ॥ हे नारद ! सृष्टि-संवर्धन हेतु उन्हें घोर तप करते हुए जानकर और विष्णु का मनोगत अभिप्राय समझकर आप उनके पास गये और आदरपूर्वक आपने उनसे कहा — हे दक्षपुत्र हर्यश्वो ! तुम लोग पृथिवी का विस्तार न जानकर सृष्टिकर्म में किस प्रकार प्रवृत्त हुए हो ? ॥ १६-१७ ॥ ब्रह्माजी बोले — वे हर्यश्वगण आपकी कही हुई बात सुनकर सृष्टि के विषय में सावधान होकर मन में बहुत विचार करने लगे ॥ १८ ॥ जो उत्तम शास्त्ररूपी पिता के निवृत्तिपरक वचनों को नहीं जानता, वह मात्र गुणों पर ही विश्वास रखनेवाली सृष्टि का उपक्रम किस प्रकार कर सकता है ? ॥ १९ ॥ वे परम बुद्धिमान् दक्षपुत्र एकाग्र बुद्धि से ऐसा विचारकर देवर्षि नारद की परिक्रमा करके एवं उन्हें प्रणामकर निवृत्तिमार्ग में परायण हो गये ॥ २० ॥ हे नारद ! हे मुने ! आप शिव के मन हैं और लोक में पर्यटन करते रहते हैं तथा निर्विकार रहकर शिव की चित्तवृत्ति के अनुसार रहते हैं ॥ २१ ॥ बहुत काल बीतने पर मेरे पुत्र दक्षप्रजापति नारदजी के द्वारा अपने पुत्रों के नाश को सुनकर बहुत सन्तप्त हुए ॥ २२ ॥ उस समय आपने शोक करते हुए दक्ष से बार-बार कहा कि आप अच्छी सन्तानवाले थे, [जो कि आपके पुत्र श्रेष्ठ मार्ग का अनुसरण करते हुए मुक्त हो गये] किंतु वे दक्ष शिव की माया से मोहित हो बार-बार शोक करते रहे ॥ २३ ॥ तदनन्तर दक्ष के पास आकर मैंने उन्हें शान्तिभाव का उपदेश कर सान्त्वना देते हुए कहा [शोक मत करो], दैव बड़ा प्रबल होता है ॥ २४ ॥ तब दक्षप्रजापति ने मेरे द्वारा धीरज बँधाये जानेपर पुनः पंचजन की कन्या [असिक्नी] -के गर्भ से सबलाश्व नामक हजार पुत्रों को उत्पन्न किया ॥ २५ ॥ दृढ़ व्रतवाले वे सबलाश्व भी पिता की आज्ञा से सृष्टिसंवर्धन हेतु वहाँ गये, जहाँ उनसे पूर्व उनके भाई गये थे और सिद्ध हो गये थे ॥ २६ ॥ वे भी उस तीर्थ के स्पर्शमात्र से सर्वथा निष्पाप तथा शुद्ध अन्तःकरणवाले हो गये और उत्तम व्रत में परायण होकर ब्रह्म का जप करते हुए कठिन तप करने लगे ॥ २७ ॥ हे नारद ! आपने सृष्टि करने के लिये उन्हें तपस्या में उद्यत देखकर उनके पास जाकर ईश्वर की गति का स्मरण करते हुए वही उपदेश दिया, जो पूर्व में उनके भाइयों को दिया था ॥ २८ ॥ हे मुने ! आपका दर्शन निष्फल नहीं होता, इसलिये आपने उनको भी पूर्व के भाइयों के मार्ग का उपदेश किया, जिससे वे भी अपने भाइयों के मार्ग का अनुसरण करते हुए उसी मार्ग पर चले गये ॥ २९ ॥ उसी समय दक्षप्रजापति को अनेक उत्पात दिखायी पड़ने लगे । वे अपने पुत्रों को आया न देखकर आश्चर्यचकित होकर मनमें दुखी हो गये ॥ ३० ॥ उन्होंने आपके द्वारा प्रथम पुत्रों के नाश के समान ही इन पुत्रों के भी नाश का जब समाचार सुना, तो वे आश्चर्य में भरकर पुत्रशोक से मूर्च्छित हो अत्यन्त सन्तप्त हो उठे ॥ ३१ ॥ वे दक्ष आप पर कुपित हो गये और कहने लगे कि यह नारद दुष्ट है । उसी समय दैवयोग से उनके पुत्रों पर अनुग्रह करनेवाले आप भी दक्ष के पास आ गये ॥ ३२ ॥ उस समय वे प्रजापति दक्ष क्रोध में भरकर अपने ओठों को फड़फड़ाते हुए आपके पास आये और आपको धिक्कारते हुए निन्दापूर्वक कहने लगे — ॥ ३३ ॥ दक्ष बोले — हे अधमों में श्रेष्ठ ! तुमने साधु का रूप धारणकर मेरे सत्पुत्रों को यह कैसा उपदेश किया ? तुमने मेरे इन पुत्रों को इस प्रकार भिक्षुमार्ग का उपदेश क्यों किया, जो उनके लिये कल्याणकारी नहीं था ॥ ३४ ॥ तुम्हारे-जैसे निर्दयी शठ ने देव, ऋषि तथा पितृऋण से मुक्त हुए बिना ही मेरे पुत्रों को ऐसा उपदेशकर उनके इस लोक तथा परलोक के कल्याण को नष्ट कर दिया, क्योंकि जो बिना तीनों ऋणों से मुक्त हुए ही माता-पिता को छोड़कर मोक्ष की इच्छा करता हुआ निवृत्तिमार्ग का अनुसरण करता है, वह नरकगामी होता है ॥ ३५-३६ ॥ तुम निर्दयी, अत्यन्त निर्लज्ज हो, बालकों को बहकानेवाले तथा यश को नष्ट करनेवाले हो । हे मूर्ख ! तुम हरि के पार्षदों के बीच में व्यर्थ ही विचरण करते हो ॥ ३७ ॥ हे अधमाधम ! तुमने बार-बार मेरा अहित किया है । इसलिये लोक में भ्रमण करते हुए तुम्हारा पैर स्थिर न रहे ॥ ३८ ॥ इस प्रकार शिवजी की माया से मोहित हुए दक्ष ने ईश्वर की इच्छा को नहीं समझा और सज्जनों के मान्य आपको शोकसन्तप्त होकर शाप दे दिया और हे मुने ! निर्मल बुद्धिवाले आपने भी दक्ष प्रजापति के इस शाप को ग्रहण कर लिया, हे ब्रह्मसाधो ! ऐसा साधु स्वयं इस प्रकार के अपकार को सहन कर लेता है ॥ ३९-४० ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में दक्ष की सृष्टि [ उपाख्यान ]-में नारद-शापवर्णन नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ Related