August 12, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 19 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः उन्नीसवाँ अध्याय शिव का सती के साथ विवाह, विवाह के समय शम्भु की माया से ब्रह्मा का मोहित होना और विष्णु द्वारा शिवतत्त्व का निरूपण ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] इस प्रकार कन्यादानकर दक्ष ने भगवान् शंकर को अनेक प्रकार के उपहार दिये और ब्राह्मणों को भी बहुत-सा धन दिया ॥ १ ॥ उसके बाद लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णु शम्भु के पास जाकर हाथ जोड़कर खड़े होकर यह कहने लगे — ॥ २ ॥ विष्णु बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! हे तात ! आप सम्पूर्ण जगत् के पिता हैं और ये सती अखिल संसार की माता हैं ॥ ३ ॥ आप दोनों सत्पुरुषों के कल्याण तथा दुष्टों के दमन के लिये सदा लीलापूर्वक अवतार ग्रहण करते हैं — यह सनातन श्रुति है ॥ ४ ॥ शिवमहापुराण हे हर ! आप चिकने नीले अंजन के समान शोभावाली सती के साथ उसी प्रकार शोभा पा रहे हैं, जैसे मैं उसके विपरीत लक्ष्मी के साथ शोभा पा रहा हूँ । सती नीलवर्णा और आप गौरवर्ण हैं, उसके विपरीत मैं नीलवर्ण और लक्ष्मी गौरवर्ण हैं ॥ ५ ॥ हे शम्भो ! आप इन सती के साथ रहकर देवताओं की और सज्जन मनुष्यों की रक्षा कीजिये, जिससे संसारी जनों का सदा कल्याण होता रहे ॥ ६ ॥ हे सर्वभूतेश ! हे प्रभो ! इन सती को देखकर अथवा [इनके विषयमें] सुनकर जो कामनायुक्त हो, उसका आप वध कीजिये, यह मेरी प्रार्थना है ॥ ७ ॥ ब्रह्माजी बोले — भगवान् विष्णु का यह वचन सुनकर सर्वज्ञ परमेश्वर ने मधुसूदन से हँसकर कहा — ‘ऐसा ही होगा’ ॥ ८ ॥ हे मुनीश्वर ! उसके बाद विष्णु अपने स्थान पर आकर स्थित हो गये । उन्होंने उत्सव कराया और उस चरित्र को गुप्त ही रखा ॥ ९ ॥ तत्पश्चात् मैं देवी सती के पास आकर गृह्यसूत्र में वर्णित विधि के अनुसार सारा अग्निकार्य विधान के साथ विस्तारपूर्वक करने लगा ॥ १० ॥ इसके बाद शिवा और शिव ने प्रसन्न होकर मुझ आचार्य और द्विजों की आज्ञा से विधिपूर्वक अग्नि की प्रदक्षिणा की ॥ ११ ॥ हे द्विजसत्तम ! उस समय वहाँ बड़ा अद्भुत उत्सव मनाया गया और गीत एवं नृत्य के साथ वाद्य बजाया गया, जो सबके लिये सुखद था ॥ १२ ॥ हे तात ! उस समय [सबको] आश्चर्यचकित करनेवाला एक अद्भुत चरित्र वहाँ हुआ, उसे आपसे मैं कह रहा हूँ, आप सुनिये ॥ १३ ॥ शिवजी की माया दुर्जेय है, उसने देव, असुर तथा मनुष्योंसहित इस चराचर जगत् को पूर्णरूप से मोहित कर रखा है ॥ १४ ॥ हे तात ! पूर्वकाल में मैंने जिन शिव को कपटपूर्वक मोह में डालना चाहा था, उन्हीं शिव ने अपनी लीला से मुझे मोहित कर लिया ॥ १५ ॥ इच्छेत्परापकारं यस्स तस्यैव भवेद्ध्रुवम् । इति मत्वाऽपकारं नो कुर्यादन्यस्य पूरुषः ॥ १६ ॥ जो दूसरे का अपकार करना चाहता है, निश्चय ही पहले उसीका अपकार हो जाता है । ऐसा समझकर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे का अपकार न करे ॥ १६ ॥ हे मुने ! जिस समय सती अग्नि की प्रदक्षिणा कर रही थीं, उस समय उनके दोनों चरण वस्त्र से बाहर निकल आये थे, मैंने उन्हें देख लिया ॥ १७ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! शिवजी की माया से मोहित हुआ मैं काम से व्याप्त चित्तवाला होकर सती के दूसरे अंगों को देखने लगा ॥ १८ ॥ मैं जैसे-जैसे सती के अंगों को उत्सुकतापूर्वक देख रहा था, वैसे-वैसे प्रसन्न हो कामार्त हो रहा था ॥ १९ ॥ हे मुने ! इस प्रकार पतिव्रता दक्षपुत्री को देखकर कामाविष्ट मनवाला मैं उनके मुख को देखने का इच्छुक हो गया ॥ २० ॥ किंतु शिवजी के सामने लज्जा के कारण मैं प्रत्यक्ष सती का मुख नहीं देख सका और वे भी लज्जा से युक्त होने के कारण अपना मुख प्रकट नहीं कर रही थीं ॥ २१ ॥ तब सती का मुख देखने के लिये एक अत्यन्त सुन्दर उपाय सोचते हुए कामपीड़ित मैंने अग्नि में बहुत-सी गीली लकड़ी डालकर घोर धुआँ उत्पन्न कर दिया और उस धूमयुक्त अग्नि में घृत की थोड़ी-थोड़ी आहुति देने लगा । तब गीली लकड़ी के संयोग से चारों दिशाओं में घोर धुआँ फैल गया । इस प्रकार धूमाधिक्य होने के फलस्वरूप वेदी के चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार हो गया ॥ २२-२४ ॥ तब अनेक प्रकार की लीला करनेवाले प्रभु महेश्वर के नेत्र भी धूम से व्याकुल हो उठे और उन्होंने दोनों हाथों से अपने नेत्रों को बन्द कर लिया ॥ २५ ॥ तत्पश्चात् काम से पीड़ित मैंने प्रसन्न मन से वस्त्र हटाकर सती के मुख को देख लिया ॥ २६ ॥ हे पुत्र ! मैं सती के मुख को बार-बार देखने लगा, इस प्रकार अवश होकर मैं इन्द्रियविकार से युक्त हो गया । अपने को असंयमित देख सशंकित हो मैं आश्चर्य से चकित होकर मौन हो गया । भगवान् शिव अपनी दिव्य दृष्टि से इसे जानकर क्रोधित होकर कहने लगे — ॥ २७–३० ॥ रुद्र बोले — हे पाप ! आपने ऐसा कुत्सित कर्म क्यों किया, जो कि विवाह में रागपूर्वक मेरी स्त्री का मुख देखा ? ॥ ३१ ॥ आप समझते हैं कि शंकर इस कुत्सित कर्म को नहीं जान सकेंगे । हे विधे ! इस त्रिलोकी में कोई भी बात मुझसे अज्ञात नहीं रह सकती, तो यह बात कैसे छिपी रहेगी ? ॥ ३२ ॥ हे मूढ़ ! जिस प्रकार तिल के सभी अवयवों में तेल रहता है, उसी प्रकार तीनों लोकों में जो कुछ भी स्थावर-जंगम पदार्थ हैं, उनमें मैं रहता हूँ ॥ ३३ ॥ ब्रह्माजी बोले — तत्पश्चात् विष्णु के लिये प्रिय शंकरजी ने मुझसे यह कहकर [पूर्व में कहे गये] विष्णु के वचन का स्मरणकर शूल लेकर मुझ ब्रह्मा को मारना चाहा ॥ ३४ ॥ हे द्विजोत्तम ! मुझे मारने के लिये शिव के द्वारा त्रिशूल उठाये जाने पर [वहाँ उपस्थित] मरीचि आदि ऋषि हाहाकार करने लगे ॥ ३५ ॥ उस समय सभी देवता तथा मुनि भयभीत होकर क्रोध से जलते हुए शिवजी की स्तुति करने लगे ॥ ३६ ॥ देवगण बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! हे ईश ! आप ब्रह्मा की रक्षा कीजिये । हे महेश्वर ! कृपा कीजिये ॥ ३७ ॥ हे महेश ! आप इस संसार के पिता हैं तथा देवी सती जगत् की माता कही गयी हैं । हे सुरप्रभो ! विष्णु, ब्रह्मा आदि सभी [देवगण] आपके दास हैं ॥ ३८ ॥ आपकी आकृति तथा लीला अद्भुत है । हे प्रभो ! आपकी माया भी अद्भुत है । हे ईश्वर ! उसने आपकी भक्ति से रहित सभी को मोहित कर लिया है ॥ ३९ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार दुःखित देवता तथा मुनि क्रोध में भरे हुए देवाधिदेव महादेव की स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥ दक्ष प्रजापति ने शंकित होकर वहाँ पहुँचकर दोनों हाथ उठाकर ‘ऐसा मत कीजिये, ऐसा मत कीजिये’ — ऐसा कहते हुए शिवजी के आगे जाकर उन्हें ऐसा करने से रोका ॥ ४१ ॥ तब शिवजी अपने आगे दक्ष को आया हुआ देखकर भगवान् विष्णु की प्रार्थना का स्मरण करते हुए इस प्रकार का अप्रिय वचन कहने लगे — ॥ ४२ ॥ महेश्वर बोले — हे प्रजापते ! मेरे महान् भक्त विष्णु ने उस समय जैसा कहा था, मैंने वही करना स्वीकार भी किया था ॥ ४३ ॥ [विष्णु ने कहा था कि] ‘हे प्रभो ! जो वासनायुक्त होकर सती को देखे, उसका वध कीजिये ।’ अब मैं ब्रह्मा का वध करके विष्णु के वचन को सत्य करता हूँ ॥ ४४ ॥ ब्रह्मा ने कामनायुक्त होकर सती को क्यों देखा ? इन्होंने अत्यन्त गर्हित कर्म किया है, इसलिये अपराधी ब्रह्मा का वध मैं अवश्य करूँगा ॥ ४५ ॥ ब्रह्माजी बोले — उस समय क्रोधाविष्ट देवेश्वर महेश के ऐसा कहने पर देवता, मुनि तथा मनुष्योंसहित सभी लोग काँपने लगे ॥ ४६ ॥ चारों दिशाओं में हाहाकार मच गया और चारों ओर उदासी छा गयी । उनके द्वारा विमोहित किया गया मैं उस समय अत्यन्त व्याकुल हो उठा ॥ ४७ ॥ तब महेश के अतिप्रिय, कार्य सिद्ध करने में प्रवीण तथा बुद्धिमान् भगवान् विष्णु ने ऐसा कहनेवाले उन शिवजी की स्तुति की ॥ ४८ ॥ अनेक प्रकार के स्तोत्रों से भक्तवत्सल शिवजी की स्तुतिकर उन्हें [ब्रह्मा का वध करने से] रोकते हुए आगे जाकर उन्होंने इस प्रकार कहा — ॥ ४९ ॥ विष्णुजी बोले — हे भूतेश ! आप जगत् को उत्पन्न करनेवाले प्रभु इन ब्रह्मा का वध न करें । ये आपकी शरण में आये हैं और आप शरण में आये हुए लोगों से स्नेह करनेवाले हैं ॥ ५० ॥ मैं आपका परम प्रिय हूँ, इसीलिये मुझे भक्तराज कहा गया है । मेरे इस निवेदन को हृदय में स्वीकार करके मेरे ऊपर कृपा कीजिये ॥ ५१ ॥ [इसके अतिरिक्त] हे नाथ ! हेतुयुक्त मेरी दूसरी प्रार्थना भी सुनिये और हे महेश्वर ! मेरे ऊपर कृपा करके उसे मानिये ॥ ५२ ॥ हे शम्भो ! ये चतुरानन ब्रह्मा प्रजा की सृष्टि करने के लिये उत्पन्न हुए हैं । इनके मारे जाने पर प्रजा की सृष्टि करनेवाला कोई दूसरा नहीं है ॥ ५३ ॥ हे नाथ ! हे शिवस्वरूप ! आपकी आज्ञा से ही हम तीनों देवता सृष्टि, स्थिति और संहार का कार्य बार-बार करेंगे ॥ ५४ ॥ हे शम्भो ! उनका वध कर देने पर आपका कार्य कौन सम्पन्न करेगा ? इसलिये हे लयकर्ता विभो ! आप इन सृष्टिकर्ता का वध न करें ॥ ५५ ॥ हे विभो ! इन्होंने ही आपकी भार्या होने के लिये शिवा को दक्षकन्या सती के रूप में सत्प्रयत्न से अवतरित किया है ॥ ५६ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] विष्णु के द्वारा की गयी इस प्रार्थना को सुनकर दृढव्रत शंकरजी [वहाँ उपस्थित] सभी लोगों को सुनाते हुए [भगवान् विष्णु से] इस प्रकार कहने लगे — ॥ ५७ ॥ महेश बोले — हे देवदेव ! हे रमेश ! हे विष्णो ! हे मेरे प्राणप्रिय ! हे तात ! मुझको इसका वध करने से मत रोकिये; क्योंकि यह दुष्ट है ॥ ५८ ॥ आपकी पूर्व प्रार्थना को, जिसे मैंने स्वीकार किया था, उसे पूर्ण करूंगा । इस महापापी तथा दुष्ट चतुर्मुख ब्रह्मा का वध मैं [अवश्य] करूंगा ॥ ५९ ॥ मैं स्वयं ही सभी चराचर प्रजाओं की सृष्टि करूंगा । अथवा अपने तेज से किसी दूसरे सृष्टिकर्ता को उत्पन्न करूंगा । मैं अपनी की गयी प्रतिज्ञा को पूरा करते हुए इस ब्रह्मा का वध करके अन्य सृष्टिकर्ता को उत्पन्न करूंगा, अतः हे लक्ष्मीपते ! [इसका वध करनेसे] मुझे मत रोकिये ॥ ६०-६१ ॥ ब्रह्माजी बोले — शिवजी का यह वचन सुनकर मन्द-मन्द मुसकराते हुए ‘ऐसा मत कीजिये’ — इस प्रकार बोलते हुए भगवान् विष्णु पुनः कहने लगे — ॥ ६२ ॥ अच्युत बोले — हे प्रभो ! प्रतिज्ञा की पूर्ति तो दूसरे पुरुष में की जाती है । हे विनाश के ईश ! आप स्वयं विचार करें, वह अपने ऊपर नहीं की जाती ॥ ६३ ॥ हे शम्भो ! हम तीनों देवता आपकी ही आत्मा हैं, दूसरे नहीं । हमलोग एकरूप हैं, भिन्न नहीं हैं, इस बात को आप यथार्थ रूप से विचार कीजिये ॥ ६४ ॥ तब अपने अत्यन्त प्रिय विष्णु का वह वचन सुनकर शिवजी अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए उनसे कहने लगे — ॥ ६५ ॥ शम्भु बोले — हे विष्णो ! हे सम्पूर्ण भक्तों के ईश ! ब्रह्मा किस प्रकार मेरी आत्मा हो सकते हैं; क्योंकि ये तो प्रत्यक्ष रूप से आगे बैठे हुए मुझसे भिन्न दिखायी दे रहे हैं ? ॥ ६६ ॥ ब्रह्माजी बोले — जब सबके आगे महेश्वर ने ऐसा कहा, तब उन महादेव को सन्तुष्ट करते हुए विष्णु कहने लगे — ॥ ६७ ॥ विष्णु बोले — हे सदाशिव ! न ब्रह्मा आपसे भिन्न हैं और न तो आप ही उनसे भिन्न हैं । हे परमेश्वर ! न मैं ही आपसे भिन्न हूँ और न तो आप ही मुझसे भिन्न हैं ॥ ६८ ॥ हे सर्वज्ञ ! हे परमेश ! हे सदाशिव ! आप सब कुछ जानते हैं, किंतु आप मेरे मुख से सारी बात सभी लोगों को सुनवाना चाहते हैं ॥ ६९ ॥ हे ईश ! मैं आपकी आज्ञा से शिवतत्त्व का वर्णन कर रहा हूँ, समस्त देवता, मुनिगण तथा अन्य लोग अपने मन को एकाग्र करके सुनें ॥ ७० ॥ हम तीनों देवता प्रधान-अप्रधान तथा भाग-अभाग रूपवाले और ज्योतिर्मय-स्वरूप आप परमेश्वर के ही अंश हैं ॥ ७१ ॥ आप कौन हैं, मैं कौन हूँ और ब्रह्मा कौन हैं । आप परमात्मा के ही ये तीन अंश हैं, जो सृष्टि, पालन और संहार करने के कारण एक-दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं ॥ ७२ ॥ आप स्वयं अपने स्वरूप का चिन्तन कीजिये । आपने अपनी लीला से ही शरीर धारण किया है । आप एक, सगुण ब्रह्म हैं और हम [ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र] तीनों आपके अंश हैं ॥ ७३ ॥ हे हर ! जैसे मस्तक, ग्रीवा आदि के भेद से एक ही शरीर के [भिन्न-भिन्न] अवयव होते हैं, उसी प्रकार हम तीनों उन्हीं आप परमेश्वर के अंग हैं ॥ ७४ ॥ जो ज्योतिर्मय, आकाशस्वरूप, स्वयं ही अपना धाम, पुराण, कूटस्थ, अव्यक्त, अनन्तरूपवाला, नित्य तथा दीर्घ आदि विशेषणों से रहित ब्रह्म है, वह आप शिव ही हैं । आपसे ही सब कुछ प्रकट हुआ है ॥ ७५ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वर ! तत्पश्चात् उनकी यह बात सुनकर महादेवजी अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने मेरा वध नहीं किया ॥ ७६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सतीविवाह और शिवलीलावर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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