शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 17
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
सत्रहवाँ अध्याय
भगवान् शिव द्वारा सती को वर-प्राप्ति और शिव का ब्रह्माजी को दक्ष प्रजापति के पास भेजना

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार मैंने सभी देवताओं के द्वारा की गयी शिवजी की उत्तम स्तुति को आपसे कह दिया । हे मुने ! सती ने जिस प्रकार शिवजी से वर प्राप्त किया, उसे अब मुझसे सुनो ॥ १ ॥ सती ने आश्विनमास के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को उपवासकर भक्तिपूर्वक सर्वेश्वर शिवजी का पूजन किया ॥ २ ॥ इस प्रकार नन्दाव्रत के पूर्ण हो जानेपर नवमी तिथि का कुछ भाग शेष रह गया था, उस समय ध्यान में निमग्न उन सती के सामने शिव प्रकट हो गये ॥ ३ ॥

शिवमहापुराण

वे सर्वांगसुन्दर तथा गौरवर्ण के थे, उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे । भालदेश में चन्द्रमा शोभा पा रहा था, उनका चित्त प्रसन्न था, उनका कण्ठ नीला था और उनकी चार भुजाएँ थीं, उन्होंने हाथों में त्रिशूल-ब्रह्मकपाल-वर तथा अभय मुद्रा को धारण कर रखा था, भस्ममय अंगराग से उनका शरीर उद्भासित हो रहा था, उनके मस्तक पर गंगाजी शोभा बढ़ा रही थीं तथा उनके सभी अंग मनोहर थे, वे परम सौन्दर्य के धाम थे, उनका मुख करोड़ों चन्द्रमाओं के समान प्रकाशमान था, उनकी कान्ति करोड़ों कामदेवों के समान थी और उनकी आकृति स्त्रियों को प्रिय लगनेवाली थी ॥ ४-६ ॥

इस प्रकार के प्रभु महादेवजी को प्रत्यक्ष देखकर सती ने लज्जा से नीचे की ओर मुख करके उनके चरणों में प्रणाम किया । तपस्या का फल प्रदान करनेवाले महादेवजी उत्तम व्रत धारण करनेवाली सती को पत्नीरूप में प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए भी उनसे कहने लगे — ॥ ७-८ ॥

महादेवजी बोले — हे दक्षनन्दिनि ! मैं तुम्हारे इस व्रत से प्रसन्न हूँ । हे सुव्रते ! जो तुम्हारा अभीष्ट वर हो, उसे माँगो, मैं उसे प्रदान करूँगा ॥ ९ ॥

ब्रह्माजी बोले — [मुने !] जगदीश्वर महादेव ने सती की भावना को जानते हुए भी उनकी बात सुनने की इच्छा से वर माँगो’ – ऐसा कहा ॥ १० ॥ वे लज्जा के वश में हो गयीं और जो उनके मन में था, उसे कह न सकीं । उनका जो अभीष्ट था, वह लज्जा से आच्छादित हो गया था । शिवजी का प्रिय वचन सुनकर वे प्रेम में विभोर हो गयीं । इसे जानकर भक्तवत्सल शंकरजी अत्यन्त हर्षित हुए ॥ ११-१२ ॥ सत्पुरुषों के शरणस्वरूप तथा अन्तर्यामी वे शिवजी सती की भक्ति के वशीभूत होकर वर माँगो, वर माँगो — ऐसा शीघ्रतापूर्वक बार-बार कहने लगे ॥ १३ ॥

उस समय सती ने अपनी लज्जा को रोककर शिवजी से कहा — हे वरद ! आप कभी भी न टलनेवाला यथेष्ट वर प्रदान करें ॥ १४ ॥

शिवजी ने अनुभव किया कि सती अपनी बात पूरी नहीं कर पा रही हैं, एतदर्थ उन्होंने स्वयं ही कहा — हे देवि ! तुम मेरी पत्नी बनो ॥ १५ ॥

अपने अभीष्ट फल को प्रकट करनेवाले शिवजी के वचन को सुनकर और अपना मनोगत वर प्राप्त करके सती प्रसन्न होकर चुपचाप खड़ी रहीं । वे सकाम शिवजी के सामने मन्द-मन्द मुसकराती हुई कामना को बढ़ानेवाले अपने हाव-भाव प्रकट करने लगीं ॥ १६-१७ ॥ सती द्वारा अभिव्यक्त हाव-भाव को स्वीकारकर श्रृंगाररस ने उन दोनों के चित्त में शीघ्रता से प्रवेश किया ॥ १८ ॥ हे देवर्षे ! श्रृंगाररस के प्रवेश करते ही लोकलीला करनेवाले शिवजी तथा सती की चित्रा से युक्त चन्द्रमा के समान विलक्षण कान्ति हो गयी ॥ १९ ॥

