शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 20
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
बीसवाँ अध्याय
ब्रह्माजी का ‘रुद्रशिर’ नाम पड़ने का कारण, सती एवं शिव का विवाहोत्सव, विवाह के अनन्तर शिव और सती का वृषभारूढ़ हो कैलास के लिये प्रस्थान

नारदजी बोले — हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे महाभाग ! हे शिवभक्त ! हे श्रेष्ठ प्रभो ! हे विधे ! आपने भगवान् शिव के परम मंगलदायक तथा अद्भुत चरित्र को सुनाया ॥ १ ॥ हे तात ! उसके बाद क्या हुआ, चन्द्रमा को सिर पर धारण करनेवाले शिवजी एवं सती के दिव्य तथा सम्पूर्ण पापराशि का नाश करनेवाले चरित्र का वर्णन कीजिये ॥ २ ॥

शिवमहापुराण

ब्रह्माजी बोले — भक्तों पर अनुग्रह करनेवाले शिवजी जब मेरा वध करने से विरत हो गये, तब सभी लोग निर्भय, सुखी और प्रसन्न हो गये ॥ ३ ॥ सभी लोगों ने हाथ जोड़कर नतमस्तक हो शंकरजी को प्रणाम किया, भक्तिपूर्वक स्तुति की और प्रसन्नतापूर्वक जय-जयकार किया ॥ ४ ॥ हे मुने ! उसी समय मैंने प्रसन्न तथा निर्भय होकर अनेक प्रकार के उत्तम स्तोत्रों द्वारा शंकर की स्तुति की ॥ ५ ॥ हे मुने ! तत्पश्चात् अनेक प्रकार की लीला करनेवाले भगवान् शिव प्रसन्नचित्त होकर सभी को सुनाते हुए मुझसे इस प्रकार कहने लगे — ॥ ६ ॥

रुद्र बोले — हे ब्रह्मन् ! हे तात ! मैं प्रसन्न हूँ । अब आप निर्भय हो जाइये । आप अपने हाथ से सिर का स्पर्श करें और संशयरहित होकर मेरी आज्ञा का पालन करें ॥ ७ ॥

ब्रह्माजी बोले — अनेक लीलाएँ करनेवाले भगवान् शिवजी की इस बात को सुनकर मैंने अपने सिर का स्पर्श करते हुए उन वृषध्वज को प्रणाम किया ॥ ८ ॥ मैंने जैसे ही अपने हाथ से अपने सिर का स्पर्श किया, उसी क्षण वहाँ उसी के रूप में वृषवाहन स्थित दिखायी पडे । तब लज्जायुक्त शरीरवाला मैं नीचे की ओर मुख करके खड़ा रहा । उस समय वहाँ स्थित इन्द्र आदि देवताओं ने मुझे देखा ॥ ९-१० ॥ उसके पश्चात् लज्जा से युक्त होकर मैं शिवजी को प्रणाम करके तथा उनकी स्तुति करके ‘क्षमा कीजिये – क्षमा कीजिये’ — ऐसा कहने लगा ॥ ११ ॥
हे प्रभो ! इस पाप की शुद्धि के लिये कोई प्रायश्चित्त और उचित दण्ड कीजिये, जिससे मेरा पाप दूर हो जाय ॥ १२ ॥

इस प्रकार मेरे कहने पर भक्तवत्सल सर्वेश शम्भु अत्यन्त प्रसन्न होकर मुझ विनम्र ब्रह्मा से कहने लगे ॥ १३ ॥

शम्भु बोले — [हे ब्रह्मन् !] मुझसे अधिष्ठित इसी रूप से आप प्रसन्नचित्त होकर आराधना में संलग्न रहते हुए तप करें ॥ १४ ॥ इसीसे पृथ्वी पर सर्वत्र ‘रुद्रशिर’ नाम से आपकी प्रसिद्धि होगी और आप तेजस्वी ब्राह्मणों के सभी कार्यो को सिद्ध करनेवाले होंगे । आपने [कामके वशीभूत होकर] जो वीर्यपात किया है, वह कृत्य मनुष्यों का है, इसलिये आप मनुष्य होकर पृथ्वी पर विचरण करें ॥ १५-१६ ॥ जो तुम्हें इस रूप से देखकर यह क्या ! ब्रह्मा के सिर पर शिवजी कैसे हो गये — ऐसा कहता हुआ पृथ्वी पर विचरण करेगा और फिर जो कौतुकवश आपके सम्पूर्ण कृत्य को सुनेगा, वह परायी स्त्री के निमित्त किये गये त्याग से शीघ्र ही मुक्त हो जायगा ॥ १७-१८ ॥

