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शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 14
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
चौदहवाँ अध्याय
दक्ष की साठ कन्याओं का विवाह, दक्ष के यहाँ देवी शिवा (सती)-का प्राकट्य, सती की बाललीला का वर्णन

ब्रह्माजी बोले — हे देवमुने ! इसी समय मैं लोकपितामह ब्रह्मा भी इस चरित्र को जानकर प्रीतिपूर्वक शीघ्रता से वहाँ पहुँचा ॥ १ ॥ मैंने पूर्व की भाँति दक्ष प्रजापति को धैर्य धारण कराया, जिससे वे प्रसन्न हो आपसे पूर्ववत् स्नेह करने लगे ॥ २ ॥ हे मुनिवर्य ! मैं देवताओं के प्रिय अपने पुत्र आपको प्रेमपूर्वक बहुत धीरज देकर अपने साथ लेकर आश्रम को लौट आया ॥ ३ ॥ तदनन्तर दक्षप्रजापति ने मेरी आज्ञा से अपनी स्त्री में साठ सौभाग्यवती कन्याओं को उत्पन्न किया ॥ ४ ॥ दक्ष ने आलस्यरहित होकर उन कन्याओं का विवाह धर्मादिकों के साथ जिस प्रकार किया, उसे प्रीतिपूर्वक सुनिये । हे मुनीश्वर ! उसको मैं कह रहा हूँ ॥ ५ ॥

शिवमहापुराण

हे मुने ! दक्ष ने दस कन्याएँ धर्म को, तेरह कश्यप मुनि को और सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को विधिपूर्वक दीं । दो कन्याएँ अंगिरा तथा दो कन्याएँ [अर्चि और दिशाना] कृशाश्व को और अन्य कन्याएँ तार्थ्य को दीं । जिनकी प्रसूति-परम्परा से यह समस्त जगत् व्याप्त है, विस्तार के भय से मैं उनका वर्णन नहीं कर रहा हूँ ॥ ६-८ ॥

कुछ लोग शिवा को इन कन्याओं से ज्येष्ठ कहते हैं, कोई मध्यम कहते हैं और कोई सबसे छोटी मानते हैं, किंत कल्पभेद से ये तीनों ही सही हैं ॥ ९ ॥ कन्या की उत्पत्ति के अनन्तर पत्नी सहित दक्ष प्रजापति ने अत्यन्त प्रेम से अपने मन में जगदम्बा का ध्यान किया ॥ १० ॥ उन्होंने गद्गद स्वर से प्रेमपूर्वक विनययुक्त होकर हाथ जोड़कर बार-बार नमस्कार करके उनकी स्तुति की ॥ ११ ॥ तब वे देवी सन्तुष्ट होकर मन में विचार करने लगी कि मुझे अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिये वीरिणी में अवतार लेना चाहिये । इसके बाद उन जगदम्बा ने दक्ष के मन में निवास किया । हे मुनिसत्तम ! उस समय वे अत्यन्त शोभित होने लगे ॥ १२-१३ ॥

उन्होंने उत्तम शुभ मुहूर्त में अपनी स्त्री में प्रसन्नतापूर्वक गर्भाधान किया । तब वे दयामयी शिवा दक्षपत्नी के हृदय में निवास करने लगीं और दक्ष की स्त्री में गर्भ के समस्त लक्षण प्रकट होने लगे ॥ १४-१५ ॥

हे तात ! गर्भ में शिवा के निवास के प्रभाव से वे दक्षपत्नी वीरिणी महामंगल-स्वरूपा और [पहले की अपेक्षा अधिक प्रसन्नचित्त हो गयीं ॥ १६ ॥ उस समय दक्ष ने अपने कुल के सम्प्रदाय के अनुसार, वेद के अनुसार तथा अपने सम्मान के अनुरूप प्रसन्नतापूर्वक पुंसवनादि सभी संस्कार किये । उन पुंसवनादि कर्मों में महान् उत्सव हुआ । दक्ष प्रजापति ने ब्राह्मणों को उस समय यथेष्ट धन प्रदान किया ॥ १७-१८ ॥ उस समय विष्णु आदि सभी देवगण देवी को वीरिणी के गर्भ में आयी हुई जानकर प्रसन्न हो गये और वहाँ आकर उन सबने लोक का उपकार करनेवाली उन जगदम्बा को बार-बार प्रणाम करके उनकी स्तुति की ॥ १९-२० ॥

