August 16, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 25 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः पच्चीसवाँ अध्याय श्रीशिव के द्वारा गोलोकधाम में श्रीविष्णु का गोपेश के पद पर अभिषेक, श्रीराम द्वारा सती के मन का सन्देह दूर करना, शिव द्वारा सती का मानसिक रूप से परित्याग राम बोले — देवि ! प्राचीन काल में एक समय परम स्रष्टा भगवान् शम्भु ने अपने परम धाम में विश्वकर्मा को बुलाकर उनके द्वारा अपनी गोशाला में एक विस्तृत तथा रमणीय भवन बनवाया और उसमें एक श्रेष्ठ सिंहासन का भी निर्माण कराया ॥ १-२ ॥ उस सिंहासन पर भगवान् शंकर ने विघ्ननिवारणार्थ विश्वकर्मा द्वारा एक छत्र बनवाया, जो बहुत ही दिव्य, सदा के लिये अद्भुत और परम उत्तम था ॥ ३ ॥ उसके बाद उन्होंने इन्द्र आदि देवगणों, सिद्धों, गन्धर्वो, नागों तथा सम्पूर्ण उपदेवों को भी शीघ्र वहाँ बुलवाया । समस्त वेदों, आगमों, ब्रह्माजी के पुत्रों, मुनियों तथा अप्सराओं सहित अनेक प्रकार की वस्तुओं से युक्त समस्त देवियों को भी आमन्त्रित किया ॥ ४-५ ॥ शिवमहापुराण [इनके अतिरिक्त] देवताओं, ऋषियों, सिद्धों और नागों की मंगलकारिणी सोलह-सोलह कन्याओं को भी बुलवाया । हे मुने ! उन्होंने वीणा, मृदंग आदि नाना प्रकार के वाद्यों को बजवाकर सुन्दर गीतों द्वारा महान् उत्सव कराया ॥ ६-७ ॥ सम्पूर्ण औषधियों के साथ राज्याभिषेक के योग्य द्रव्य, प्रत्यक्ष तीर्थों के जलों से भरे हुए पाँच कलश तथा बहुत-सी दिव्य सामग्रियों को भगवान् शंकर ने अपने पार्षदों द्वारा मँगवाया और वहाँ उच्च स्वर से वेदमन्त्रों का घोष करवाया ॥ ८-९ ॥ हे देवि ! भगवान् विष्णु की पूर्ण भक्ति से महेश्वरदेव सदा प्रसन्न रहते हैं । इसलिये प्रसन्नचित्त होकर वैकुण्ठधाम से श्रीहरि को बुलाकर शुभ मुहूर्त में उन्हें श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठाकर महादेवजी ने स्वयं ही प्रेमपूर्वक उन्हें सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया ॥ १०-११ ॥ उनके मस्तक पर मनोहर मुकुट बाँधकर और उत्सव मंगलाचार करके महेश्वर ने स्वयं ब्रह्माण्डमण्डप में श्रीहरि का अभिषेक किया और उन्हें अपना वह सारा ऐश्वर्य प्रदान किया, जो वे दूसरों को नहीं देते थे । तदनन्तर भक्तवत्सल स्वतन्त्र शम्भु ने श्रीहरि का स्तवन किया । तत्पश्चात् अपनी पराधीनता (भक्तपरवशता)-को सर्वत्र प्रसिद्ध करते हुए लोककर्ता ब्रह्माजी से कहा — ॥ १२–१४ ॥ महेश्वर बोले — लोकेश ! आज से मेरी आज्ञा के अनुसार ये विष्णु हरि स्वयं मेरे वन्दनीय हो गये, इस बात को सभी सुन लें । हे तात ! आप सम्पूर्ण देवता आदि के साथ इन श्रीहरि को प्रणाम कीजिये और ये वेद मेरी आज्ञा से मेरी ही तरह इन श्रीहरि का वर्णन करें ॥ १५-१६ ॥ श्रीराम बोले — विष्णु की भक्ति से प्रसन्नचित्त हुए वरदायक भक्तवत्सल रुद्रदेव ने ऐसा कहकर स्वयं ही गरुडध्वज श्रीहरि को प्रणाम किया । तदनन्तर ब्रह्मा आदि देवताओं, अन्य सभी देवों, मुनियों और सिद्धों आदि ने भी उस समय श्रीहरि की वन्दना की ॥ १७-१८ ॥ इसके बाद अत्यन्त प्रसन्न हुए भक्तवत्सल महेश्वर ने देवताओं के समक्ष श्रीहरि को महान् वर प्रदान किये ॥ १९ ॥ महेश्वर बोले — [हे हरे!] आप मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण लोकों के कर्ता, पालक, संहारक, धर्म-अर्थ-काम के दाता तथा अन्याय करनेवालों को दण्ड देनेवाले होंगे । आप महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न, जगत्पूज्य, जगदीश्वर होंगे और कहीं-कहीं मुझसे भी अजेय होंगे ॥ २०-२१ ॥ आप मुझसे मेरी दी हुई तीन प्रकार की ये शक्तियाँ ग्रहण करें —इच्छा आदि की सिद्धि, अनेक प्रकार की लीलाओं को प्रकट करने की शक्ति और तीनों लोकों में नित्य स्वतन्त्र रहने की शक्ति ॥ २२ ॥ हे हरे ! आपसे द्वेष करनेवाले निश्चय ही मेरे द्वारा प्रयत्नपूर्वक दण्डनीय होंगे । हे विष्णो ! मैं आपके भक्तों को उत्तम मोक्ष प्रदान करूँगा ॥ २३ ॥ आप इस माया को भी ग्रहण करें, जिसका निवारण करना देवता आदि के लिये भी कठिन है और जिससे मोहित होने पर यह विश्व जड़रूप हो जायगा ॥ २४ ॥ हरे ! आप मेरी बायीं भुजा हैं और विधाता दाहिनी भुजा हैं । आप इन विधाता के भी उत्पादक और पालक होंगे ॥ २५ ॥ मेरे हृदयरूप जो रुद्र हैं, वही मैं हूँ, इसमें संशय नहीं है । वे रुद्र आपके और ब्रह्मा आदि देवताओं के भी निश्चय ही पूज्य हैं । आप यहाँ रहकर अनेक प्रकार की लीलाएँ करनेवाले अपने विभिन्न अवतारों द्वारा विशेषरूप से सम्पूर्ण जगत् का पालन करें ॥ २६-२७ ॥ मेरे लोक में आपका यह परम वैभवशाली और अत्यन्त उज्ज्वल स्थान गोलोक नाम से विख्यात होगा ॥ २८ ॥ हे हरे ! भूतलपर जो आपके अवतार होंगे, वे सबके रक्षक और मेरे भक्त होंगे । मैं उनका दर्शन करूँगा । वे मेरे वरसे सदा प्रसन्न रहेंगे ॥ २९ ॥ श्रीरामजी बोले — इस प्रकार श्रीहरि को अपना अखण्ड ऐश्वर्य प्रदानकर उमापति भगवान् हर स्वयं कैलासपर्वत पर रहते हुए अपने पार्षदों के साथ स्वच्छन्द क्रीड़ा करने लगे । तभीसे भगवान् लक्ष्मीपति ने गोपवेश धारण कर लिया और वे गोप-गोपी तथा गौओं के अधिपति होकर बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ रहने लगे ॥ ३०-३१ ॥ वे विष्णु भी प्रसन्नचित्त होकर समस्त जगत् की रक्षा करने लगे । वे शिवजी की आज्ञा से नाना प्रकार के अवतार धारण करके जगत् का पालन करने लगे ॥ ३२ ॥ इस समय वे श्रीहरि भगवान शंकर की आज्ञा से चार रूपों में अवतीर्ण हुए हैं । उनमें एक मैं राम हूँ और भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं ॥ ३३ ॥ हे देवि ! हे सति ! मैं पिता की आज्ञा से सीता और लक्ष्मण के साथ वन में आया हूँ और भाग्यवश इस समय मैं दुखी हूँ । यहाँ किसी निशाचर ने मेरी पत्नी का हरण कर लिया है और मैं विरही होकर भाई के साथ वन में अपनी प्रिया की खोज कर रहा हूँ ॥ ३४-३५ ॥ हे सति ! हे मातः ! जब आपका दर्शन प्राप्त हो गया, तब आपकी कृपा से सर्वथा मेरा कुशल ही होगा, इसमें सन्देह नहीं है । हे देवि ! आपका दर्शन मेरे लिये सीता-प्राप्ति का वरस्वरूप होगा, आपकी कृपा से उस दुःख देनेवाले पापी राक्षस को मारकर मैं सीता को प्राप्त कर लूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३६-३७ ॥ आज मेरा महान् सौभाग्य है, जो आप दोनों ने मुझपर कृपा की । जिसपर आप दोनों दयार्द्र हो जायँ, वह पुरुष धन्य और श्रेष्ठ है ॥ ३८ ॥ इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर कल्याणमयी सती देवी को प्रणाम करके रघुकुलशिरोमणि श्रीराम उनकी आज्ञा से उस वन में विचरने लगे । पवित्र हृदयवाले राम की शिव-भक्तिपरायण तथा शिवप्रशंसापरक बात सुनकर सती मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुईं ॥ ३९-४० ॥ [तदनन्तर] अपने कर्म को याद करके उनके मन में बड़ा शोक हुआ । उनकी अंगकान्ति फीकी पड़ गयी और वे उदास होकर शिवजी के पास लौट आयीं ॥ ४१ ॥ मार्ग में जाती हुई देवी सती बारम्बार चिन्ता करने लगीं कि मैंने भगवान् शिव की बात नहीं मानी और श्रीराम के प्रति कुत्सित बुद्धि कर ली । अब शंकरजी के पास जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगी, इस प्रकारके विचार करनेपर उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ ॥ ४२-४३ ॥ शिवजी के पास जाकर उन सती ने उन्हें हृदय से प्रणाम किया । उनके मुख पर विषाद छा गया । वे शोक से व्याकुल और निस्तेज हो गयी थीं ॥ ४४ ॥ सती को दुखी देखकर भगवान् हर ने उनका कुशलक्षेम पूछा और प्रेमपूर्वक कहा — तुमने किस प्रकार उनकी परीक्षा ली ? शिवजी की यह बात सुनकर मैंने कोई परीक्षा नहीं ली — ऐसा कहकर वे सती सिर झुकाये शोकाकुल होकर उनके पास खड़ी हो गयीं ॥ ४५-४६ ॥ इसके बाद महायोगी तथा अनेकविध लीला करने में प्रवीण भगवान् महेश्वर ने मन में ध्यान लगाकर दक्षपुत्री सती का सारा चरित्र जान लिया ॥ ४७ ॥ उन्हें अपनी उस प्रतिज्ञा का स्मरण हो आया, जिसे हरि के विशेष आग्रह करने पर मर्यादा-प्रतिपालक उन रुद्र ने विवाह के लिये देवताओं के द्वारा निवेदन किये जाने पर पूर्व में किया था । उन महाप्रभु के मन में विषाद उत्पन्न हो गया । तब धर्मवक्ता, धर्मकर्ता तथा धर्मरक्षक प्रभु ने अपने मन में कहा — ॥ ४८-४९ ॥ शिवजी बोले — यदि मैं सती से अब पूर्ववत् स्नेह करूँ, तो लोकलीला का अनुसरण करनेवाले मुझ शिव की महान् प्रतिज्ञा ही नष्ट हो जायगी ॥ ५० ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार मन में अनेक तरह से विचारकर वेद और धर्म के प्रतिपालक शंकरजी ने हृदय से सती का त्याग कर दिया, किंतु अपनी प्रतिज्ञा को नष्ट नहीं किया । तत्पश्चात् परमेश्वर शिवजी मन से सती को त्यागकर अपने कैलासपर्वत की ओर चल दिये । उन प्रभु ने अपने निश्चय को किसी के सामने प्रकट नहीं किया ॥ ५१-५२ ॥ मार्ग में जाते हुए महेश्वर को, अन्य सबको तथा विशेषकर सती को सुनाते हुए आकाशवाणी हुई ॥ ५३ ॥ आकाशवाणी बोली — हे परमेश्वर ! आप धन्य हैं, इस त्रिलोकी में आपके समान कोई भी नहीं है, जिसने आजतक ऐसी प्रतिज्ञा की हो, आप महायोगी तथा महाप्रभु हैं ॥ ५४ ॥ ब्रह्माजी बोले — यह आकाशवाणी सुनकर कान्ति से हीन देवी सती ने शिव से पूछा — हे नाथ ! आपने कौनसी प्रतिज्ञा की है ? हे परमेश्वर ! मुझे बताइये ॥ ५५ ॥ सती के इस प्रकार पूछने पर भी सबका हित करनेवाले प्रभु ने पहले अपने विवाह के विषय में भगवान् विष्णु के सामने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे नहीं बताया ॥ ५६ ॥ हे मुने ! उस समय सती अपने प्राणवल्लभ पति भगवान् शिव का ध्यान करके प्रियतम के द्वारा अपने त्याग-सम्बन्धी समस्त कारण को जान गयीं ॥ ५७ ॥ शम्भु ने मेरा त्याग किया है — इस बात को जानकर दक्षकन्या सती बार-बार श्वास भरती हुईं शीघ्र ही अत्यन्त शोक में डूब गयीं, बारम्बार सिसकने लगीं ॥ ५८ ॥ सती के मनोभाव को जानकर प्रभु शिव ने उनके लिये जो प्रतिज्ञा की थी, उसे गुप्त ही रखा और वे दूसरी बहुत-सी कथाएँ कहने लगे ॥ ५९ ॥ इस प्रकार नाना प्रकार की कथाएँ कहते हुए वे सती के साथ कैलास पर जा पहुँचे और श्रेष्ठ आसन पर स्थित हो समाधि लगाकर अपने स्वरूप का ध्यान करने लगे । सती अत्यन्त व्याकुलचित्त होकर अपने धाम में रहने लगीं । हे मुने ! शिवा और शिव के उस चरित्र को किसी ने नहीं जाना । हे महामुने ! इस प्रकार स्वेच्छा से शरीर धारण करके लोक-लीला का अनुसरण करनेवाले उन दोनों प्रभुओं का बहुत काल व्यतीत हो गया ॥ ६०-६२ ॥ तत्पश्चात् उत्तम लीला करनेवाले महादेवजी ने ध्यान तोड़ा —यह जानकर जगदम्बा सती वहाँ आयीं और उन्होंने व्यथित हृदय से शिव को प्रणाम किया । उदार चित्तवाले शम्भु ने उन्हें अपने सामने [बैठने के लिये] आसन दिया और वे बड़े प्रेम से बहुत-सी मनोरम कथाएँ कहने लगे । उन्होंने वैसी ही लीला करके सती के शोक को तत्काल दूर कर दिया ॥ ६३-६५ ॥ वे पूर्ववत् सुखी हो गयीं, फिर भी शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ा । हे तात ! परमेश्वर शिवजी के विषय में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं समझनी चाहिये । हे मुने ! मुनि लोग शिव और शिवा की ऐसी ही कथा कहते हैं । कुछ मूर्ख लोग उन दोनों में वियोग मानते हैं, परंतु उनमें वियोग कैसे सम्भव है ! ॥ ६६-६७ ॥ शिवा और शिव के वास्तविक चरित्र को कौन जान सकता है ? वे दोनों सदा अपनी इच्छा से क्रीड़ा करते और [ भाँति-भाँति की] लीलाएँ करते हैं । सती और शिव वाणी और अर्थ की भाँति एक-दूसरे से नित्य संयुक्त हैं । उन दोनों में वियोग होना असम्भव है, उनकी इच्छा से ही लीला में वियोग हो सकता है ॥ ६८-६९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सतीवियोगवर्णन नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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