काले तथा चिकने अंजन के समान कान्तिवाली सती स्फटिकमणि के सदृश कान्तियुक्त उन शिवजी को प्राप्तकर इस प्रकार शोभित हुईं, जिस प्रकार अभ्रलेखा [मेघघटा] चन्द्रमा को प्राप्तकर शोभित होती है ॥ २० ॥ तदनन्तर दक्षकन्या सती अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनों हाथों को जोड़कर भक्तवत्सल भगवान् शिवजी से विनम्रतापूर्वक कहने लगीं — ॥ २१ ॥

सती बोलीं — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे प्रभो ! हे जगत्पते ! आप मेरे पिता के समक्ष वैवाहिक विधि से मुझे ग्रहण कीजिये ॥ २२ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! इस प्रकार सती की बात सुनकर भक्तवत्सल महादेवजी ने प्रेमपूर्वक उनकी ओर देखकर यह वचन कहा — ‘ऐसा ही होगा’ ॥ २३ ॥

तब दक्षकन्या सती भी उन शिवजी को प्रणाम करके भक्तिपूर्वक विदा माँगकर और पुनः उनकी आज्ञा प्राप्त करके मोह और आनन्द से युक्त हो अपनी माता के पास चली गयीं । शिवजी भी हिमालय के शिखर पर अपने आश्रम में प्रवेश करके दक्षकन्या सती के वियोग के कारण बड़ी कठिनाई से ध्यान में तत्पर हो सके ॥ २४-२५ ॥ देवर्षे ! मन को एकाग्र करके लौकिक गति का आश्रय लेकर वृषध्वज शंकर ने मन-ही-मन मेरा स्मरण किया ॥ २६ ॥ तब त्रिशूलधारी महेश्वर के स्मरण करने पर उनकी सिद्धि से प्रेरित होकर मैं शीघ्र ही उनके समीप पहुँच गया और हे तात ! हिमालय के शिखर पर जहाँ सती के वियोगजनित दुःख का अनुभव करनेवाले महादेवजी विद्यमान थे, वहीं मैं सरस्वतीसहित उपस्थित हो गया ॥ २७-२८ ॥ हे देवर्षे ! तदनन्तर सरस्वतीसहित मुझ ब्रह्मा को देखकर सती के प्रेम में बँधे हुए शिवजी उत्सुकतापूर्वक कहने लगे — ॥ २९ ॥

शम्भु बोले — हे ब्रह्मन् ! मैं जबसे विवाह के कार्य में स्वार्थबुद्धि कर बैठा हूँ, तबसे अब मुझे इस स्वार्थ में ही स्वत्व-सा प्रतीत हो रहा है ॥ ३० ॥ दक्षकन्या सती ने बड़े भक्तिभाव से मेरी आराधना की है और मैंने नन्दाव्रत के प्रभाव से उसे [अभीष्ट] वर दे दिया है ॥ ३१ ॥ हे ब्रह्मन् ! उस सती ने मुझसे यह वर माँगा कि आप मेरे पति हो जाइये । तब सर्वथा सन्तुष्ट होकर मैंने भी कह दिया कि तुम मेरी पत्नी हो जाओ ॥ ३२ ॥ तदनन्तर उस सती ने मुझसे कहा — हे जगत्पते ! मेरे पिता को सूचित करके [वैवाहिक विधि का पालन करते हुए] मुझे ग्रहण कीजिये । हे ब्रह्मन् ! उसकी भक्ति से सन्तुष्ट हुए मैंने उसे भी स्वीकार कर लिया । हे विधे ! [इस प्रकार का वर प्राप्तकर] सती अपनी माता के पास चली गयी और मैं यहाँ चला आया ॥ ३३-३४ ॥ इसलिये हे ब्रह्मन् ! आप मेरी आज्ञा से दक्ष के घर जाइये और वे दक्षप्रजापति जिस प्रकार मुझे शीघ्र अपनी कन्या प्रदान करें, उस प्रकार उनसे कहिये ॥ ३५ ॥ जिस प्रकार मेरा सती-वियोग भंग हो, वैसा उपाय आप कीजिये । आप सभी प्रकार की विद्याओं में निपुण हैं, अतः [इस बात के लिये] दक्षप्रजापति को समझाइये ॥ ३६ ॥

