शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 15
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पन्द्रहवाँ अध्याय
सती द्वारा नन्दा-व्रत का अनुष्ठान तथा देवताओं द्वारा शिवस्तुति

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! एक समय आपके साथ जाकर मैंने त्रिलोकी की सर्वस्वभूता उन सती को अपने पिताके पास बैठी हुई देखा ॥ १ ॥ पिता के द्वारा नमस्कृत तथा सत्कृत होते हुए हमदोनों को देखकर लोकलीला का अनुसरण करनेवाली उन सती ने प्रेमपूर्वक भक्ति के साथ आपको तथा मुझे प्रणाम किया ॥ २ ॥

शिवमहापुराण

हे नारद ! प्रणाम करने के पश्चात् दक्ष के द्वारा दिये गये आसन पर हम दोनों बैठ गये, इसके बाद विनम्र सती को देखकर मैंने कहा — हे सति ! जो तुम्हें चाहता है तथा जिसे तुम चाहती हो, उन सर्वज्ञ जगदीश्वर को तुम पतिरूप में प्राप्त करो । जिसने [तुम्हारे अतिरिक्त] दूसरी स्त्री का पाणिग्रहण नहीं किया है, जो वर्तमान में भी न करते हैं, न करेंगे और हे शुभे ! जिनकी समता कोई और करनेवाला नहीं है, वे ही [इस समय] तुम्हारे पति हों ॥ ३-५ ॥

हे नारद ! ऐसा कहकर कुछ दिन दक्ष के घर निवासकर हमदोनों उनसे विदा लेकर अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥ ६ ॥

मेरी बात सुनकर दक्ष परम प्रसन्न होकर चिन्तारहित हो गये और अपनी कन्या को परमेश्वरी जानकर उनका बड़ा सत्कार करने लगे ॥ ७ ॥ अपनी इच्छा से मनुष्यशरीर धारण करनेवाली, भक्तवत्सला देवी ने मनोहर कौमारोचित विहार करके अपनी कौमार्यावस्था समाप्त की ॥ ८ ॥ अपनी तपस्या के प्रभाव से सर्वांगमनोहरा उन सती ने धीरे-धीरे बाल्यावस्था समाप्तकर युवावस्था को प्राप्त किया ॥ ९ ॥ लोकेश दक्षप्रजापति उस कन्या को युवावस्था को प्राप्त हुई देखकर विचार करने लगे कि अपनी इस पुत्री को शिव के लिये किस प्रकार प्रदान करूँ ॥ १० ॥ इधर, वे सती भी प्रतिदिन शिव को प्राप्त करने की इच्छा करने लगीं । पिता के मनोभाव को जानकर वे माता के पास आयीं । विशाल बुद्धिवाली उन सती परमेश्वरी ने शंकर को प्राप्त करने की इच्छा से तप करने के लिये अपनी माता वीरिणी से आज्ञा माँगी । तब दृढ़ व्रतवाली वे सती माता की आज्ञा से महेश्वर को पतिरूप में प्राप्त करने के लिये घर में ही तपस्या करने लगीं ॥ ११-१३ ॥

उन्होंने आश्विनमास की प्रत्येक नन्दा तिथिप्रतिपदा, षष्ठी तथा एकादशी में गुड़, भात तथा लवण से भक्तिपूर्वक हर का पूजन किया, इस प्रकार उस मास को बिता दिया ॥ १४ ॥ कार्तिकमास की चतुर्दशी को खीर तथा अपूप से शिवजी की आराधनाकर वे उनका स्मरण करने लगीं ॥ १५ ॥ वे मार्गशीर्ष के कृष्णपक्ष की अष्टमी को यव, तिल एवं चावल सहित कीलों से शिवजी का पूजनकर दिन बिताने लगीं ॥ १६ ॥ वे सती पौषमास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि को रात्रि में जागरण करके प्रातःकाल खिचड़ी से शिव का पूजन करने लगीं ॥ १७ ॥ माघ की पूर्णिमा तिथि को रात्रि में जागरणकर प्रातःकाल भीगे कपड़े पहनकर वे नदी के किनारे शिव का पूजन करने लगीं ॥ १८ ॥ फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को रात्रि में जागरणकर सब प्रहरों में बिल्वपत्र तथा बिल्वफल से शिव की विशेष पूजा करने लगीं ॥ १९ ॥

चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को वे सती पलाशपुष्प तथा दवनों [दौनों]-से शिवजी की पूजा करती थीं और दिन-रात उनका स्मरण करती हुई समय व्यतीत करती थीं ॥ २० ॥ वैशाख शुक्ल तृतीया को गव्य, तिलाहार, यव एवं चावलों से शिवजी का पूजनकर उस मास को व्यतीत करने लगीं ॥ २१ ॥ ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन निराहार रहकर रात्रि में वस्त्र एवं भटकटैया के पुष्पों से शिवजी का पूजन करके वे सती उस मास को व्यतीत करने लगीं ॥ २२ ॥ वे आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी को काले वस्त्र एवं भटकटैया के पुष्पों से शिवजी की पूजा करने लगीं ॥ २३ ॥ वे श्रावण शुक्ल अष्टमी तथा चतुर्दशी तिथि को पवित्र यज्ञोपवीत तथा वस्त्रों से शिव का पूजन करने लगीं ॥ २४॥ भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी को अनेक प्रकार के पुष्पों तथा फलों से शिव का पूजन करके वे चतुर्दशी तिथि में केवल जल का आहार करती थीं ॥ २५ ॥

इस प्रकार वे परिमित आहार करके जप करती हुई उन-उन कालों में उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकार के फल, पुष्प तथा शस्यों द्वारा प्रत्येक महीने शिवार्चन करती थीं ॥ २६ ॥ अपनी इच्छा से मानवरूप धारण करनेवाली वे सती दृढ़ व्रत से युक्त होकर सभी महीनों में तथा सभी दिनों में शिवपूजन में तत्पर रहने लगीं ॥ २७ ॥ इस प्रकार नन्दाव्रत को पूर्णरूप से समाप्त करके भगवान् शिव में अनन्य भाव रखनेवाली सती एकाग्रचित्त होकर बड़े प्रेम से भगवान् शिव का ध्यान करने लगीं तथा उनके ध्यान में ही निश्चलभाव से स्थित हो गयीं ॥ २८ ॥ हे मुने ! इसी समय सब देवता और ऋषि भगवान् विष्णु को और मुझको आगे करके सती की तपस्या देखने के लिये गये ॥ २९ ॥

वहाँ आकर देवताओं ने देखा कि सती मूर्तिमती दूसरी सिद्धि के समान जान पड़ती हैं । वे उस समय भगवान् शिव के ध्यान में निमग्न थीं और सिद्धावस्था में पहुँच गयी थीं ॥ ३० ॥ विष्णु आदि समस्त देवताओं तथा मुनियों ने प्रसन्नचित्त होकर दोनों हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर प्रेमपूर्वक सती को नमस्कार किया ॥ ३१ ॥ इसके बाद अति प्रसन्न श्रीविष्णु आदि सब देवता और मुनिगण आश्चर्यचकित होकर सती देवी की तपस्या की [भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ॥ ३२ ॥

तदनन्तर वे सभी देवता और ऋषिगण सती देवी को पुनः प्रणामकर भगवान् शिवजी के परमप्रिय श्रेष्ठ कैलास पर्वत पर शीघ्र ही चले गये ॥ ३३ ॥ लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णु और सावित्रीसहित मैं भी प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शिव के समीप गया ॥ ३४ ॥ वहाँ पहुँचकर आश्चर्यचकित होकर सभी लोगों ने प्रभु का दर्शनकर उन्हें प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर अनेक प्रकार के स्तोत्रों से वे उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३५ ॥

देवता बोले — परम पुरुष, महेश्वर, परमेश्वर और महान् आत्मावाले, सभी प्राणियों के आदिबीज, चेतनस्वरूप, परात्पर, ब्रह्मस्वरूप, निर्विकार और प्रकृति तथा पुरुष से परे उन आप भगवान् को नमस्कार है, जिनसे यह चराचर जगत् उत्पन्न हुआ है ॥ ३६-३७ ॥ जो प्रपंचरूप से स्वयं सृष्टिस्वरूप हैं तथा जिनकी सत्ता से समस्त संसार भासित हो रहा है, जिनके द्वारा यह जगत् उत्पन्न हुआ है, जिनके अधीन यह समस्त जगत् है, जिनका यह सब कुछ है ॥ ३८ ॥ जो इस जगत् के बाहर तथा भीतर व्याप्त हैं, जो निर्विकार और महाप्रभु हैं, जो अपनी आत्मा में ही इस समस्त विश्व को देखते हैं, उन स्वयम्भू परमेश्वर को हमलोग नमस्कार कर रहे हैं ॥ ३९ ॥ जिनकी दृष्टि कही नहीं रुकती, जो परात्पर, सभी प्राणियों के साक्षी, सर्वात्मा, अनेक रूपों को धारण करनेवाले, आत्मस्वरूप, परब्रह्म तथा तप करनेवाले हैं, हमलोग उनकी शरण में आये हैं ॥ ४० ॥ देवता, ऋषि तथा सिद्ध भी जिनके पद को नहीं जानते हैं तो फिर अन्य प्राणी उनको किस प्रकार जान सकते हैं ? और किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं ? जिनको देखने के लिये मुक्तसंग साधुजन ब्रह्मचर्यादि व्रतों का आचरण करते हैं, वे आप हमारी उत्तम गति हैं ॥ ४१-४२ ॥