इसके बाद प्रसन्नचित्त होकर वीरिणी तथा दक्ष प्रजापति की बहुत ही प्रशंसाकर वे अपने-अपने घर चले गये ॥ २१ ॥ हे नारद ! हे मुने ! इस प्रकार नौ मास पूर्ण हो जाने पर समस्त लौकिक क्रिया कर लेने के बाद जब दसवाँ मास पूर्ण हो गया, तब वे शिवा चन्द्र, ग्रह, तारा [आदि]-के अनुकूल होने पर सुखद मुहूर्त में शीघ्र ही माता के सामने प्रकट हो गयीं ॥ २२-२३ ॥ उनके उत्पन्न होते ही प्रजापति दक्ष बड़े प्रसन्न हुए तथा उनके प्रकृष्ट तेज को देखकर उन्होंने उन्हें वही शिवादेवी समझा ॥ २४ ॥ हे मुनीश्वर ! उन देवी के उत्पन्न होते ही उस समय आकाश से पुष्पवृष्टि होने लगी, मेघों ने जल की वर्षा प्रारम्भ कर दी और सभी दिशाएँ शान्त हो गयीं । देवता आकाश में स्थित होकर उत्तम बाजे बजाने लगे और शान्त अग्नियाँ प्रज्वलित हो उठीं । इस प्रकार [सभी दिशाओंमें ] मंगल-ही-मंगल हो गया ॥ २५-२६ ॥ वीरिणी में उत्पन्न हुई उन जगदम्बा को देखकर दक्ष भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार करके स्तुति करने लगे ॥ २७ ॥

दक्ष बोले — हे महेशानि ! हे सनातनि ! हे जगदम्बे ! आपको नमस्कार है, हे सत्ये ! हे सत्यस्वरूपिणि ! हे महादेवि ! [ मेरे ऊपर] दया करें ॥ २८ ॥ वेद के ज्ञाता जिन्हें शिवा, शान्ता, महामाया, योगनिद्रा तथा जगन्मयी कहते हैं, उन आप हितकारिणी देवी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २९ ॥ जिन्होंने पूर्वकाल में ब्रह्माजी को उत्पन्नकर इस जगत् की सृष्टि के कार्य में नियुक्त किया है, उन परमा जगन्माता आप महेश्वरी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३० ॥ जिन्होंने सदा संसार के पालन के लिये विष्णु को नियुक्त किया है, उन परमा जगन्माता आप महेश्वरी को मैं नमस्कार करता हूँ । जिन्होंने संसार के विनाश के लिये रुद्र को नियुक्त किया है, उन परमा जगन्माता आप महेश्वरी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३१-३२ ॥ सत्त्व-रज-तमरूपोंवाली, सर्वदा समस्त कार्यों को साधनेवाली तथा तीनों देवताओं को उत्पन्न करनेवाली उन आप शिवादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३३ ॥ हे देवि ! जो आपको विद्या-अविद्या-इन दोनों रूपों से स्मरण करता है, उसके हाथ में भोग तथा मोक्ष दोनों ही स्थित हो जाते हैं ॥ ३४ ॥ हे देवि ! जो परमपावनी शिवास्वरूपा आपका प्रत्यक्ष दर्शन करता है, उसे विद्या तथा अविद्या को प्रकाशित करनेवाली मुक्ति अपने-आप मिल जाती है ॥ ३५ ॥ हे जगदम्बे ! जो अम्बिका, जगन्मयी एवं दुर्गा – इन नामों से आप भवानी का स्तवन करते हैं, उनके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं ॥ ३६ ॥

॥ दक्ष उवाच ॥
महेशानि नमस्तुभ्यं जगदम्बे सनातनि ।
कृपां कुरु महादेवि सत्ये सत्यस्वरूपिणि ॥ २८ ॥
शिवा शांता महामाया योगनिद्रा जगन्मयी ।
या प्रोच्यते वेदविद्भिर्नमामि त्वां हितावहाम् ॥ २९ ॥
यया धाता जगत्सृष्टौ नियुक्तस्तां पुराकरोत् ।
तां त्वां नमामि परमां जगद्धात्रीं महेश्वरीम् ॥ ३० ॥
यया विष्णुर्जगत्स्थित्यै नियुक्तस्तां सदाकरोत् ।
तां त्वां नमामि परमां जगद्धात्रीं महेश्वरीम् ॥ ३१ ॥
यया रुद्रो जगन्नाशे नियुक्तस्तां सदाकरोत् ।
तां त्वां नमामि परमां जगद्धात्रीं महेश्वरीम् ॥ ३२ ॥
रजस्सत्त्वतमोरूपां सर्वकार्यकरीं सदा ।
त्रिदेवजननीं देवीं त्वां नमामि च तां शिवाम् ॥ ३३ ॥
यस्त्वां विचिंतयेद्देवीं विद्याविद्यात्मिकां पराम् ।
तस्य भुक्तिश्च मुक्तिश्च सदा करतले स्थिता ॥ ३४ ॥
यस्त्वां प्रत्यक्षतो देवि शिवां पश्यति पावनीम् ।
तस्यावश्यं भवेन्मुक्तिर्विद्याविद्याप्रकाशिका ॥ ३५ ॥
ये स्तुवंति जगन्मातर्भवानीमंबिकेति च ।
जगन्मयीति दुर्गेति सर्वं तेषां भविष्यति ॥ ३६ ॥

ब्रह्मा बोले — जब इस प्रकार जगन्माता शिवा की स्तुति दक्षप्रजापति ने की, तब वे दक्ष से इस प्रकार से कहने लगी, जिससे कि माता वीरिणी न सुन सकें ॥ ३७ ॥ नाना प्रकार के रूपों को धारण करनेवाली उन परमेश्वरी शिवा ने सबको मोहित करके इस प्रकार सत्य कहा कि उसे केवल दक्ष ही सुन सकें, अन्य कोई नहीं ॥ ३८ ॥