लोग जैसे-जैसे आपके इस कुकृत्य का वर्णन करेंगे, वैसे-वैसे आपके इस पाप की शुद्धि होती जायगी ॥ १९ ॥ हे ब्रह्मन् ! संसार में मनुष्यों के द्वारा आपका उपहास करानेवाला तथा आपकी निन्दा करानेवाला यह प्रायश्चित्त मैंने आपसे कह दिया ॥ २० ॥ कामपीड़ित आपका जो तेज वेदी के मध्य में गिरा तथा जिसे मैंने देख लिया, वह किसी के भी धारण करनेयोग्य नहीं होगा ॥ २१ ॥ तुम्हारा जो तेज पृथ्वी पर गिरा, उससे आकाश में प्रलयंकर मेघ होंगे । उसी समय वहाँ देवर्षियों के सामने शीघ्र ही उस तेज से हे तात ! संवर्त, आवर्त, पुष्कर तथा द्रोण — नामक ये चार प्रकार के प्रलयंकारी महामेघ हो गये ॥ २२-२४ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! ये मेघ शिव की इच्छा से गरजते हुए, जल की थोड़ी-सी वर्षा करते हुए तथा भयानक शब्द करते हुए आकाश में फैल गये ॥ २५ ॥ उस समय घोर गर्जन करते हुए उन मेघों के द्वारा आकाश के आच्छादित हो जाने पर शीघ्र ही शंकरजी और सती देवी शान्त हो गये । हे मुने ! उसके बाद मैं निर्भय हो गया और शिवजी की आज्ञा से मैंने विवाह के शेष कृत्यों को यथाविधि पूर्ण किया ॥ २६-२७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समय देवताओं ने प्रसन्न होकर शिवा-शिव के मस्तक पर चारों ओर से पुष्पों की वर्षा की ॥ २८ ॥ उस समय बाजे बजने लगे, गीत गाये जाने लगे । ब्राह्मणगण भक्ति से परिपूर्ण हो वेदपाठ करने लगे ॥ २९ ॥ रम्भा आदि अप्सराएँ प्रेमपूर्वक नृत्य करने लगीं — इस प्रकार हे नारद ! देवताओं की स्त्रियों के बीच महान् उत्सव हुआ ॥ ३० ॥
तदनन्तर यज्ञकर्म का फल देनेवाले भगवान् परमेश्वर शिव प्रसन्न होकर लौकिक गति का आश्रय ले हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक मुझ ब्रह्मा से कहने लगे — ॥ ३१ ॥

ईश्वर बोले — हे ब्रह्मन् ! जो भी वैवाहिक कार्य था, उसे आपने उत्तम रीति से सम्पन्न किया है, अब मैं आपपर प्रसन्न हूँ, आप [इस वैवाहिक कृत्यके] आचार्य हैं, मैं आपको क्या दक्षिणा दूँ ? ॥ ३२ ॥ हे सुरश्रेष्ठ ! आप उसे माँगिये । वह दुर्लभ ही क्यों न हो, उसको शीघ्र कहिये । हे महाभाग ! आपके लिये मेरे द्वारा कुछ भी अदेय नहीं है ॥ ३३ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! शंकर का यह वचन सुनकर मैंने हाथ जोड़कर विनीत भाव से उन्हें बार-बार प्रणामकर कहा — ॥ ३४ ॥

हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मैं वर प्राप्त करने योग्य हूँ, तो हे महेशान ! जो मैं कह रहा हूँ, उसे आप अत्यन्त प्रसन्नता के साथ कीजिये ॥ ३५ ॥ हे महेश्वर ! आप मनुष्यों के पाप की शुद्धि के लिये इसी रूप में इस वेदी पर सदा विराजमान रहिये ॥ ३६ ॥ हे चन्द्रशेखर ! हे शंकर ! जिससे आपके सान्निध्य में अपना आश्रम बनाकर अपने इस पाप की शुद्धि के लिये मैं तपस्या करूँ ॥ ३७ ॥ चैत्रमास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी तिथि को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में रविवार के दिन इस भूतल पर जो मनुष्य आपका भक्तिपूर्वक दर्शन करेगा, हे हर ! उसके सारे पाप नष्ट हो जायँ, विपुल पुण्य की वृद्धि हो और उसके समस्त रोगों का सर्वथा नाश हो जाय । जो स्त्री दुर्भगा, वन्ध्या, कानी अथवा रूपहीन हो, वह भी आपके दर्शनमात्र से निश्चित रूप से निर्दोष हो जाय ॥ ३८-४० ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार अपने तथा सम्पूर्ण लोगों को सुख देनेवाले मुझ ब्रह्मा का वचन सुनकर प्रसन्न मन से भगवान् शंकर ने ‘तथास्तु’ कहा ॥ ४१ ॥