ब्रह्माजी बोले — यह कहकर वे शिवजी मुझ ब्रह्मा के समीप स्थित सरस्वती को देखकर शीघ्र ही सती के वियोग के वशीभूत हो गये ॥ ३७ ॥ उनकी आज्ञा पाकर मैं कृतकृत्य और प्रसन्न हो गया तथा उन भक्तवत्सल जगत्पति से यह कहने लगा — ॥ ३८ ॥

ब्रह्माजी बोले — भगवन् ! हे शम्भो ! आपने जो कुछ कहा है, उसपर भली-भाँति विचार करके हमलोगों ने [पहले ही] उसे सुनिश्चित कर दिया है । हे वृषभध्वज ! इसमें देवताओं का और मेरा भी मुख्य स्वार्थ है । दक्ष प्रजापति स्वयं ही आपको अपनी पुत्री प्रदान करेंगे और मैं भी उनके समक्ष आपका वचन कह दूँगा ॥ ३९-४० ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] सर्वेश्वर प्रभु महादेवजी से इस प्रकार कहकर मैं अत्यन्त वेगशाली रथ से दक्ष के घर जा पहुँचा ॥ ४१ ॥

नारदजी बोले — हे प्राज्ञ ! हे महाभाग ! हे विधे ! हे वक्ताओं में श्रेष्ठ ! [तपस्या के पश्चात् ] घर लौटकर आयी हुई सती के लिये दक्ष ने क्या किया ? ॥ ४२ ॥

ब्रह्माजी बोले — तपस्या करके मनोऽभिलषित वर प्राप्तकर तथा घर जाकर सती ने माता-पिता को प्रणाम किया । तत्पश्चात् सती ने अपनी सखी के द्वारा माता-पिता से वह सारा वृत्तान्त कहलवाया, जिस प्रकार उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए महेश्वर से उन्हें वर की प्राप्ति हुई थी ॥ ४३-४४ ॥ सखी के मुंह से सारा वृत्तान्त सुनकर माता-पिता को बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने महान् उत्सव मनाया ॥ ४५ ॥ उदारचित्त दक्ष और महामनस्विनी वीरिणी ने ब्राह्मणों को उनकी इच्छा के अनुसार धन दिया और अन्धों, दीनों तथा अन्य लोगों को भी धन बाँटा ॥ ४६ ॥ प्रीति बढ़ानेवाली अपनी उस पुत्री को हृदय से लगाकर उसका मस्तक सूँघकर और आनन्दविभोर होकर वीरिणी ने बार-बार उसकी प्रशंसा की ॥ ४७ ॥

कुछ समय बीतने पर धर्मज्ञों में श्रेष्ठ दक्ष इस चिन्ता में पड़ गये कि मैं अपनी इस पुत्री को शंकर को किस प्रकार प्रदान करूँ ? ॥ ४८ ॥ महादेवजी प्रसन्न होकर मेरी पुत्री को वर देने के लिये आये थे, किंतु वे तो चले गये, अब मेरी पुत्री के लिये वे पुनः कैसे आयेंगे ? ॥ ४९ ॥ यदि मैं कि सीको उनके पास शीघ्र भेजूं, तो यह भी उचित नहीं है; क्योंकि यदि वे पुत्री को स्वीकार न करें, तो मेरी याचना निष्फल हो जायगी ॥ ५० ॥ अथवा मैं स्वयं उनका पूजन-अर्चन करूँ, जिससे कि वे मेरी पुत्री की भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं इसे ग्रहणकर इसके पति बनें ॥ ५१ ॥ उस सती के द्वारा श्रेष्ठ प्रयत्न से पूजित होकर वे भी उसको पाना चाह रहे हैं; क्योंकि वे ‘मेरे पति शिवजी हों’ – सती को यह वर दे चुके हैं ॥ ५२ ॥

इस प्रकार की चिन्ता में पड़े हुए दक्ष प्रजापति के सामने मैं सरस्वती के साथ एकाएक उपस्थित हुआ ॥ ५३ ॥ मुझ अपने पिता को देखकर प्रणाम करके दक्ष विनीत भाव से खड़े हुए और उन्होंने मुझ ब्रह्मा को यथोचित आसन दिया ॥ ५४ ॥ तत्पश्चात् चिन्ता से युक्त होनेपर भी हर्षित हुए वे दक्ष शीघ्र ही सर्वलोकेश्वर मुझ ब्रह्मा से आगमन का कारण पूछने लगे — ॥ ५५ ॥

