शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 29
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
उनतीसवाँ अध्याय
यज्ञशाला में शिव का भाग न देखकर तथा दक्ष द्वारा शिव-निन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सती का दक्ष तथा देवताओं को फटकारना और प्राणत्याग का निश्चय

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] दक्षकन्या सती उस स्थान पर गयीं, जहाँ देवता, असुर और मुनीन्द्र आदि के कौतूहलपूर्ण कार्य से युक्त महान् यज्ञ हो रहा था ॥ १ ॥ सती ने वहाँ अपने पिता के भवन को देखा, जो नाना प्रकार के आश्चर्यजनक भावों से युक्त, कान्तिमान्, मनोहर तथा देवताओं और ऋषियों के समुदाय से भरा हुआ था ॥ २ ॥ देवी सती भवन के द्वार पर जाकर खड़ी हुईं और अपने वाहन नन्दी से उतरकर अकेली ही शीघ्रतापूर्वक यज्ञस्थल के भीतर गयीं ॥ ३ ॥ सती को आया देख उनकी यशस्विनी माता असिक्नी (वीरिणी) और बहनों ने उनका यथोचित सत्कार किया ॥ ४ ॥ परंतु दक्ष ने उन्हें देखकर भी कुछ आदर नहीं किया तथा उनके भय से शिव की माया से मोहित हुए अन्य लोगों ने भी उनका आदर नहीं किया ॥ ५ ॥

शिवमहापुराण

हे मुने ! सब लोगों के द्वारा तिरस्कार प्राप्त होनेपर भी सती देवी ने अत्यन्त विस्मित हो माता-पिता को प्रणाम किया ॥ ६ ॥ उस यज्ञ में सती ने भगवान् विष्णु आदि देवताओं के भाग को देखा, परंतु शिवजी का भाग कहीं भी दिखायी नहीं दिया, तब उन्होंने असह्य क्रोध प्रकट किया । अपमानित होकर भी रोष से भरकर सब लोगों की ओर क्रूर दृष्टि से देखकर दक्ष को भस्म करती हुई-सी वे कहने लगीं ॥ ७-८ ॥

सती बोलीं — आपने परम मंगलकारी शिव को [इस यज्ञमें] क्यों नहीं बुलाया, जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण चराचर जगत् पवित्र होता है । जो यज्ञस्वरूप, यज्ञवेत्ताओं में श्रेष्ठ, यज्ञ के अंग, यज्ञ की दक्षिणा और यज्ञकर्ता हैं, उन शिव के बिना यह यज्ञ कैसे पूर्ण हो सकता है ? ॥ ९-१० ॥ अहो ! जिनके स्मरणमात्र से सब कुछ पवित्र हो जाता है, उनके बिना किया हुआ यह सारा यज्ञ अपवित्र हो जायगा ॥ ११ ॥ द्रव्य, मन्त्र आदि, हव्य और कव्य — ये सब जिनके स्वरूप हैं, उन शिव के बिना यज्ञ का आरम्भ कैसे किया गया ? ॥ १२ ॥ क्या आपने शिवजी को सामान्य देवता समझकर उनका अनादर किया है ? हे अधम पिता ! अवश्य ही आपकी बुद्धि आज भ्रष्ट हो गयी है ॥ १३ ॥ ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता महेश्वर की सेवा करके अपनी पदवी पर अधिष्ठित हैं । निश्चय ही आप अभीतक उन शिव को नहीं जानते हैं ॥ १४ ॥ ये ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता तथा मुनि अपने प्रभु भगवान् शिव के बिना इस यज्ञ में कैसे चले आये ? ॥ १५ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर शिवस्वरूपिणी परमेश्वरी विष्णु आदि सब देवताओं को अलग-अलग फटकारती हुई कहने लगीं — ॥ १६ ॥

