July 28, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 05 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः पाँचवाँ अध्याय नारदजी का शिवतीर्थों में भ्रमण, शिवगणों को शापोद्धार की बात बताना तथा ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्माजी से शिवतत्त्व के विषय में प्रश्न करना सूतजी बोले — महर्षियो ! भगवान् श्रीहरि के अन्तर्धान हो जाने पर मुनिश्रेष्ठ नारद शिवलिंगों का भक्तिपूर्वक दर्शन करते हुए पृथ्वी पर विचरने लगे ॥ १ ॥ ब्राह्मणो ! भूमण्डल पर घूम-फिरकर उन्होंने भोग और मोक्ष देनेवाले बहुत से शिवलिंगों का प्रेमपूर्वक दर्शन किया ॥ २ ॥ दिव्यदर्शी नारदजी भूतल के तीर्थों में विचर रहे हैं । और इस समय उनका चित्त शुद्ध है — यह जानकर वे दोनों शिवगण उनके पास गये ॥ ३ ॥ वे दोनों शिवगण शाप से उद्धार की इच्छा से आदरपूर्वक मस्तक झुकाकर भली-भाँति प्रणाम करके मुनि के दोनों पैर पकड़कर आदरपूर्वक उनसे कहने लगे — ॥ ४ ॥ शिवमहापुराण शिवगण बोले — हे ब्रह्मपुत्र देवर्षे ! प्रेमपूर्वक हम दोनों की बातों को सुनिये । वास्तव में हम दोनों ही आपका अपराध करनेवाले हैं, ब्राह्मण नहीं हैं ॥ ५ ॥ हे मुने ! हे विप्र ! आपका अपराध करनेवाले हम दोनों शिव के गण हैं । राजकुमारी श्रीमती के स्वयंवर में आपका चित्त माया से मोहित हो रहा था । उस समय परमेश्वर की प्रेरणा से आपने हम दोनों को शाप दे दिया । वहाँ कुसमय जानकर हमने चुप रह जाना ही अपनी जीवन-रक्षा का उपाय समझा ॥ ६-७ ॥ इसमें किसी का दोष नहीं है । हमें अपने कर्म का ही फल प्राप्त हुआ है । प्रभो ! अब आप प्रसन्न होइये और हम दोनों पर अनुग्रह कीजिये ॥ ८ ॥ सूतजी बोले — उन दोनों गणों के द्वारा भक्तिपूर्वक कहे गये वचनों को सुनकर पश्चात्ताप करते हुए देवर्षि नारद प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ ९ ॥ नारदजी बोले — आप दोनों महादेव के गण हैं और सत्पुरुषों के लिये परम सम्माननीय हैं, अतः मेरे मोहरहित एवं सुखदायक यथार्थ वचन को सुनिये ॥ १० ॥ पहले निश्चय ही शिवेच्छावश मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी और मैं सर्वथा मोह के वशीभूत हो गया था । इसीलिये आप दोनों को कुबुद्धिवाले मैंने शाप दे दिया ॥ ११ ॥ हे शिवगणो ! मैंने जो कुछ कहा है, वह वैसा ही होगा, फिर भी मेरी बात सुनें । मैं आपके लिये शापोद्धार की बात बता रहा हूँ । आपलोग आज मेरे अपराध को क्षमा कर दें ॥ १२ ॥ मुनिवर विश्रवा के वीर्य से जन्म ग्रहण करके आप सम्पूर्ण दिशाओं में प्रसिद्ध [कुम्भकर्ण-रावण] राक्षसराज का शरीर प्राप्त करेंगे और बलवान्, वैभव से युक्त तथा परम प्रतापी होंगे ॥ १३ ॥ समस्त ब्रह्माण्ड के राजा होकर शिवभक्त एवं जितेन्द्रिय होंगे और शिव के ही दूसरे स्वरूप श्रीविष्णु के हाथों मृत्यु पाकर फिर आप दोनों अपने पद पर प्रतिष्ठित हो जायँगे ॥ १४ ॥ सूतजी बोले — हे महर्षियो ! महात्मा नारदमुनि की यह बात सुनकर वे दोनों शिवगण प्रसन्न होकर सानन्द अपने स्थान को लौट गये ॥ १५ ॥ नारदजी भी अत्यन्त आनन्दित हो अनन्य भाव से भगवान् शिव का ध्यान तथा शिवतीर्थों का दर्शन करते हुए बारम्बार भूमण्डल में विचरने लगे ॥ १६ ॥ अन्त में वे सबके ऊपर विराजमान काशीपुरी में गये, जो शिवजी की प्रिय, शिवस्वरूपिणी एवं शिव को सुख देनेवाली है ॥ १७ ॥’ काशीपुरी का दर्शन करके नारदजी कृतार्थ हो गये । उन्होंने भगवान् काशीनाथ का दर्शन किया और परम प्रीति एवं परमानन्द से युक्त हो उनकी पूजा की ॥ १८ ॥ काशी का सानन्द सेवन करके वे मुनिश्रेष्ठ कृतार्थता का अनुभव करने लगे और प्रेम से विह्वल हो उसका नमन, वर्णन तथा स्मरण करते हुए ब्रह्मलोक को गये । निरन्तर शिव का स्मरण करने से शुद्ध-बुद्धि को प्राप्त देवर्षि नारद ने वहाँ पहुँचकर विशेषरूप से शिवतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से ब्रह्माजी को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करके उनसे शिवतत्त्व के विषय में पूछा । उस समय नारदजी का हृदय भगवान् शंकर के प्रति भक्तिभावना से परिपूर्ण था ॥ १९-२१ ॥ नारदजी बोले — ‘हे ब्रह्मन् ! परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप को जाननेवाले हे पितामह ! हे जगत्प्रभो ! आपके कृपाप्रसाद से मैंने भगवान् विष्णु के उत्तम माहात्म्य का पूर्णतया ज्ञान प्राप्त किया है ॥ २२ ॥ भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग, अत्यन्त दुस्तर तपोमार्ग, दानमार्ग तथा तीर्थमार्ग का भी वर्णन सुना है, परंतु शिवतत्त्व का ज्ञान मुझे अभी तक नहीं हुआ है । मैं भगवान् शंकर की पूजा-विधि को भी नहीं जानता । अतः हे प्रभो ! आप क्रमशः इन विषयों को तथा भगवान् शिव के विविध चरित्रों को मुझे बताने की कृपा करें ॥ २३-२४ ॥ हे तात ! शिव तो निर्गुण होते हुए भी सगुण हैं । यह कैसे सम्भव है । शिव की माया से मोहित होने के कारण मैं शिव के तत्त्व को नहीं जान पा रहा हूँ ॥ २५ ॥ सृष्टि के पूर्व भगवान् शंकर किस स्वरूप से अवस्थित रहते हैं और सृष्टि के मध्य में कैसी क्रीडा करते हुए स्थित रहते हैं । सृष्टि के अन्त में वे देव महेश्वर किस प्रकार से रहते हैं और संसार का कल्याण करनेवाले वे सदाशिव किस प्रकार प्रसन्न रहते हैं ॥ २६-२७ ॥ हे विधाता ! वे सन्तुष्ट होकर अपने भक्तों और अन्य लोगों को कैसा फल देते हैं, वह सब हमें बतायें । मैंने सुना है कि वे भगवान् तत्काल प्रसन्न हो जाते हैं । परमदयालु वे भक्त के कष्ट को नहीं देख पाते हैं ॥ २८-२९ ॥ ब्रह्मा, विष्णु और महेश — ये तीनों देव शिव के ही अंश हैं । महेश उनमें पूर्ण अंश हैं और स्वयं में वे परात्पर शिव है ॥ ३० ॥ आप उन महेश्वर शिव के आविर्भाव एवं उनके चरित्र को विशेष रूप से कहें । हे प्रभो ! [इस कथा के साथ ही] उमा (पार्वती)-के आविर्भाव और उनके विवाह की भी चर्चा करें ॥ ३१ ॥ उनके गृहस्थ आश्रम और उस आश्रम में की गयी विशिष्ट लीलाओं का वर्णन करें । हे निष्पाप ! इन सब [कथाओं]-के साथ अन्य जो कहनेयोग्य बातें हैं, उनका भी वर्णन करें ॥ ३२ ॥ हे प्रजानाथ ! उन (शिव) और शिवा के आविर्भाव एवं विवाह का प्रसंग विशेष रूप से कहें तथा कार्तिकेय के जन्म की कथा भी मुझे सुनायें ॥ ३३ ॥ हे जगत्प्रभो ! पहले बहुत लोगों से मैंने ये बातें सुनी हैं, किंतु तृप्त नहीं हो सका हूँ, इसीलिये आपकी शरण में आया हूँ । आप मुझपर कृपा करें’ ॥ ३४ ॥ अपने पुत्र नारद की यह बात सुनकर लोकपितामह ब्रह्मा वहाँ इस प्रकार कहने लगे — ॥ ३५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान का नारद-प्रश्न-वर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ Related