August 16, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 22 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः बाईसवाँ अध्याय सती और शिव का विहार-वर्णन ब्रह्माजी बोले — किसी समय वर्षाऋतु में जब श्रीमहादेवजी कैलासपर्वत के शिखर पर विराजमान थे, उस समय सती शिवजी से कहने लगीं — ॥ १ ॥ सती बोलीं — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! हे मेरे प्राणवल्लभ ! हे नाथ ! मेरे वचन को सुनिये और हे मानद ! सुन करके उसे कीजिये ॥ २ ॥ हे नाथ ! यह परम कष्टदायक वर्षाकाल आ गया है तथा अनेक वर्ण के मेघों के गर्जन से आकाश तथा दिशाएँ व्याप्त हो गयी हैं ॥ ३ ॥ कदम्ब के पराग से समन्वित, जलबिन्दुओं को लेकर बहनेवाली मनोहारिणी तथा तीव्रगतिवाली वायु प्रवाहित हो रही है ॥ ४ ॥ इस वर्षाकाल में जलसमूह की धाराओं से वृष्टि करते हुए तथा चमकती हुई बिजली की पताकावाले इन मेघों की गर्जना के कारण किसका मन विक्षुब्ध नहीं हो जाता ॥ ५ ॥ शिवमहापुराण विरहीजनों को दु:खदायी कर देनेवाला यह वर्षाकाल महाभयानक है । इस समय आकाश के मेघाच्छन्न होने के कारण दिन में न तो सूर्य का दर्शन हो पा रहा है और न तो रात्रि में चन्द्रमा ही दिखायी पड़ता है । [इस काल में] दिन भी रात्रि के समान ही प्रतीत हो रहा है ॥ ६ ॥ प्रचण्ड वायु के झोंकों के कारण मेघ शब्द करते हुए आकाश में कहीं भी स्थिर नहीं हो पा रहे हैं । हे शंकर ! ये मेघ ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे अभी लोगों के सिर पर गिर जायँगे ॥ ७ ॥ हे शंकर ! हवा के वेग से ये बड़े-बड़े वृक्ष आकाश में नाचते हुए-से प्रतीत हो रहे हैं । ये कामीजनों के लिये सुख देनेवाले तथा भीरुजनों को भयभीत करनेवाले हैं ॥ ८ ॥ काले तथा चिकने बादलोंवाले आकाश के ऊपर उड़ती हुई बकपंक्ति यमुनानदी के ऊपर बहते हुए फेन जैसी प्रतीत हो रही है ॥ ९ ॥ ईश ! काली रात्रि में बादलों में छिपा हुआ यह चन्द्रमण्डल समुद्र में प्रदीप्त हुई वडवाग्नि के समान प्रतीत हो रहा है ॥ १० ॥ हे विरूपाक्ष ! इस मन्दराचल पर्वतशिखर के प्रांगण में भी वर्षाकालीन घासे उग आयी हैं, फिर अन्य स्थानों की चर्चा ही क्या करूं ? ॥ ११ ॥ मन्दराचल पर आश्रय ग्रहण करनेवाले इन काले, श्वेत तथा रक्तवर्ण के मेघों से यह विशाल हिमालय इस प्रकार प्रतीत हो रहा है, जैसे पत्तों से पूर्ण दुग्ध का समुद्र हो ॥ १२ ॥ श्री (शोभा) सभी वृक्षों को त्यागकर केवल विषमता से किंशुक वृक्षों को शोभित कर रही है, जिस प्रकार महालक्ष्मी कलियुग में सज्जनों को त्यागकर सभी ऊँचे-नीचे पुरुषों को प्राप्त होती हैं ॥ १३ ॥ मन्दराचल पर्वत के शिखर पर वास करनेवाले बादलों के शब्द से हर्षित होकर मोर वन में अपनी पीठ दिखाकर नृत्य कर रहे हैं ॥ १४ ॥ मेघों के लिये उत्सुक इन चातकों की मधुर ध्वनि इस वर्षाकाल में सुनायी पड़ रही है और पथिकगण तीव्र जल-वर्षा के कारण रास्ते में होनेवाली थकान को दूर कर रहे हैं । हे शंकर ! मेरी देह पर मेघों द्वारा ओले गिराये जाने से उत्पन्न हुई इस दुर्नीति को देखिये, जो अपने अनुगामी मोर तथा चातकों पर भी उपल की वर्षाकर उन्हें ओलों से आच्छादित कर रहे हैं ॥ १५-१६ ॥ हे गिरिश ! मोर तथा सारंग भी अपने मित्र (बादल) —से पराभव को प्राप्तकर दूर होने पर भी हर्षपूर्वक मानसरोवर को चले जा रहे हैं ॥ १७ ॥ [हे सदाशिव!] इस विषम परिस्थिति में [केवल] आपको छोड़कर कौआ और चकोर पक्षी भी अपना घोंसला बना रहे हैं । अब आप ही बताइये, घर के बिना आप किस प्रकार शान्ति प्राप्त करेंगे ? ॥ १८ ॥ हे पिनाकधारिन् ! मुझे इन मेघों से बहुत बड़ा भय उत्पन्न हो गया है, इसलिये मेरे कहने से निवास के लिये शीघ्र ही घर बनाने का प्रयत्न कीजिये ॥ १९ ॥ हे वृषभध्वज ! आप कैलासपर्वत पर, हिमालय पर अथवा महाकोशी पर या पृथ्वी पर अपने योग्य निवासस्थान बनाइये ॥ २० ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] इस प्रकार दक्षकन्या सती के द्वारा बार-बार कहे जाने पर शिवजी अपने सिर पर स्थित चन्द्रमा के प्रकाशपुंज के समान उज्ज्वल मुख से हँसने लगे ॥ २१ ॥ तदनन्तर मुसकराहट के कारण खुले ओठोंवाले वे सर्वतत्त्वज्ञाता महात्मा परमेश्वर महादेवजी सती को प्रसन्न करते हुए कहने लगे — ॥ २२ ॥ ईश्वर बोले — हे मनोहरे ! हे मेरी प्रिये ! तुम्हारी प्रीति के लिये मैं तुम्हारे रहने के योग्य निवासस्थान उस जगह पर बना दूंगा, जहाँ मेघ कभी भी नहीं जा सकेंगे ॥ २३ ॥ हे मनोहरे ! वर्षाकाल में भी ये मेघ हिमालय पर्वत (मध्य भाग)-के नीचे ही नीचे घूमते रहते हैं ॥ २४ ॥ उसी प्रकार हे देवि ! ये मेघ इस कैलासपर्वत के भी नीचे-ही-नीचे घूमते हैं, कैलास पर्वत के ऊपर नहीं जाते हैं ॥ २५ ॥ पुष्कर, आवर्तक आदि मेघ भी जम्बू के मूलभाग तक ही रह जाते हैं । ये जम्बू के ऊपर रहनेवाले सुमेरु पर्वत के शिखर पर नहीं जाते हैं ॥ २६ ॥ हे प्रिये ! इन वर्णित पर्वतों में जिस पर्वत पर तुम्हारी निवास करने की इच्छा हो, उस पर्वत को शीघ्र ही बताओ ॥ २७ ॥ इस हिमालय पर्वत पर निवास करने से स्वच्छन्द विहार करनेवाले सुवर्ण के सदृश पंखवाले ये अनिल नामक पक्षिसमूह ऊँचे-ऊँचे मधुर शब्दों से तुम्हारे कौतुक (केलिक्रीडा)-का गान करेंगे ॥ २८ ॥ सिद्धों की कमनीय स्त्रियाँ मणियों के द्वारा कूटकर बनायी गयी इस हिमालय की भूमि पर स्वेच्छा-विहारकाल में कौतुक से तुम्हारे बैठने के लिये आसन का निर्माणकर स्वच्छ पृथिवी को तुम्हारे लिये अर्पण करेंगी और अनेक प्रकार के फल-मूल आदि लाकर देने की इच्छा करेंगी ॥ २९ ॥ नागकन्याएँ, पर्वतकन्याएँ एवं तुरंगमुखी किन्नरियाँ ये सभी मन को मोहनेवाले अपने हाव-भाव से सदैव तुम्हारी सहायता करेंगी ॥ ३० ॥ तुम्हारे इस अतुलनीय रूप तथा मनोहारी मुख को देखकर वहाँ की स्त्रियाँ अपने पति के लिये मनोहर लगनेवाले शरीर, अपने रूप तथा गुणों को धिक्कार करेंगी तथा तुम्हारी ओर निरन्तर देखती रहेंगी ॥ ३१ ॥ पर्वतराज हिमालय की पत्नी मेनका, जो अपने रूप तथा गुण से त्रिलोक में विख्यात हैं, वे भी तुम्हारे मनोऽनुकूल ऐश्वर्य, आशीर्वाद तथा प्रार्थना से तुम्हें प्रसन्न करना चाहेंगी ॥ ३२ ॥ गिरिराज से वन्दना के योग्य समस्त पुरजन तुम्हें प्रसन्न करने का सदा प्रयत्न करेंगे और यदि अत्यन्त उदाररूपा तुमको कभी शोक हुआ तो वे लोग तुम्हें शिक्षा देंगे तथा अपने गुणों से प्रसन्न रखेंगे ॥ ३३ ॥ हे प्रिये ! कोकिलों के विचित्र मधुर आलापों से परिपूर्ण कुंजसमूहों से आवृत स्थान में जहाँ वसन्त की उत्पत्ति का स्थान है, क्या तुम उस स्थान में जाना चाहती हो ? ॥ ३४ ॥ जहाँ विविध प्रकार के अनेक तालाब सैकड़ों कमलिनियों से समन्वित शीतल जल से परिपूर्ण हैं, जहाँ अश्व, हाथी तथा गौओं का निवास है, हे देवि ! वहाँ सभी प्रकार की कामनाओं को प्रदान करनेवाले कल्पसंज्ञक वृक्षों से घिरे हुए सुन्दर मनोहारी पुष्पों को तथा हरे-भरे नवीन घास के मैदानों को प्रफुल्लित नेत्रों से देखना । हे महामाये ! इस प्रकार के उस हिमालय पर हिंसक जन्तुगण भी शान्तिपूर्वक निवास करते हैं, वह अनेक प्रकार के मृगगणों से युक्त है, वहाँ पर स्थित देवालयों में मुनियों तथा यतियों का निवास है ॥ ३५-३७ ॥ उस पर्वत के शिखर स्फटिक, सुवर्ण एवं चाँदी से व्याप्त हैं, वह मानसादि सरोवरों से चारों ओर से सुशोभित है । वह सुवर्ण से बने हुए, रत्नों के दण्डवाले अधखिले कमलों से व्याप्त है । शिशुमार एवं असंख्य कच्छप एवं मकरों से वह मानसरोवर परिव्याप्त है ॥ ३८-३९ ॥ वह मनोहर नीलकमलों और उत्पलकमलों से शोभित है । हे देवेशि ! वह [कमलपुष्पों से] गिरते हुए सुगन्धित कुंकुमों से व्याप्त है । गन्धों से समन्वित स्वच्छ जलों से वह मानसरोवर पूर्ण है । मानसरोवर का तट हरे-भरे, ऊँचे एवं नवीन घासवाले भूमिभाग से सुशोभित है । यहाँ के शाखोटके वृक्ष इस प्रकार प्रतीत हो रहे हैं, जैसे अपनी शाखा को हिलाकर नृत्य कर रहे हों । अपनी इच्छा के अनुसार अनेक प्रकार के रूप धारण करनेवाले देवताओं, सारसों एवं मतवाले चक्रवाकों से मानसरोवर सुशोभित हो रहा है ॥ ४०-४२ ॥ परम आनन्द को प्रदान करनेवाले भौंरों के मधुर शब्दों से गुंजित वह मानसरोवर महान् उद्दीपन करनेवाला है ॥ ४३ ॥ मेरुपर्वत के ऊँचे शिखर पर इन्द्र, कुबेर, यम, वरुण, अग्नि, निति, वायु तथा ईशान की पुरियाँ हैं, जहाँ देवताओं का निवासस्थान है । रम्भा, शची एवं मेनकादि अप्सराओं से वह मेरुशिखर सुशोभित है ॥ ४४-४५ ॥ [हे देवि !] क्या तुम उन समस्त पर्वतों के राजा तथा पृथिवी के सारभूत महारम्य सुमेरु पर्वत पर विहार करना चाहती हो ? ॥ ४६ ॥ वहाँ [निवास करनेसे] सखियों एवं अप्सराओं सहित शची देवी तुम्हारी उचित सहायता करेंगी ॥ ४७ ॥ अथवा तुम मेरे आश्रयभूत कैलास पर, जो पर्वतेन्द्र के नाम से विख्यात है, उसपर निवास करना चाहती हो, जहाँ पर कुबेर की अलकापुरी है । जहाँ गंगा की जलधारा बह रही है, जो स्वयं पूर्णचन्द्र के समान समुज्ज्वल है । और जिस कैलास की कन्दराओं तथा शिखरों पर ब्रह्मकन्याएँ मनोहर गान करती हैं ॥ ४८-४९ ॥ यह कैलास अनेक प्रकार के मृगगणों के समूहों से युक्त, सैकड़ों कमलों से परिपूर्ण एवं सुमेरुपर्वत की अपेक्षा समस्त गुणों से युक्त तथा सुन्दर है ॥ ५० ॥ [हे देवि!] इन स्थानों में जहाँ कहीं भी तुम्हारी रहने की इच्छा हो, उस स्थान को शीघ्र मुझे बताओ । मैं वहाँ पर तुम्हारे निवासस्थान का निर्माण करूंगा ॥ ५१ ॥ ब्रह्माजी बोले — शंकर के इस प्रकार कहने पर सतीदेवी अपने निवासभूत स्थान का लक्षण इस प्रकार कहने लगीं — ॥ ५२ ॥ सती बोलीं — हे देव ! मैं आपके साथ इस पर्वतराज हिमालय पर ही निवास करना चाहती हूँ, आप इसी पर्वत पर शीघ्रतापूर्वक निवासस्थान का निर्माण कीजिये ॥ ५३ ॥ ब्रह्माजी बोले — सती द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर शंकरजी अत्यधिक मोहित हो गये और सती को साथ लेकर हिमालयपर्वत के ऊँचे शिखर पर चले गये ॥ ५४ ॥ सिद्धांगनाओं से युक्त, पक्षियों से सर्वथा अगम्य, अनेक छोटी-छोटी बावलियों से युक्त, विचित्र कमलों से चित्रित और प्रातःकालीन सूर्य के समान सुशोभित उस शिखर पर शिवजी सती देवी के साथ चले गये ॥ ५५-५६ ॥ वह स्फटिकमणि के समान समुज्ज्वल, हरे-भरे वृक्षों से तथा घासों से परिपूर्ण, विचित्र पुष्पोंवाली बावलियों से युक्त था, उस शिखर के वृक्षों की शाखाओं का अग्रभाग विकसित पुष्पों से शोभित था, भौंरे गुंजार कर रहे थे, वह नील एवं अनेक वर्ण के कमलों से परिव्याप्त था ॥ ५७-५८ ॥ चक्रवाक, कदम्ब, हंस, शुक, सारस और नीली गर्दनवाले क्रौंच पक्षियों के शब्दों से वह शिखर शब्दायमान हो रहा था ॥ ५९ ॥ उस शिखर पर पुंस्कोकिल मनोहर शब्द कर रहे थे, वह अनेक प्रकार के गणों, किन्नरियों, सिद्धों, अप्सराओं तथा गुह्यकों से सेवित था ॥ ६० ॥ विद्याधरियाँ, देवियाँ तथा किन्नरियाँ वहाँ विहार कर रही थीं तथा पर्वतीय स्त्रियों एवं कन्याओं से वह युक्त था ॥ ६१ ॥ वीणा, सितार, मृदंग एवं पटह के वाद्ययन्त्रों पर नृत्य एवं कौतुक करती हुई अप्सराओं के समूह से वह शिखर सुशोभित हो रहा था ॥ ६२ ॥ देविकाओं, दीर्घिकाओं, खिले हुए तथा सुगन्धित पुष्पों और निकुंजों से वह शोभायमान हो रहा था ॥ ६३ ॥ इस प्रकार की शोभा से युक्त पर्वतराज हिमालय के शिखर पर शंकरजी सती देवी के साथ बहुत काल तक रमण करते रहे ॥ ६४ ॥ महादेवजी उस स्वर्ग के समान दिव्य स्थान में सती के साथ देवताओं के वर्ष के गणनानुसार दस हजार वर्ष तक प्रसन्नतापूर्वक विहार करते रहे ॥ ६५ ॥ वे कभी उस स्थान को छोड़कर सती के साथ किसी दूसरे स्थान पर चले जाते थे और कभी देवी-देवताओं से व्याप्त मेरु शिखर पर चले जाते थे ॥ ६६ ॥ इस पृथ्वीतल के अनेक प्रकार के द्वीपों, उद्यानों एवं वनों में जाकर पुनः वहाँ आकर सती के साथ रमण करने लगते थे ॥ ६७ ॥ शिवजी का मन यज्ञ, ब्रह्म तथा समाधि में नहीं लगता था, वे शम्भु दिन-रात मन से सती में ही प्रीति करते रहते थे ॥ ६८ ॥ इसी प्रकार सती भी निरन्तर महादेवजी के मुख का अवलोकन करती रहती थीं और शिवजी भी सती के मुख को देखते रहते थे ॥ ६९ ॥ इस प्रकार वे शिव तथा सती परस्पर के संयोग से स्नेहरूपी जलद्वारा अनुरागरूपी वृक्ष को सिंचितकर बढ़ाने लगे ॥ ७० ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में शिवा-शिवविहारवर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥ Related