August 18, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 27 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः सत्ताईसवाँ अध्याय दक्षप्रजापति द्वारा महान् यज्ञ का प्रारम्भ, यज्ञ में दक्ष द्वारा शिव के न बुलाये जाने पर दधीचि द्वारा दक्ष की भर्त्सना करना, दक्ष के द्वारा शिव-निन्दा करने पर दधीचि का वहाँ से प्रस्थान ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! एक समय दक्ष ने एक बड़े महान् यज्ञ का प्रारम्भ किया और दीक्षा प्राप्त उसने उस यज्ञ में सभी देवताओं तथा ऋषियों को बुलाया ॥ १ ॥ शिव की माया से विमोहित होकर सभी महर्षि तथा देवता यज्ञ को सम्पन्न कराने के लिये आये ॥ २ ॥ अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि, भगवान् व्यास, भारद्वाज, गौतम, पैल, पराशर, गर्ग, भार्गव, ककुभ, सित, सुमन्तु, त्रिक, कंक और वैशम्पायन — ये सब तथा अन्य बहुत-से मुनि अपने स्त्री-पुत्रों को साथ लेकर मेरे पुत्र दक्ष के यज्ञ में हर्षपूर्वक गये ॥ ३-५ ॥ [इनके अतिरिक्त] समस्त देवगण, महान् अभ्युदयशाली लोकपालगण और सभी उपदेवता अपनी उपकारक सैन्यशक्ति के साथ वहाँ आये थे । दक्ष ने प्रार्थना करके पुत्र, परिवार और मूर्तिमान् वेदोंसहित मुझ विश्वस्रष्टा ब्रह्मा को भी सत्यलोक से बुलवाया था ॥ ६-७ ॥ शिवमहापुराण इसी तरह भाँति-भाँति से सादर प्रार्थना करके वैकुण्ठलोक से पार्षदों और परिवारसहित भगवान् विष्णु भी उस यज्ञ में बुलाये गये थे । इसी प्रकार अन्य लोग भी विमोहित होकर दक्ष के यज्ञ में आये और दुरात्मा दक्ष ने उन सबका बड़ा सत्कार किया । विश्वकर्मा के द्वारा बनाये गये अत्यन्त दीप्तिमान्, विशाल, बहुमूल्य तथा दिव्य भवन दक्ष ने उन्हें [ठहरनेके लिये] दिये थे ॥ ८-१० ॥ उन भवनों में मेरे तथा विष्णु के साथ वे सभी [देव, महर्षिगण] दक्ष से यथायोग्य सम्मानित हो अपने-अपने स्थानों पर स्थिर होकर शोभित होने लगे । उस समय कनखल नामक तीर्थ में आरम्भ हुए उस महायज्ञ में दक्ष ने भृगु आदि तपोधनों को ऋत्विज बनाया ॥ ११-१२ ॥ सम्पूर्ण मरुद्गणों के साथ स्वयं भगवान् विष्णु [उस यज्ञ के] अधिष्ठाता बने और मैं वेदत्रयी की विधि को बतानेवाला ब्रह्मा बना था । इसी तरह सम्पूर्ण दिक्पाल अपने आयुधों और परिवारों के साथ द्वारपाल एवं रक्षक बने थे, वे सदा कौतूहल पैदा करते थे ॥ १३-१४ ॥ स्वयं यज्ञदेव सुन्दर रूप धारण करके उनके यज्ञ में उस समय उपस्थित थे और बड़े-बड़े श्रेष्ठ मुनिलोग स्वयं वेदों को धारण किये हुए थे । अग्नि ने भी उस यज्ञमहोत्सव में शीघ्र ही हविष्य ग्रहण करने के लिये अपने हजारों रूप प्रकट किये थे ॥ १५-१६ ॥ वहाँ अठासी हजार ऋत्विज एक साथ हवन करते थे । चौंसठ हजार देवर्षि उस यज्ञ में उद्गाता थे । अध्वर्यु एवं होता भी उतने ही थे । नारद आदि देवर्षि और सप्तर्षि पृथक्-पृथक् गाथा-गान कर रहे थे ॥ १७-१८ ॥ दक्ष ने अपने उस महायज्ञ में गन्धर्वो, विद्याधरों, सिद्धों, सभी आदित्यों और उनके गणों, यज्ञों एवं नागलोक में विचरण करनेवाले समस्त नागों का भी बहुत बड़ी संख्या में वरण किया था ॥ १९ ॥ ब्रह्मर्षि, देवर्षि, राजर्षियों के समुदाय और अपने मित्रों, मन्त्रियों तथा सेनाओं के साथ अनेक राजा भी वहाँ आये हुए थे । यजमान दक्ष ने उस यज्ञ में वसु आदि समस्त गण-देवताओं का भी वरण किया था । कौतुक और मंगलाचार करके जब दक्ष ने यज्ञ की दीक्षा ली तथा जब उनके लिये बारंबार स्वस्तिवाचन किया जाने लगा, तब वे अपनी पत्नी के साथ बड़ी शोभा पाने लगे ॥ २०-२१ ॥ [इतना सब करनेपर भी] दुरात्मा दक्ष ने उस यज्ञ में भगवान् शम्भु को नहीं बुलाया । उनकी दृष्टि में कपालधारी होने के कारण वे निश्चय ही यज्ञ में भाग लेने योग्य नहीं थे । दोषदर्शी दक्ष ने कपाली की पत्नी होने के कारण अपनी प्रिय पुत्री सती को भी यज्ञ में नहीं बुलाया ॥ २२-२३ ॥ इस प्रकार दक्ष के यज्ञ-महोत्सव के आरम्भ हो जाने पर यज्ञमण्डप में आये हुए सब ऋत्विज अपने-अपने कार्य में संलग्न हो गये । इसी बीच वहाँ भगवान् शंकर को [उपस्थित] न देखकर शिवभक्त दधीचि का चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और वे कहने लगे — ॥ २४-२५ ॥ दधीचि बोले — हे प्रमुख देवताओ तथा महर्षियो ! आप सब लोग प्रसन्नतापूर्वक मेरी बात सुनें । इस यज्ञमहोत्सव में भगवान् शंकर क्यों नहीं आये हैं ? ॥ २६ ॥ यद्यपि ये देवेश्वर, बड़े-बड़े मुनि और लोकपाल यहाँ आये हुए हैं, तथापि उन पिनाकधारी महात्मा शंकर के बिना यह यज्ञ अधिक शोभा नहीं पा रहा है । बड़े-बड़े विद्वान् कहते हैं कि मंगलमय भगवान् शिवजी की कृपादृष्टि से ही समस्त मंगलकार्य सम्पन्न हो जाते हैं । जिनका ऐसा प्रभाव है, वे पुराणपुरुष, वृषभध्वज, परमेश्वर श्रीनीलकण्ठ यहाँ क्यों नहीं दिखायी दे रहे हैं ? हे दक्ष ! जिनके सम्पर्क में आने पर अथवा जिनके स्वीकार कर लेने पर अमंगल भी मंगल हो जाते हैं तथा जिनके पन्द्रह नेत्रों से देखे जाने पर बड़े-से-बड़े मंगल तत्काल हो जाते हैं, उनका इस यज्ञ में पदार्पण होना अत्यन्त आवश्यक है ॥ २७–२९ ॥ इसलिये तुम्हें स्वयं ही परमेश्वर शिवजी को यहाँ बुलाना चाहिये अथवा ब्रह्मा, प्रभावशाली भगवान् विष्णु, इन्द्र, लोकपालों, ब्राह्मणों और सिद्धों की सहायता से सर्वथा प्रयत्न करके इस समय यज्ञ की पूर्ति के लिये उन भगवान् शंकर को यहाँ ले आना चाहिये ॥ ३०-३१ ॥ आप सब लोग उस स्थान पर जायँ, जहाँ महेश्वरदेव विराजमान हैं । वहाँ से दक्षनन्दिनी सती के साथ भगवान् शम्भु को यहाँ तुरंत ले आयें । हे देवेश्वरो ! जगदम्बासहित उन परमात्मा शिव के यहाँ आ जाने से सब कुछ पवित्र हो जायगा । जिनके स्मरण से तथा नाम लेने से सारा कार्य पुण्यमय बन जाता है, अतः पूर्ण प्रयत्न करके उन भगवान् वृषभध्वज को यहाँ ले आना चाहिये ॥ ३२-३४ ॥ भगवान् शंकर के यहाँ आनेपर यह यज्ञ पवित्र हो जायगा, अन्यथा यह अपूर्ण ही रह जायगा, यह मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] दधीचि का यह वचन सुनकर दुष्ट बुद्धिवाले मूढ़ दक्ष हँसते हुए शीघ्र ही रोषपूर्वक कहने लगे — ॥ ३६ ॥ ‘भगवान् विष्णु सम्पूर्ण देवताओं के मूल हैं, जिनमें सनातनधर्म प्रतिष्ठित है । जब इन्हें मैंने सादर बुला लिया है, तब इस यज्ञकर्म में क्या कमी हो सकती है ? ॥ ३७ ॥ जिनमें वेद, यज्ञ और नाना प्रकार के कर्म प्रतिष्ठित हैं, वे भगवान् विष्णु तो यहाँ आ ही गये हैं ॥ ३८ ॥ लोकपितामह ब्रह्मा सत्यलोक से वेदों, उपनिषदों और विविध आगमों के साथ यहाँ आये हुए हैं ॥ ३९ ॥ देवगणोंके साथ स्वयं देवराज इन्द्र भी आये हैं तथा निष्पाप आप ऋषिगण भी यहाँ आ गये हैं । जो-जो यज्ञ में सम्मिलित होनेयोग्य शान्त, सुपात्र हैं, वेद और वेदार्थ के तत्त्व को जाननेवाले और दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करनेवाले हैं — वे आप सब यहाँ पदार्पण कर चुके हैं, तब हमें यहाँ रुद्र से क्या प्रयोजन है ! हे विप्र ! मैंने ब्रह्माजी के कहने से ही अपनी कन्या रुद्र को दी थी ॥ ४०-४२ ॥ हे विप्र ! हर कुलीन नहीं है, उसके माता-पिता नहीं हैं, वह भूतों-प्रेतों-पिशाचों का स्वामी अकेला रहता है और उसका अतिक्रमण करना दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है । वह आत्मप्रशंसक, मूढ़, जड़, मौनी और ईर्ष्यालु है । वह इस यज्ञकर्म के योग्य नहीं है, इसलिये मैंने उसको यहाँ नहीं बुलाया है ॥ ४३-४४ ॥ अतः [दधीचिजी!] आप ऐसा पुनः कभी न कहें, आप सभी लोग मिलकर मेरे महान् यज्ञ को सफल बनायें’ ॥ ४५ ॥ ब्रह्माजी बोले — दक्ष की यह बात सुनकर दधीचि सभी देवताओं तथा मुनियों को सुनाते हुए सारयुक्त वचन कहने लगे — ॥ ४६ ॥ दधीचि बोले — [हे दक्ष!] उन भगवान् शिव के बिना यह महान् यज्ञ भी अयज्ञ है । निश्चय ही इस यज्ञ से तुम्हारा विनाश होगा । इस प्रकार कहकर दधीचि दक्ष की यज्ञशाला से अकेले ही निकलकर अपने आश्रम को चल दिये । तदनन्तर जो मुख्य-मुख्य शिवभक्त थे तथा उनके मत का अनुसरण करनेवाले थे, वे भी दक्ष को शाप देकर तुरंत वहाँ से अपने आश्रमों को चले गये ॥ ४७-४९ ॥ मुनि दधीचि तथा दूसरे ऋषियों के उस यज्ञमण्डप से निकल जाने पर दुष्टबुद्धि तथा शिवद्रोही दक्ष मुसकराते हुए अन्य मुनियों से कहने लगे — ॥ ५० ॥ दक्ष बोले — दधीचि नामक वे शिवप्रिय ब्राह्मण चले गये और उन्हीं के समान जो दूसरे थे, वे भी मेरे यज्ञ से चले गये । यह तो बड़ा अच्छा हुआ । मुझे सदा यही अभीष्ट है । हे देवेश ! हे देवताओ और हे मुनियो ! मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ५१-५२ ॥ जो नष्टबुद्धिवाले, मूर्ख, मिथ्या-भाषण में रत, खल, वेदबहिष्कृत और दुराचारी हैं, उन लोगों को यज्ञकर्म में त्याग देना चाहिये । आप सभी लोग वेदवाद में परायण रहनेवाले हैं । अतः विष्णु आदि सब देवता और ब्राह्मण मेरे इस यज्ञ को शीघ्र सफल बनायें ॥ ५३-५४ ॥ ब्रह्माजी बोले — उसकी यह बात सुनकर शिव की माया से मोहित हुए समस्त देवता तथा ऋषि उस यज्ञ में देवताओं का पूजन करने लगे ॥ ५५ ॥ हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने उस यज्ञ को दधीचि द्वारा प्रदत्त शाप का वर्णन कर दिया । अब यज्ञ के विध्वंस की घटना भी बता रहा हूँ, आदरपूर्वक सुनिये ॥ ५६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में यज्ञ का प्रारम्भ नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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