सती बोलीं — हे विष्णो ! श्रुतियाँ जिन्हें सगुण एवं निर्गुणरूप से प्रतिपादित करती हैं, क्या आप उन शिवजी को यथार्थ रूप से नहीं जानते हैं ? ॥ १७ ॥ [हे विष्णो!] यद्यपि पूर्वकाल में शिवजी ने शाल्वादि रूपों के द्वारा आपके सिर पर हाथ रखकर कई बार शिक्षा दी है, फिर भी हे दुर्बुद्धे ! आपके हृदय में ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ और आपने अपने स्वामी शंकर के बिना ही इस यज्ञ में भाग ग्रहण कर लिया ! ॥ १८-१९ ॥ [हे ब्रह्मन् !] आप पूर्वकाल में जब पाँच मुखवाले होकर सदाशिव के प्रति गर्वित हो गये थे, तब उन्होंने आपको चार मुखवाला कर दिया था, आप उन्हें भूल गये — यह तो आश्चर्य है ! ॥ २० ॥ हे इन्द्र ! क्या आप शंकर के पराक्रम को नहीं जानते ? कठिन कर्म करनेवाले शिवजी ने ही आपके वज्र को भस्म कर दिया था ॥ २१ ॥

हे देवताओ ! क्या आपलोग महादेव का पराक्रम नहीं जानते । हे अत्रे ! हे वसिष्ठ ! हे मुनियो ! आपलोगों ने यह क्या कर डाला ? ॥ २२ ॥ जब शिवजी दारुवन में भिक्षाटन कर रहे थे और आप सभी मुनियों ने उन भिक्षुक रुद्र को शाप दे दिया था, तब शापित होकर उन्होंने जो किया था, उसे आपलोग कैसे भूल गये ? उनके लिंग से चराचरसहित समस्त भुवन दग्ध होने लगा था ॥ २३-२४ ॥ [ऐसा लग रहा है कि] ब्रह्मा, विष्णु आदि समस्त देवता तथा अन्य मुनिगण मूर्ख हो गये हैं, जो कि भगवान् शिव के बिना ही इस यज्ञ में आ गये ॥ २५ ॥ अंगोंसहित सभी वेद, शास्त्र एवं वाणी जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन वेदान्तवेद्य भगवान् शंकर को जानने में कोई पार नहीं पा सकता है ॥ २६ ॥

ब्रह्माजी बोले — [नारद!] इस प्रकार क्रोध से भरी हुई जगदम्बा सती ने वहाँ व्यथित-हृदय से अनेक प्रकार की बातें कहीं ॥ २७ ॥ श्रीविष्णु आदि समस्त देवता और मुनि जो वहाँ उपस्थित थे, उनकी बात सुनकर चुप रह गये और भय से व्याकुलचित्त हो गये ॥ २८ ॥ तब दक्ष अपनी पुत्री के उस प्रकार के वचन को सुनकर उन सती को क्रूर दृष्टि से देखकर क्रोधित होकर कहने लगे — ॥ २९ ॥

दक्ष बोले — हे भद्रे ! तुम्हारे बहुत कहने से क्या लाभ ! इस समय यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है । तुम चली जाओ या ठहरो, तुम यहाँ किसलिये आयी हो ? ॥ ३० ॥ सभी विद्वान् जानते हैं कि तुम्हारे पति शिव मंगलरहित, अकुलीन तथा वेद से बहिष्कृत हैं और भूतों-प्रेतों के स्वामी हैं । इसलिये हे पुत्रि ! मुझ बुद्धिमान् ने ऐसा जानकर कुवेषधारी शिव को देवताओं और ऋषियों की इस सभा में नहीं बुलाया ॥ ३१-३२ ॥ मुझ पापी दुर्बुद्धि ने ब्रह्माजी के द्वारा प्रेरित किये जाने पर शास्त्र के अर्थ को न जाननेवाले, उद्दण्ड तथा दुरात्मा रुद्र को तुम्हें प्रदान कर दिया था ॥ ३३ ॥ इसलिये हे शुचिस्मिते ! तुम क्रोध छोड़कर शान्त हो जाओ और यदि इस यज्ञ में तुम आ ही गयी हो तो अपना भाग ग्रहण करो ॥ ३४ ॥