शिवजी बोले — हे ब्रह्मन् ! आपके कथनानुसार मैं सारे संसार के हित के लिये अपनी पत्नीसहित इस वेदी पर सुस्थिरभाव से स्थित रहूँगा ॥ ४२ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर पत्नीसहित भगवान् शिवजी अपनी अंशरूपिणी मूर्ति को प्रकटकर वेदी के मध्यभाग में विराजमान हो गये । तत्पश्चात् स्वजनों पर स्नेह रखनेवाले भगवान् सदाशिव दक्ष से विदा ले अपनी पत्नी सती के साथ [कैलास] जाने को उद्यत हुए ॥ ४३-४४ ॥

उस समय उत्तम बुद्धिवाले दक्ष ने विनयभाव से मस्तक झुकाकर हाथ जोड़ भगवान् वृषभध्वज की प्रेमपूर्वक स्तुति की । तत्पश्चात् विष्णु आदि समस्त देवताओं, मुनियों तथा गणों ने स्तुति और नमस्कारकर प्रसन्नतापूर्वक अनेक प्रकार से जय-जयकार किया ॥ ४५-४६ ॥ उसके बाद दक्ष की आज्ञा प्राप्तकर प्रसन्नतापूर्वक सदाशिव ने अपनी पत्नी सती को वृषभ पर बिठाकर और स्वयं भी वृषभ पर आरूढ़ हो हिमालय के शिखर की ओर गमन किया ॥ ४७ ॥ मन्द-मन्द मधुर मुसकानवाली तथा सुन्दर दाँतोंवाली सती शंकरजी के साथ वृषभ पर बैठी हुई चन्द्रमा में विद्यमान श्यामकान्ति की तरह शोभायमान हो रही थीं ॥ ४८ ॥

उस समय विष्णु आदि सम्पूर्ण देवता, मरीचि आदि समस्त ऋषि एवं दक्ष प्रजापति भी मोहित हो गये तथा अन्य सभी लोग चित्रलिखित-से प्रतीत हो रहे थे ॥ ४९ ॥ कुछ लोग बाजे बजाते हुए तथा कुछ लोग सुन्दर स्वर में शुद्ध तथा कल्याणकारी शिवयश का गान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक शिवजी का अनुगमन करने लगे ॥ ५० ॥ [कुछ दूर चले जानेके पश्चात् ] शिवजी ने आधे मार्ग से दक्ष को प्रेमपूर्वक लौटा दिया, फिर सदाशिव गणोंसहित प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थान को चले आये ॥ ५१ ॥ शिवजी ने विष्णु आदि सभी देवताओं को विदा भी कर दिया, फिर भी वे लोग परम भक्ति एवं प्रेम के वशीभूत हो शिवजी के साथ-साथ कैलास पर पहुँच गये ॥ ५२ ॥

उन सभी देवताओं, गणों तथा अपनी स्त्री सती के साथ भगवान् शम्भु प्रसन्न होकर हिमालय पर्वत पर सुशोभित अपने धाम में पहुँच गये ॥ ५३ ॥ वहाँ जाकर सम्पूर्ण देवताओं, मुनियों तथा अन्य लोगों का आदरपूर्वक बहुत सम्मान करके प्रसन्नतापूर्वक शिवजी ने उन्हें विदा किया ॥ ५४ ॥ तदनन्तर शम्भु की आज्ञा से विष्णु आदि सब देवता तथा मुनिगण नमस्कार और स्तुति करके प्रसन्नमुख होकर अपने-अपने धाम को चले गये ॥ ५५ ॥ लोकरीति का अनुगमन करनेवाले शिवजी भी अत्यन्त आनन्दित हो हिमालय के शिखर पर अपनी पत्नी दक्षकन्या के साथ विहार करने लगे ॥ ५६ ॥

हे मुने ! इस प्रकार सृष्टि करनेवाले वे शंकर सती तथा अपने गणों के साथ प्रसन्नतापूर्वक पर्वतों में उत्तम अपने स्थान कैलास पर चले गये ॥ ५७ ॥ हे मुने ! पूर्वकाल में स्वायम्भुव मन्वन्तर में भगवान् शिवजी का विवाह जिस प्रकार हुआ, उसका वर्णन मैंने आपलोगों से किया ॥ ५८ ॥ हे मुने ! जो विवाहकाल में, यज्ञ में अथवा किसी भी शुभकार्य के आरम्भ में भगवान् शंकर की पूजा करके शान्तचित्त होकर इस कथा को सुनता है, उसका सारा वैवाहिक कर्म बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण हो जाता है तथा दूसरे शुभ कर्म भी सदा निर्विघ्न पूर्ण होते हैं ॥ ५९-६० ॥

इस उत्तम कथा को प्रेमपूर्वक सुनकर कन्या सुख, सौभाग्य, सुशीलता, आचार तथा गुणों से युक्त हो पतिव्रता तथा पुत्रवती होती है ॥ ६१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सतीविवाहवर्णन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥

 

 

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