देवी बोलीं — हे प्रजापते ! आपने मुझे पुत्रीरूप से प्राप्त करने हेतु पहले मेरी आराधना की थी, वह आपका अभीष्ट पूरा हुआ, अब आप पुनः तपस्या कीजिये ॥ ३९ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार दक्ष से कहकर वे देवी अपनी माया से शिशु का रूप धारणकर माता के पास रोने लगीं ॥ ४० ॥ उस रोदन को सुनकर और उसे स्त्री का शब्द जानकर स्त्रियाँ तथा समस्त दासियाँ भी आश्चर्यचकित हो प्रीतिपूर्वक वहाँ गयीं । असिक्नी की सुता के रूप को देखकर सभी स्त्रियाँ परम प्रसन्न हुईं । उस समय समस्त नगरवासियों ने भी जयजयकार किया ॥ ४१-४२ ॥

नगर में गाने-बजाने के साथ महान् उत्सव होने लगा । पुत्री का सुन्दर मुख देखकर असिक्नी तथा दक्ष परम प्रसन्न हुए । दक्षप्रजापति ने विधिपूर्वक वेदविहित कुलाचार किया और ब्राह्मणों को दान दिया तथा अन्य लोगों को भी बहत-सा धन दिया ॥ ४३-४४ ॥ वहाँ सभी ओर मंगलाचारपूर्वक गायन तथा नृत्य होने लगा और अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे ॥ ४५ ॥ [शिवा के जन्म के समय] विष्णु आदि सभी देवगण अपने-अपने अनुचरों तथा मुनियों के साथ आकर यथाविधि अनेक उत्सव करने लगे ॥ ४६ ॥ दक्षकन्या के रूप में [अवतरित हुई] उन परमेश्वरी जगदम्बा को देखकर देवताओं ने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और अनेक प्रकार के उत्तम स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति की । सभी देवता प्रसन्न होकर जय-जयकार करने लगे और दक्ष तथा वीरिणी की विशेष रूप से प्रशंसा करने लगे ॥ ४७-४८ ॥

दक्ष ने प्रसन्न होकर विष्णु आदि देवताओं की आज्ञा से सभी गुणों से सम्पन्न होने के कारण उस प्रशस्त अम्बिका का उमा – यह नाम रखा । उसके बाद लोक में उनके अन्य नाम भी पड़े, जो मंगल करनेवाले तथा लोगों के दुःख दूर करनेवाले थे ॥ ४९-५० ॥ उस समय दक्षप्रजापति ने हाथ जोड़कर विष्णु, मुझ ब्रह्मा, सम्पूर्ण मुनियों तथा देवताओं की स्तुति करके भक्तिपूर्वक सभी लोगों का पूजन किया ॥ ५१ ॥ तदनन्तर विष्णु आदि सभी देवगण दक्ष की प्रशंसा करके शिवा तथा शिव का स्मरण करते हुए अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ ५२ ॥

उसके बाद माता ने भी यथोचित रूप से उस कन्या का संस्कारकर बालकों की स्तनपानविधि से उसे अपना दूध पिलाया ॥ ५३ ॥ महात्मा प्रजापति दक्ष तथा वीरिणी ने [बड़ी सावधानी के साथ] उस कन्या का लालन-पालन किया, जिससे वह शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की कला के समान प्रतिदिन बढ़ने लगी ॥ ५४ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! उस कन्या में बाल्यकालमें ही सभी सद्गुण प्रविष्ट हो गये; जैसे चन्द्रमामें सभी मनोहर कलाएँ अपने-आप आ जाती हैं ॥ ५५ ॥

जब वह सखियों के बीच में जाकर अपने भाव में मग्न होती थी, तब प्रतिदिन शंकरजी की प्रतिमा का बार-बार निर्माण करती थी । जब वह शिवा बालोचित गाने गाती, तो वह काम पर शासन करनेवाले हर, रुद्र तथा स्थाणु का [गाने के बहाने] स्मरण करती थी ॥ ५६-५७ ॥

दक्ष प्रजापति तथा वीरिणी का स्नेह दिन-प्रतिदिन उस कन्या पर बढ़ता ही गया । यद्यपि वह बालिका थी, फिर भी वह अपने माता-पिता में बड़ी भक्ति रखती थी ॥ ५८ ॥ सभी बालोचित गुणों से परिपूर्ण वह उमा देवी अपने घर के सभी कार्यों को निपुणता से सम्पन्नकर प्रतिदिन अपने माता-पिता को सन्तुष्ट करने लगी ॥ ५९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सतीजन्म एवं बाललीला का वर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥

मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधति, संकल्प, महूर्त, संध्या, विश्वा, अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवषा, तामरा, सुरभि, सरमा, तिमि, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, आश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, आषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी, रति, स्वरूपा, भूता, स्वधा, अर्चि, दिशाना, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी।

 

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