दक्ष बोले — हे जगद्गुरो ! हे सृष्टिकर्ता ! यहाँ आपके आगमन का क्या कारण है, मेरे ऊपर महती कृपा करके उसे कहिये ॥ ५६ ॥ हे लोककारक ! आप मुझ पुत्र के स्नेहवश अथवा किसी कार्यवश मेरे आश्रम में पधारे हैं, आपके दर्शन से मुझे प्रसन्नता हो रही है ॥ ५७ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनिसत्तम ! अपने पुत्र दक्ष द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर मैं उन प्रजापति को प्रसन्न करता हुआ हँसकर कहने लगा — ॥ ५८ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे दक्ष ! मैं जिस उद्देश्य से यहाँ आपके पास आया हूँ, उसको सुनिये । जिसके करने से तुम्हारा तथा मेरा दोनों का अभीष्ट सिद्ध होगा ॥ ५९ ॥ आपकी पुत्री सती ने जगत्पति महादेवजी की आराधना करके जो वर प्राप्त किया है, उसका समय अब उपस्थित हो चुका है ॥ ६० ॥ शम्भु ने आपकी पुत्री को पत्नीरूप में प्राप्त करने के लिये ही मुझे आपके पास भेजा है । अब [आपके लिये] जो कल्याणकारी कार्य है, उसे कर डालिये ॥ ६१ ॥ जबसे रुद्र वर प्रदान करके गये हैं, तभी से आपकी पुत्री के वियोग के कारण उन शंकर को शान्ति नहीं मिल रही है ॥ ६२ ॥ कामदेव अपने समस्त पुष्पबाणों के द्वारा अनेक उपाय करके भी छिद्र न पा सकने के कारण जिन्हें जीत न सका, वे ही शिवजी अब कामबाण से विद्ध होकर अपना आत्मचिन्तन त्यागकर सती की चिन्ता करते हुए सामान्य प्राणी की भाँति व्याकुल हो रहे हैं ॥ ६३-६४ ॥

वे सुनी हुई वाणी को भी भूल जाते हैं तथा सती के वियोगवश अपने गणों के समक्ष ही ‘सती कहाँ है’ — इस प्रकार की वाणी कहते हैं और किसी काम में प्रवृत्त नहीं होते हैं । हे सुत ! मैंने, आपने, कामदेव ने तथा मरीचि आदि श्रेष्ठ मुनियों ने जो पूर्व में चाहा था, वह इस समय सिद्ध हो चुका है ॥ ६५-६६ ॥ आपकी पुत्री ने शम्भु की आराधना की है, इससे वे भी उसकी चिन्ता करते हुए उसको प्राप्त करने की इच्छा से युक्त होकर हिमालय पर्वत पर स्थित हैं । जिस प्रकार सती ने अनेक प्रकार के भावों और सात्त्विकतापूर्वक व्रत के द्वारा शिवजी की आराधना की थी, उसी प्रकार [इस समय] वे भी सती की आराधना कर रहे हैं ॥ ६७-६८ ॥ इसलिये हे दक्ष ! शिव के लिये ही रची गयी अपनी पुत्री को आप अविलम्ब उन्हें प्रदान कर दीजिये, ऐसा करने से आप कृतकृत्य हो जायँगे ॥ ६९ ॥ मैं नारद के साथ जाकर उन्हें आपके घर लाऊँगा और उन्हीं के लिये रची हुई इस सती को उन्हें अर्पित कर दीजिये ॥ ७० ॥

ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! मेरी यह बात सुनकर मेरे पुत्र दक्ष परम प्रसन्न हुए और उन्होंने अत्यन्त हर्षित होकर मुझसे कहा — ठीक है, ऐसा ही होगा ॥ ७१ ॥

उसके बाद हे मुने ! मैं अत्यन्त हर्षित हो वहाँपर गया, जहाँ लोककल्याण में तत्पर रहनेवाले शिवजी उत्सुक होकर बैठे थे ॥ ७२ ॥ हे नारद ! मेरे चले आने पर स्त्री और पुत्रीसहित दक्ष भी अमृत से परिपूर्ण हुए के समान पूर्णकाम [सफल मनोरथवाले] हो गये ॥ ७३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सती-वरलाभवर्णन नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥

 

 

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