हे प्रभो ! दुःख देनेवाले जन्मादि कोई भी विकार आपमें नहीं होते, फिर भी आप अपनी माया से कृपापूर्वक उन्हें ग्रहण करते हैं ॥ ४३ ॥ आश्चर्यमय कर्म करनेवाले उन आप परमात्मा को नमस्कार है । वाणी से सर्वथा परे आप परब्रह्म परमात्मा को नमस्कार है ॥ ४४ ॥ बिना रूप के होते हुए भी बहुत रूपोंवाले, परात्पर, अनन्तशक्ति से समन्वित, त्रिलोकपति, सर्वसाक्षी तथा सर्वव्यापी को नमस्कार है । स्वयं प्रकाशमान, निर्वाणसुख तथा सम्पत्तिस्वरूप, ज्ञानात्मा तथा व्यापक आप ईश्वर को नमस्कार है ॥ ४५-४६ ॥ निष्काम कर्म के द्वारा प्राप्त होनेवाले कैवल्यपति को नमस्कार है । परम पुरुष, परमेश्वर तथा सब कुछ देनेवाले आप प्रभु को नमस्कार है ॥ ४७ ॥

क्षेत्रज्ञ, आत्मस्वरूप, सभी प्रत्ययों के हेतु, सबके पति, महान् तथा मूलप्रकृति को नमस्कार है । पुरुष, परेश तथा सब कुछ प्रदान करनेवाले आप [परमात्मा]-को नमस्कार है ॥ ४८-४९ ॥ हे कारणरहित ! त्रिनेत्र, पाँच मुखवाले तथा सर्वदा ज्योतिःस्वरूप ! आपको नमस्कार है । सभी इन्द्रियों और गुणों को देखनेवाले आप परमात्मा को नमस्कार है ॥ ५० ॥ तीनों लोकों के कारण, मुक्तिस्वरूप, मोक्ष प्रदान करनेवाले, शीघ्र ही शरणागत को तारनेवाले, आम्नाय [वेद] तथा आगमशास्त्र के समुद्र, परमेष्ठी तथा भक्तों के आश्रयरूप आप प्रभु को नमस्कार है ॥ ५१-५२ ॥ हे महेश्वर ! आप गुणरूपी अरणी से आच्छन्न, चित्स्वरूप, अग्निरूप, मू्र्खों के द्वारा प्राप्त न होनेवाले, ज्ञानियों के हृदय में सदा निवास करनेवाले, संसारी जीवों के बन्धन को काटनेवाले, उत्तम भक्तों को मुक्ति प्रदान करनेवाले, स्वप्रकाशस्वरूप, नित्य, अव्यय, निरन्तर ज्ञानस्वरूप, प्रत्यक्ष द्रष्टा, अविकारी तथा परम ऐश्वर्य धारण करनेवाले हैं, आप प्रभु को नमस्कार है ॥ ५३-५४१/२ ॥

लोग धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के लिये जिनका भजन करते हैं तथा जिनसे अपनी सद्गति चाहते हैं, ऐसे [हे प्रभो!] आप हम सभी के लिये दयारहित कैसे हो गये ? हमपर प्रसन्न हों, आपको नमस्कार है ॥ ५५ ॥ आपके अनन्य भक्त आपसे किसी अन्य अर्थ की अपेक्षा नहीं करते हैं, वे तो केवल आपके मंगलस्वरूप चरित्र को ही गाया करते हैं ॥ ५६ ॥ अविनाशी, परब्रह्म, अव्यक्तस्वरूपवाले, व्यापक, अध्यात्म तथा योग से जाननेयोग्य तथा परिपूर्ण आप प्रभु की हमलोग स्तुति करते हैं ॥ ५७ ॥