ब्रह्माजी बोले — दक्ष के इस प्रकार कहने पर त्रिभुवनपूजिता दक्षपुत्री सती निन्दायुक्त अपने पिता की ओर देखकर अत्यन्त क्रोधित हो गयीं ॥ ३५ ॥ वे सोचने लगीं कि अब मैं शंकरजी के पास कैसे जाऊँ ? मैं तो शंकर को देखना चाहती हूँ, किंतु उनके पूछने पर मैं क्या उत्तर दूंगी ? ॥ ३६ ॥ तदनन्तर तीनों लोकों की जननी वे सती क्रोध से युक्त हो लम्बी श्वास लेती हुई दूषित मनवाले अपने पिता से कहने लगीं — ॥ ३७ ॥

सती बोलीं — जो महादेवजी की निन्दा करता है अथवा जो उनकी हो रही निन्दा को सुनता है, वे दोनों तब तक नरक में पड़े रहते हैं, जब तक चन्द्रमा और सूर्य विद्यमान हैं ॥ ३८ ॥ अतः हे तात ! मैं अग्नि में प्रवेश करूँगी और [अपने] शरीर को त्याग दूंगी, अपने स्वामी का अनादर सुनकर अब मुझे जीवन से क्या प्रयोजन ? ॥ ३९ ॥ [शिवनिन्दा सुननेवाला व्यक्ति] यदि समर्थ हो तो वह स्वयं विशेष यत्न करके शम्भु की निन्दा करनेवाले की जीभ को बलपूर्वक काट डाले, तभी वह [शिव-निन्दा-श्रवण के पाप से] शुद्ध हो सकता है, इसमें संशय नहीं है । यदि मनुष्य [कुछ प्रतिकार कर सकने में] असमर्थ हो, तो बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि वह दोनों कान बंद करके वहाँ से चला जाय, तब वह पाप से शुद्ध हो सकता है — ऐसा श्रेष्ठ विद्वान् कहते हैं ॥ ४०-४१ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार धर्मनीति कहकर वे सती पश्चात्ताप करने लगीं और उन्होंने व्यथितचित्त से भगवान् शंकर के वचन का स्मरण किया ॥ ४२ ॥ तदनन्तर सती ने अत्यन्त कुपित हो दक्ष तथा उन विष्णु आदि समस्त देवताओं और मुनियों से भी निडर होकर कहा — ॥ ४३ ॥

सती बोलीं — हे तात ! आप शंकर के निन्दक हैं, अतः आपको पश्चात्ताप करना पड़ेगा, इस लोक में महान् दुःख भोगकर अन्त में आपको यातना भोगनी पड़ेगी ॥ ४४ ॥ इस लोक में जिन परमात्मा का न कोई प्रिय है, न अप्रिय है, उन द्वेषरहित शिव के साथ आपके अतिरिक्त दूसरा कौन वैर कर सकता है ? ॥ ४५ ॥ जो दुष्ट लोग हैं, वे सदा ईर्ष्यापूर्वक यदि महापुरुषों की निन्दा करें तो उनके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, परंतु जो महात्माओं के चरणों की रज से अपने अज्ञानान्धकार को दूर कर चुके हैं, उन्हें महापुरुषों की निन्दा शोभा नहीं देती ॥ ४६ ॥ जिनका ‘शिव’ यह दो अक्षरों का नाम कभी बातचीत के प्रसंग से मनुष्यों की वाणी द्वारा एक बार उच्चरित हो जाय, तो वह सम्पूर्ण पापराशि को शीघ्र ही नष्ट कर देता है, अहो, खलस्वरूप आप शिव से विपरीत होकर उन पवित्र कीर्तिवाले, निर्मल, अलंघ्य शासनवाले सर्वेश्वर शिव से विद्वेष करते हैं ॥ ४७-४८ ॥