हे अखिलेश्वर ! इन्द्रियों से परे, स्वयं आधाररहित, सबके आश्रय, हेतुरहित, अनन्त, आद्य और सूक्ष्म आप प्रभु को हम सभी प्रणाम करते हैं ॥ ५८ ॥ आपने अपनी तुच्छ कलामात्र से नामरूप के द्वारा विष्णु आदि सभी देवताओं तथा इस चराचर जगत् की [अलग-अलग] सृष्टि की है ॥ ५९ ॥ जैसे अग्नि की चिनगारियाँ तथा सूर्य की किरणें बार-बार निकलती हैं और फिर उन्हीं में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार सृष्टि का यह प्रवाह त्रिगुणात्मक कहा जाता है ॥ ६० ॥

हे प्रभो ! आप न देवता हैं, न असुर हैं, न मनुष्य हैं, न पक्षी हैं, न द्विज हैं, न स्त्री हैं, न पुरुष हैं, न नपुंसक हैं; यहाँतक कि सत्-असत् कुछ भी नहीं हैं । श्रुतियों के निषेध से जो शेष बचता है, वही निषेध-स्वरूप आप हैं । आप विश्व की उत्पत्ति करनेवाले, विश्व के पालक, विश्व का लय करनेवाले तथा विश्वात्मा हैं, उन ईश्वर को हम सभी प्रणाम करते हैं ॥ ६१-६२ ॥

योग से दग्ध हुए कर्मवाले योगीलोग अपने योगासक्त चित्त में जिन्हें देखते हैं, ऐसे आप योगेश्वर को हमलोग नमस्कार करते हैं ॥ ६३ ॥ हे तीनों शक्तियों से सम्पन्न असह्य वेगवाले ! हे त्रयीमय ! आपको नमस्कार है । अनन्त शक्तियों से युक्त तथा शरणागतों की रक्षा करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ६४ ॥ हे दुर्गेश ! दूषित इन्द्रियवालों के लिये आप सर्वथा दुष्प्राप्य हैं; क्योंकि आपको प्राप्त करने का मार्ग ही दूसरा है । सदा भक्तों के उद्धार में तत्पर रहनेवाले तथा गुप्त शक्ति से सम्पन्न आप प्रभु को नमस्कार है । जिनकी मायाशक्ति के कारण अहंबुद्धि से युक्त मूर्ख अपने स्वरूप को नहीं जान पाता है, उन दुरत्यय महिमावाले आप महाप्रभु को हम नमस्कार करते हैं ॥ ६५-६६ ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] इस प्रकार महादेवजी की स्तुति करके मस्तक झुकाये हुए विष्णु आदि सभी देवता उत्तम भक्ति से युक्त हो प्रभु शिवजी के आगे चुपचाप खड़े हो गये ॥ ६७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में नन्दाव्रतविधि तथा शिवस्तुतिवर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥

॥ देवा ऊचुः ॥
नमो भगवते तुभ्यं यत एतच्चराचरम् ।
पुरुषाय महेशाय परेशाय महात्मने ॥ ३६ ॥
आदिबीजाय सर्वेषां चिद्रूपाय पराय च ।
ब्रह्मणे निर्विकाराय प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ३७ ॥
य इदं प्रतिपंच्येदं येनेदं विचकास्ति हि ।
यस्मादिदं यतश्चेदं यस्येदं त्वं च यत्नतः ॥ ३८ ॥
योस्मात्परस्माच्च परो निर्विकारी महाप्रभुः ।
ईक्षते यस्स्वात्मनीदं तं नताः स्म स्वयंभुवम् ॥ ३९ ॥
अविद्धदृक् परः साक्षी सर्वात्मा ऽनेकरूपधृक् ।
आत्मभूतः परब्रह्म तपंतं शरणं गताः ॥ ४० ॥
न यस्य देवा ऋषयः सिद्धाश्च न विदुः पदम् ।
कः पुनर्जंतुरपरो ज्ञातुमर्हति वेदितुम् ॥ ४१ ॥
दिदृक्षवो यस्य पदं मुक्तसंगास्सुसाधवः ।
चरितं सुगतिर्नस्त्वं सलोकव्रतमव्रणम् ॥ ४२ ॥
त्वज्जन्मादिविकारा नो विद्यंते केपि दुःखदा ।
तथापि मायया त्वं हि गृह्णासि कृपया च तान् ॥ ४३ ॥
तस्मै नमः परेशाय तुभ्यमाश्चर्यकर्मणे ।
नमो गिरां विदूराय ब्रह्मणे परमात्मने ॥ ४४ ॥
अरूपायोरुरूपाय परायानंतशक्तये ।
त्रिलोकपतये सर्वसाक्षिणे सर्वगाय च ॥ ४५ ॥
नम आत्मप्रदीपाय निर्वाणसुखसंपदे ।
ज्ञानात्मने नमस्तेऽस्तु व्यापकायेश्वराय च ॥ ४६ ॥
नैष्कर्म्येण सुलभ्याय कैवल्यपतये नमः ।
पुरुषाय परेशाय नमस्ते सर्वदाय च॥ ४७ ॥
क्षेत्रज्ञायात्मरूपाय सर्वप्रत्ययहेतवे ॥ ४८ ॥
सर्वाध्यक्षाय महते मूलप्रकृतये नमः ।
पुरुषाय परेशाय नमस्ते सर्वदाय च ॥ ४९ ॥
त्रिनेत्रायेषुवक्त्राय सदाभासाय ते नमः ।
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे निष्कारण नमोस्तु ते ॥ ५० ॥
त्रिलोककारणायाथापवर्गाय नमोनमः ।
अपवर्गप्रदायाशु शरणागततारिणे ॥ ५१ ॥
सर्वाम्नायागमानां चोदधये परमेष्ठिने ।
परायणाय भक्तानां गुणानां च नमोस्तु ते ॥ ५२ ॥
नमो गुणारणिच्छन्न चिदूष्माय महेश्वर ।
मूढदुष्प्राप्तरूपाय ज्ञानिहृद्वासिने सदा ॥ ५३ ॥
पशुपाशविमोक्षाय भक्तसन्मुक्तिदाय च ।
स्वप्रकाशाय नित्यायाऽव्ययायाजस्रसंविदे ॥ ५४ ॥
प्रत्यग्द्रष्ट्रैऽविकाराय परमैश्वर्य धारिणे ।
यं भजन्ति चतुर्वर्गे कामयंतीष्टसद्गतिम् ।
सोऽभूदकरुणस्त्वं नः प्रसन्नो भव ते नमः ॥ ५५ ॥
एकांतिनः कंचनार्थं भक्ता वांछंति यस्य न ।
केवलं चरितं ते ते गायंति परमंगलम्॥ ५६ ॥
अक्षरं परमं ब्रह्मतमव्यक्ताकृतिं विभुम् ।
अध्यात्मयोगगम्यं त्वां परिपूर्णं स्तुमो वयम् ॥ ५७ ॥
अतींद्रियमनाधारं सर्वाधारमहेतुकम् ।
अनंतमाद्यं सूक्ष्मं त्वां प्रणमामोऽखिलेश्वरम् ॥ ५८ ॥
हर्यादयोऽखिला देवास्तथा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥ ५९ ॥
यथार्चिषोग्नेस्सवितुर्यांति निर्यांति वासकृत् ।
गभस्तयस्तथायं वै प्रवाहो गौण उच्यते ॥ ६० ॥
न त्वं देवो ऽसुरो मर्त्यो न तिर्यङ् न द्विजः प्रभो ।
न स्त्री न षंढो न पुमान्सदसन्न च किंचन ॥ ६१ ॥
निषेधशेषस्सर्वं त्वं विश्वकृद्विश्व पालकः ।
विश्वलयकृद्विश्वात्मा प्रणतास्स्मस्तमीश्वरम् ॥ ६२ ॥
योगरंधितकर्माणो यं प्रपश्यन्ति योगिनः ।
योगसंभाविते चित्ते योगेशं त्वां नता वयम् ॥ ६३ ॥
नमोस्तु तेऽसह्यवेग शक्तित्रय त्रयीमय ।
नमः प्रसन्नपालाय नमस्ते भूरिशक्तये ॥ ६४ ॥
कदिंद्रियाणां दुर्गेशानवाप्य परवर्त्मने ।
भक्तोद्धाररतायाथ नमस्ते गूढवर्चसे ॥ ६५ ॥
यच्छक्त्याहं धियात्मानं हंत वेद न मूढधी ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं त्वां नतः स्मो महाप्रभुम् ॥ ६६ ॥

 

 

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