महापुरुषों के मनरूपी मधुकर ब्रह्मानन्दमय रस का पान करने की इच्छा से जिनके सर्वार्थदायक चरणकमलों का निरन्तर सेवन किया करते हैं और जो शिव संसार के लोगों पर शीघ्र ही आदरपूर्वक मनोरथों की वर्षा करते हैं, सबके बन्धु उन्हीं महादेव से आप मूर्खतावश द्रोह करते हैं ॥ ४९-५० ॥ जिन शिव को आप अशिव बताते हैं, उन्हें क्या आपके सिवा दूसरे विद्वान् नहीं जानते । ब्रह्मा आदि देवता, सनक आदि मुनि तथा अन्य ज्ञानी क्या उनके स्वरूप को नहीं समझते ॥ ५१ ॥ उदारबुद्धि भगवान् शिव जटा फैलाये, कपाल धारण किये श्मशान में भूतों के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं तथा भस्म एवं नरमुण्डों की माला धारण करते हैं ॥ ५२ ॥ इस बात को जानकर भी जो मुनि और देवता उनके चरणों से गिरे निर्माल्य को बड़े आदर के साथ अपने मस्तक पर चढ़ाते हैं, इसका क्या कारण है ? यही कि वे भगवान् शिव ही साक्षात् परमेश्वर हैं ॥ ५३ ॥

वेदों में प्रवृत्त तथा निवृत्त — ये दो प्रकार के कर्म बताये गये हैं, जिनका विद्वानों को विवेकपूर्वक विचार करना चाहिये । ये दोनों ही कर्म परस्पर विरुद्ध गतिवाले हैं, अतः एक कर्ता के द्वारा इनका साथ-साथ अनुष्ठान नहीं किया जा सकता । भगवान् शिव तो साक्षात् परब्रह्म हैं, अत: उनमें इन दोनों ही कर्मों की गति नहीं है । (अतः वे इन दोनों ही कर्मों से परतन्त्र नहीं हैं) ॥ ५४-५५ ॥ हे पितः ! जो योगैश्वर्य अर्थात् अणिमा आदि सिद्धियाँ हमें सर्वदा प्राप्त हैं, वे आपको प्राप्त नहीं हैं । आपकी यज्ञशालाओं में आयोजित होनेवाले तथा धूममार्ग को प्रदान करनेवाले प्रवृत्तिमार्गीय कर्मों का हम त्याग कर चुके हैं । हमारा ऐश्वर्य अव्यक्त है तथा ब्रह्मवेत्ता पुरुषों के द्वारा निरन्तर सेवित है । हे तात ! आप विपरीत बुद्धिवाले हैं, अतः आपको अभिमान नहीं करना चाहिये ॥ ५६-५७ ॥ अधिक कहने से क्या लाभ ? आप दुष्टहृदय हैं और आपकी बुद्धि सर्वथा दूषित हो चुकी है, अतः आपसे उत्पन्न हुए इस शरीर से भी मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं रहा, उस दुष्ट व्यक्ति के जन्म को धिक्कार है, जो महापुरुषों के प्रति अपराध करनेवाला है । विद्वान् पुरुष को चाहिये कि ऐसे सम्बन्ध का विशेष रूप से त्याग कर दे ॥ ५८-५९ ॥

जिस समय भगवान् शिव आप के गोत्र का उच्चारण करते हुए मुझे दाक्षायणी कहेंगे, उस समय मेरा मन सहसा अत्यन्त दुखी हो जायगा ॥ ६० ॥ इसलिये आपके अंग से उत्पन्न हुए शवतुल्य घृणित इस शरीर को इस समय मैं अवश्य ही त्याग दूंगी और ऐसा करके सुखी हो जाऊँगी ॥ ६१ ॥ हे देवताओ और मुनियो ! आप सब लोग मेरी बात सुनें, दूषित मनवाले आपलोगों का यह कर्म सर्वथा अनुचित है । आप सब लोग मूढ हैं; क्योंकि शिवजी की निन्दा और कलह आपलोगों को प्रिय है । अतः भगवान् हर से सभी को इस कुकर्म का निश्चय ही पूरा-पूरा दण्ड मिलेगा ॥ ६२-६३ ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] उस यज्ञ में दक्ष से तथा देवताओं से ऐसा कहकर सती देवी चुप हो गयीं और मन-ही-मन अपने प्राणवल्लभ शम्भु का स्मरण करने लगीं ॥ ६४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सती का वाक्य वर्णन नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥

 

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.